भागीरथी जी थी ठेठ देसी गांव की महिला थीं। जन्म से लेकर ब्याह तक वह गांव में ही पली-बढ़ी। खेती-बाड़ी, गाय दुहना, लिपना-पोतना, चूल्हे पर खाना बनाना आदि काम कई वर्षों तक, उनकी दिनचर्या का हिस्सा रहे हैं।
यूं तो उन्हें शहर में बसे वर्षों हो गए। हर काम में होशियार थी। शहरी जिंदगी को भी उन्होंने बहुत आसानी से अपना लिया था। उन्हें देखकर तो कोई नहीं कह सकता था कि वह वर्षों गांव में रही हैं।
मगर फिर भी उनके घर के कुछ नियम अब भी बहुत कड़े थे। उससे भी कठोर था उनका स्वभाव। कुछ बातों में शहरीकरण को अभी उन्होंने अपनाया नहीं था।
जाति-पाति का भेद वे अब भी नहीं मिटा पाईं थीं। अपने ब्राह्मण होने पर उन्हें बहुत गर्व था। अन्य सभी जाति के लोगों को वह अपने से तुच्छ ही समझती थी।
वे ठहरी ठेठ देसी। ऊपर से मुंहफट। सामने कोई भी हो जो उनके मुंह में आया बिना लिहाज वे कह ही देती थी ।
उनके दो बच्चे थे राघव और प्रणव। उनके पति महादेव जी। बस यही चार लोगों का उनका छोटा सा परिवार था।
बच्चे शहरी वातावरण में पले-बढ़े थे। उन्हें अपनी मां का यह स्वभाव बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता था। आसपास के उनके सभी मित्र उनसे कटने लगे थे।
वे कई बार अपनी मां से कहते थे कि मां ऐसा व्यवहार क्यों करती हो? तुम्हें किसी से व्यवहार रखना है तो रखो, नहीं रखता है तो सब पर अपनी हुकूमत मत झाड़ो। वे उल्टा अपने बच्चों को ही सुना देती थी। चाहे जो हो जाए किसी के लिए भी मैं अपने धर्म, संस्कार नहीं बदलूंगी।
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महादेव जी बहुत ही शांत स्वभाव के थे। उन्होंने भी भागीरथी जी को कई बार उनके स्वभाव के बारे में समझाने का प्रयास किया था। वे उनसे अक्सर कहा करते थे, भागीरथी जरा शांत रहा करो। हर बात पर इतना भड़कना उचित नहीं। वे तो यहां तक कहा करते थे की भागीरथी जैसा तुम्हारा नाम है वैसा काम करो। गंगा तो न जाने कितनों के पाप धोती है, तुम दूसरों को भला – बुरा कहकर क्यों पाप की भागी बनती हो ? कल को घर में बहू आएगी तो क्या करोगी।
उनके घर में अब तक उन्होंने एक भी महरी किसी भी काम के लिए नहीं लगाई थी क्योंकि उन्हें अपनी रसोई में, घर में पर अन्य जाति की किसी भी महिला का आना पसंद नहीं था।
आसपास की महिलाओं से भी उनकी खास नहीं बनती थी। आसपास की बहू-बेटियों पर उंगली उठाने में भी देर नहीं करती थी।
धीरे-धीरे उनके दोनों बेटे भी बड़े हुए। प्रणव तो पढ़ाई के लिए और उसके बाद नौकरी लगते ही मुंबई में ही रहने लगा। उनके भी शादी ब्याह का समय आया।
बड़े बेटे राघव का ब्याह बहुत धूमधाम से किया गया। बहु श्यामा बहुत ही सुंदर सुशील, गृह कार्य में दक्ष, नौकरी पेशा युवति थी।
शुरू शुरू में तो सब कुछ ठीक था। मगर भागीरथी जी तो भागीरथी जी ठहरीं। किसी अन्य को अपनाना एवं अपनी गृह सत्ता उसे सौंपना यह उनके लिए इतना आसान नहीं था।
श्यामा जितना सामंजस्य बिठाने का प्रयास करती। भागीरथी जी को उसके हर कार्य में उतनी ही कमियां नजर आती। उन्हें उसके हाथ का खाना न भाता, ना कोई और काम।
धीरे-धीरे घर में तकरार बढ़ने लगी। श्यामा का मन खिन्न रहने लगा। वह कई बार राघव से कहती कि मैं क्या करूं। मां जी को तो मेरी कोई बात ही अच्छी नहीं लगती।
वह जब भी अपनी मां से इस बारे में कोई बात करता। आदतन भागीरथी जी बीवी का गुलाम, तू बदल गया है, इस घर में अब मां की कोई इज्जत नहीं रही ऐसे कई जुमलों और तानों से राघव का भी मन खिन्न कर देती थी।
शुरुआत में तो कई बार महादेव जी ने भागीरथी जी को समझाने का प्रयास किया। वे कई बार भागीरथी जी से कहते थे कि श्यामा बिन मां की बच्ची है, उसे मां की तरह अपनाओ। मगर भागीरथी जी तो भागीरथी जी ठहरी वह कब कहां किसी की सुनने वाली थी। इसके उलट जब भी महादेव जी श्यामा के पक्ष में कुछ कहते भागीरथी जी और ज्यादा नाराज हो जाती थी। महादेव जी ने तो अब जैसे मौन ही साध लिया था। वे अब कुछ भी कह कर श्यामा की मुश्किलें और नहीं बढ़ाना चाहते थे।
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धीरे-धीरे समय बितता गया श्यामा दो बच्चों की मां बनी। श्यामा बिन मां की बच्ची थी। उसकी दोनों डिलीवरीयां ससुराल में ही हुई। गर्भावस्था से लेकर डिलीवरी तक का नों माह का समय उसके लिए बहुत कठिन रहा था। ना वो अपनी इच्छा से खा सकती थी, ना बना सकती और बाहर से मंगा कर खाना तो नामुमकिन ही था। ना ही वह कहीं बाहर आ जा सकती थी। उसकी जिंदगी के कुछ अच्छे पल बस वही थे जितना समय वह नौकरी पर, घर से बाहर बिताती थी।
वह भागीरथी जी को अपनी मां ही मानती थी। इसीलिए उनके तानों, उलाहनों को दर किनार कर, अपने मन को समझा लेती थी। भागीरथी जी कोई भी मौका नहीं चुकती थी श्यामा को नीचा दिखाने का। यह घर मेरा है, यह तो उनका तकिया कलाम बन चुका था। श्यामा के आने के बाद से, न जाने उन्हें क्या खो जाने का डर था, समझ में नहीं आता था।
कई बार श्यामा को लगता था कि भागीरथी जी की अपनी कोई बेटी नहीं है इसीलिए शायद वह उसे अपना नहीं पा रही है। “उनकी अपनी बेटी होती तो भी क्या वे उसके साथ यही व्यवहार करती ???”
