वो कड़कड़ाती सर्दियों की एक आलसभरी सुबह थी,आलस इस सेंस में कि रजाई से हाथ बाहर निकले तो बर्फ की तरह जमने लगे और वापस रजाई के अंदर ही घुसने का मन करे,और मजबूरी ये कि पतिदेव के आफिस जाने का समय तो नियत ही होता है ना!माघ मास की ठंड में सूरज भगवान निकलना भूल सकते हैं परन्तु घड़ी तो चलना नहीं रोकती ना!
तो बस थोड़ा सा रजाई खिसका कर , ज़रा सा मुंह बाहर निकाल कर, घड़ी की ओर देखा ही था कि.. उछल कर रजाई से बाहर निकल आई नित्या
,उई मां !
मैं तो बस थोड़ी ही देर अलसाने की सोच रही थी कि वक्त इतना आगे निकल गया।
भई आज की सुबह रोज़ से थोड़ी अलग तो है ही!
वरना कहां नवीन तो रोज़ पहले से उठ कर राड हीटर बाल्टी में लगा पानी गर्म करने के लिए लगा कर तब नित्या को उठाता है ब्रश करने के लिए।
विश्वास कीजिए यदि भीषण ठंड में अपनी ( नई नवेली) पत्नी के लिए पति इतना इफर्ट कर दे तो, फिर तो वो अपने आप की कहीं की राजकुमारी..न न, महारानी ही समझेगी ना!राजकुमारी तो भई अपने पिता के घर ही होती हैं, अपने पति के महल (?) की तो रानी ही होती है।
वो भी शादी के इतने महीने बीत जाने के बाद अब सासू मां ने उसे अपने पति के साथ उनकी पोस्टिंग ( तैनाती स्थल) पर भेजा था।
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हालांकि नवीन ने साफ़ बता दिया था कि अभी आफिस के पास बस एक कमरा ( ही) है, मैं तो अकेले ही रहता था, तुम भी साथ में रह लोगी?(उनका मतलब यही था कि गृहस्थी में सुविधा जैसा अभी कुछ नहीं है)
लो भला ये भी कोई पूछने वाली बात है?
जब सीता जी, अपने पति के साथ वन में जाने को तैयार हो गई थीं तो..( भला मैं किस खेत की मूली हूं??) मैं भी भारतीय नारी ही हूं, अपने पति के साथ अवश्य जाउंगी। और उजड़े जंगल को भी स्वर्ग बनाना तो स्त्री का ही काम होता है।
और कुछ ही दिनों में उस एक कमरे को नित्या और नवीन ने मिलकर अपनी सूझबूझ से सजा लिया।
लंबे से कमरे के एक किनारे खाना बनाने की व्यवस्था कर लिया और दूसरे कोने में जमीन में ही गद्दा डाल कर सोने की,दो रजाईयां थी, तो ठंड से निपटने का भी पूरा इंतजाम था।
फिर जगह तो पति-पत्नी के दिल में एक दूसरे के लिए होनी चाहिए, उसके आगे घर में जगह या कोई और सुख सुविधा मायने नहीं रखते!
तो अभी उंगलियों पर गिनने लायक ही दिन गुज़रे थे, उन्हें साथ रहते। नित्या सुबह उठकर बहुत अच्छा अच्छा नाश्ता, बनाती, नवीन दोपहर को आकर खाना खाकर जाते, फिर शाम को आफिस से आकर खाना खाकर या तो कहीं घूमने जाते या फिर लंबी सी खुली छत पर बैठ कर बातें करते! जितना प्यार उन दोनों के बीच था, उसे किसी बड़े हिल स्टेशन पर जाकर किसी आलीशान सुइट में भी नहीं ढूंढा जा सकता था।
तुम भी ना
बात को ज्यादा घुमाओ मत,आज वैसे भी देर हो गई है। नित्या ने फटाफट ठंडे पानी से ही ब्रश करने में भलाई समझी। अब चलूं जल्दी से नाश्ते की तैयारी करूं और नवीन को भी जगा दूं।अरे जगाने के लिए अपने ठंडे ठंडे हाथ बस उनके गालों पर लगा दूंगी तुरंत उछल कर उठ जाएंगे, फिर मैं उलाहना दूंगी,आज मेरे लिए पहले से उठ कर पानी गर्म करने को क्यूं नहीं लगाया? नित्या को तो जबरदस्त शरारत सूझ रही थी।
नित्या ब्रश करके बाथरूम से निकली ही थी कि
अरे ये सूटकेस उठाए सीढ़ियां चढ़ते हुए कौन इतनी सुबह चला आ रहा है?
