आशा का दीपक

शाम का समय था एक मंदिर के अंदर 4 दिए जल रहे थे।  मंदिर बिल्कुल ही सुनसान हो गया था ऐसे में चारों दीपक आपस में बात करना शुरू किया।

पहले दीपक ने उदास होकर कहा कि “मैं शांति हूं” आज के जमाने में कोई भी मुझे रखना नहीं चाहता जहां देखो दंगे फसाद लड़ाई झगड़े हो रहे हैं इसलिए मुझ दीपक को बुझ  जाने में ही भलाई है। इतना कहने के बाद वह दीपक बुझ गया।

उसके बाद दूसरे दीपक ने कहा “मैं विश्वास हूं”  आजकल किसी पर कोई भी विश्वास नहीं करता है सब एक-दूसरे पर संदेह करते हैं ना पति को पत्नी में विश्वास रह गया है ना पत्नी को पति में यहां तक कि भाई भाई में और बाप बेटे में भी विश्वास नाम की कोई वस्तु नहीं रह गई है इसलिए मुझे भी बुझ जाना चाहिए क्योंकि ऐसे में जलने का कोई फायदा नहीं जब मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं हो तो।  इतना कहने के बाद वह दीपक भी बुझ गया।



तीसरा  दीपक ने भी उदासी भरी आवाज में बोला ” मैं ज्ञान हूं”  मुझे भी लगता है कि बुझ जाना चाहिए आज के जमाने में कोई भी ज्ञान नहीं लेना चाहता है बस जल्दी से जल्दी चाहते हैं कि पैसा कमा लें लेकिन यह भूल जाते हैं कि बिना ज्ञान के पैसा ज्यादा नहीं कमा सकते हैं मैं भी अस्तित्व विहीन हो गया हूं । ऐसा कह के वह दीपक भी बुझ गया।

थोड़ी देर के बाद मंदिर का पुजारी मंदिर के अंदर आया और उसने देखा कि 3 दीपक बुझ गए हैं और चौथा दीपक अभी भी चल रहा है।  पुजारी अभी सोच ही रहा था तब तक चौथा दीपक बोला आपको निराश होने की जरूरत नहीं है “मैं आशा हूं” यानि की : ” मैं आशा का दीपक हूं”  मैं नहीं बुझने वाला हूं क्योंकि अगर मैं ही बुझ गया तो यह दुनिया कब की खत्म हो जाएगी क्योंकि दुनिया आशा और और उम्मीद पर ही टिकी हुई है और आपसे आग्रह है कि आप इन तीनों बुझे हुए दीपक को फिर से जला दीजिए।

उसके बाद पुजारी ने   “आशा कि दीपक” की बात मानकर तीनों दीपक  को जला दिया और वह फिर से जलने लगे दोस्तों इस कहानी का नैतिक शिक्षा यही है कि हमें अपने जीवन में आशा और उम्मीद को कभी भी नहीं छोड़नी चाहिए क्योंकि एक यही शब्द है जो हमारे जीवन के मायने बदल सकते हैं बस आपको लगातार प्रयास करने चाहिए छोटी-छोटी असफलताओं से अपने आप को कमजोर ना होने दें बल्कि लगातार प्रयास करें सफलता आपका एक दिन कदम चूमेगी।

 

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