ऐसे कई प्रश्न श्यामा को परेशान किए रहते थे। विवाह के इन 15 बरसों में अब उसका मन इस घर से ऊब चुका था। उसे भी अब लगने लगा था कि भागीरथी जी उसे कभी नहीं अपनाएंगी।
भागीरथी जी की तानाशाही अब बहुत बढ़ चुकी थी। पोता रिशु एवं पोती ऋषिका दोनों भी अब इसका विरोध करने लगे थे। वे भी पिता राघव से बार-बार कहते दादी हमारी मां को कोई सम्मान नहीं देती। दिन रात दादी हमें हमारी मां के बारे में ही भला-बुरा कहती रहती हैं। वे मां को बिल्कुल भी पसंद नहीं करती हैं। हमें यहां नहीं रहना है।
चूंकि राघव और श्यामा दोनों ही सरकारी नौकरी में थे। राघव को भी लगा कि घर की तकरार का बुरा असर श्याम की सेहत के साथ-साथ, बच्चों पर भी पड़ रहा है। अब बेहतर है कि हम दोनों का ट्रांसफर कहीं और करवा लूं। शायद दूर रहने से रिश्तो की मर्यादा बनी रहे और मां को भी यह एहसास हो कि घर के बाकी सदस्यों का सम्मान भी महत्वपूर्ण है।
अब तक वह मां की उम्र का लिहाज करते हुए चुप था। उसे लगता था कि मेरा कोई भी निर्णय मां को आहत कर सकता है। मां की अब उम्र भी हो चुकी है। कई बार बच्चों को लेकर उसने मां से बात करने का प्रयास किया। मगर मां कुछ भी समझने को तैयार ही नहीं थी।
15 वर्षों का समय कम नहीं होता। राघव को भी अब लगने लगा था कि मां को अगर श्यामा को अपनाना होता तो अब तक अपना चुकी होतीं।
अंततः उसने मां को आज अपना फैसला सुना दिया। मां मुझे लगता है कि अब श्यामा का तुमसे निबाह कठिन है। हमारी वजह से तुम बहुत दुखी रहती हो। हमने अपना ट्रांसफर कहीं और करवा लिया है। बच्चे और हम बहुत जल्द ही यहां से चले जाएंगे। उम्मीद है आप अपने घर में सुख से रह पाएंगी।
एक अंतिम बार में आपसे केवल एक प्रश्न पूछना चाहता हूं ?
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“मां मेरी पत्नी की जगह अगर आपकी बेटी होती तो……”
क्या उसके साथ भी आप ऐसा ही करती?????
आज भागीरथी जी नि:शब्द खड़ी थी। हर और मौन पसरा था। आज एक ही पल में वह सब कुछ खो चुकी थी। क्या यही वह सुख के क्षण थे??? क्या वे इसी दिन का इंतजार कर रही थी ???
शायद वे अब समझ जाएं कि आज जो कुछ हो रहा है, वो उनके अपने स्वभाव की वजह से हो रहा है ।
मनुष्य का स्वभाव ही है जो एक पल में किसी पराए को अपना बना लेता है और किसी अपने को पराया।
न जाने क्यों लोग उम्र गुजार देते हैं मगर अपने अपनों को, अपना नहीं पाते।
लोग यह क्यों भूल जाते हैं कि घर में बहु लाई जा रही है कोई सामान नहीं कि जिसे जैसा चाहे कहीं भी रख दिया। जैसा चाहे उसका उपयोग कर लिया। वह भी एक जीता जागता प्राणी है कोई निर्जीव वस्तु नहीं।
इसीलिए कहा गया है- “रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय, टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े तो गांठ पड़ जाए।”
काश भागीरथी जी ने श्याम से थोड़ा भी प्यार किया होता, तो आज यह रिश्ते इस तरह से ना टूटते।
स्वरचित
दिक्षा बागदरे
#मां मेरी पत्नी की जगह अगर आपकी बेटी होती तो …