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ओह ये तो इनके बचपन के ( पक्के वाले) मित्र हैं, हां शादी के समय स्टेज़ पर आकर मिले तो थे।
अरे भाई साहब आप,? कैसे आना हुआ?
दोनों कमरे में गए और नवीन भी उठ गए, खुशी खुशी नित्या ने ढेर सारी खाने पीने की चीजें बनाई,, उनके मित्र ने खाने की बहुत तारीफ की । उनके मित्र उस कमरे को देख रहे थे, और नित्या और नवीन एक दूसरे को,कि इतनी सी जगह में इन्हें कहां एडजस्ट करेंगे?
खा पी कर नवीन आफिस निकल गए और वो भाई साहब, बाहर छत में कुछ देर धूप में बैठे फिर अपने काम से निकल गए।
नित्या शाम के खाने की तैयारी कर रहे थी और नवीन के मित्र काम निपटा कर लौट आए थे और बाहर छत पर बैठे थे।
तभी नवीन ऊपर सीढ़ियां चढ़ते हुए आए, उन्होंने अपने कंधे पर फोल्डिंग बेड उठाई हुई थी।
उन्होंने बताया नीचे किसी के घर से लेकर आए हैं, और छत के दूसरे छोर पर रहने वाले, दूसरे किराएदार से बात कर ली है, उनके कमरे में ही सोने की व्यवस्था कर दूंगा।
दरअसल उस कमरे में भी चार सर्विस करने वाले लड़के रहते थे।
उन्हीं के साथ ये पांचवीं बेड भी एडजस्ट होने वाली थी।
रात का खाना खाकर,और ढेर सारी तारीफ़ करके कि… भाभी तो बहुत अच्छा खाना बनाती है,तू तो बड़ा भाग्यशाली हैं,जो ऐसी पत्नी मिली,वो सामने वाले कमरे में चले गए थे।
एक गद्दा और रजाई उनको दे दिया गया था।अब नित्या और नवीन के पास बस एक गद्दा और रजाई ही बची थी,उस कड़ाके की ठंड से निपटने के लिए।
घर आए अतिथि का ( अपनी गुंजाइश के मुताबिक) दोनों ने भरपूर स्वागत किया था! अतिथि देवो भव की परंपरा टूटने नहीं दी थी।
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हां ये बात और है कि उस बची हुई सिंगल बेड की रजाई में हाथ पैर फैलाने और ( गलती से भी) बाहर निकालने या करवट लेने की गुंजाइश ज़रा कम थी नित्या और नवीन के पास
तो क्या हुआ,मन में सुकून तो था हमने किसीअतिथि के आतिथ्य में कभी नहीं आने दी थी।
अतिथि तो वही होता है ना हमें जिसके आने की तिथि ना ज्ञात हो, और जिसे हमारी परिस्थिति ( सिचुएशन) का अंदाजा ना हो। मगर सत्कार ऐसा होना चाहिए कि दोनों के मन में कोई ग्लानि ना रह जाए!और हां सत्कार और सम्मान का रुपए पैसे से कोई लेना देना नहीं होता!
क्योंकि ये तो इससे भी ऊपर की चीज़ है!
और आत्मसंतुष्टि?
उसे तो भाई महसूस करोगे तभी जानोगे,हम इत्ते छोटे से ब्लाग की कुछ लाइनों में नहीं समेट सकेंगे
जीवन में कभी भी सब कुछ भौतिक रुप से तथाकथित, परफेक्ट ( संपूर्ण) नहीं हो सकता, हमें अपने उद्दांत विचारों, हृदय और भावनाओं से उसे सर्वश्रेष्ठ बनाना पड़ता है। परिस्थितियां चाहे जैसी भी हों, हमारे प्रयास सदैव हमारी ओर से सर्वश्रेष्ठ होने चाहिए!
और किसी भी परिस्थिति में किसी के काम आने के लिए जगह घर में नहीं दिल में होनी चाहिए!!
# यही जीवन का सच है… और जिसने इसे समझ लिया, उसे जीवन ना तो बोझ लगेगा ना उबाऊ… क्योंकि वो सदैव हर कार्य के लिए अपना सौ प्रतिशत देगा!!
समझे कि नहीं!
पूर्णिमा सोनी
स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित
# ये जीवन का सच है कहानी प्रतियोगिता
शीर्षक – मेहमान
तो क्या कहते हैं भाई!,अब अभी ठंड इतनी थोड़ी ना है कि लाइक कमेंट और शेयर ना कर सको