“भैया ये घर मत बेचो, अंकल यहीं रहते थे, वो अभी भी यहीं हैं। जब तक मैं हूॅं, घर की देख रेख करुॅंगा। आप इसके लिए मुझे कोई मेहनताना मत देना, बस जब तक मैं यहाॅं हूॅं, अंकल की यादों को मत बेचो।” उमंग बार बार रोते हुए विजय के दोनों बेटों अभिनव और अभिषेक से कह रहा था।
अभिनव और अभिषेक दोनों भाई दक्षिण भारत में एक बड़ी कंपनी में बड़े बड़े पदों पर आसीन थे, इस कारण उनकी जिम्मेदारी भी अधिक थी लेकिन माता पिता के लिए भी अपनी जिम्मेदारी में उन्होंने कोई कमी नहीं आने दी थी। जब तक उनकी माॅं जीवित थी, दोनों थोड़े निश्चिंत से रहते थे और अचानक उनके इहलोक वासी हो जाने पर पिता को लेकर चिंतित हो उठे थे।
माॅं के क्रियाकर्म के बाद पिता को अकेले छोड़ना उन्हें उचित नहीं लग रहा था तो उन्होंने उनके सामने साथ चलने का प्रस्ताव रखा था, लेकिन तब भी विजय के कुछ कहने से पहले ही उनका गृह सहायक उमंग सुबक उठा था और विजय को यहीं रहने देने का आग्रह करने लगा।
विजय भी यहीं रहने में सुकून का अनुभव करते थे इसलिए उन्होंने दोनों भाइयों को मना कर वापस भेज दिया था और अब जब पांच साल बाद विजय नहीं रहे और दोनों भाई यह घर बेच कर जाना चाहते थे तो उमंग फिर से सुबक उठा था।
“आखिर ऐसी क्या बात है, मैं तो जब से आई हूॅं, ऐसा लगा है जैसे कि पापाजी आप दोनों से ज्यादा उमंग भैया को पसंद करते थे। अगर ठहाके लगाते भी थे तो उनके साथ ही।” छोटी बहू कृतिका कहती है।
हाॅं, मम्मी भी यही कहा करती थी। जब उमंग हमारे यहां काम करने आया था तो उसकी उम्र भी सोलह साल की ही थी, उसकी और मेरी उम्र लगभग एक ही थी। उमंग हमेशा ही दिमाग का हल्का रहा है। एक दिन पापा अपने ऑफिस जाने के लिए निकले ही थे कि उन्होंने उमंग को किसी से कहते हुए सुना, “दो सौ ही दे देना, लेकिन किसी काम पर रख लो।
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उस समय तो नहीं, लेकिन शाम में ऑफिस से आने के बाद पापा ने उसे बुलाया और घर के कामों के लिए पूछा तो वह खुशी खुशी तैयार हो गया। इसमें समझदारी तो तब भी बिल्कुल नही थी। ढंग की बात तो यदा कदा ही करता था, बातें ऐसी करता कि झुंझलाहट होने लगती थी। अपने नाम के अनुरूप ही मौज में रहता था।
उसका चीख कर बोलना, काम कहने पर बात काट देना, अपनी इच्छा से काम करना, कभी आना कभी नहीं आना, इन सब वजहों से हमें और मम्मी को यह बहुत कम पसंद आता है। लेकिन पापा जो हमसे क्या मम्मी से भी काम लायक ही बातें करते थे, वो इसके साथ दुनिया भर की बातें करते और दिन भर चुप रहने वाले हमारे पापा, उमंग की बातों पर ठहाका लगाया करते थे।
हमारी तो कभी पापा के शरीर को छूने की हिम्मत नहीं होती थी। मुझे तो याद भी नहीं की मैं पापा की गोद में बैठा भी हूॅं या नहीं। हाॅं अभिषेक जरूर जबरदस्ती पापा के गले लग जाता था लेकिन उमंग पापा का हाथ पकड़ कर खींचता हुआ लाड़ जताया करता था। प्रारंभ में हमें लगा पापा अब उसे डाॅंटेंगे पर पापा का चेहरा खुशी से खिल उठता था। मम्मी हमेशा कहा करती थी, “उमंग को तनख्वाह वो काम कराने के नहीं देती हैं, बल्कि पापा उसके साथ खुश रहते हैं, उसकी तनख्वाह देती है।”
रिटायरमेंट के बाद जब पापा अपने गृह नगर में मकान खरीद कर रहने आ गए और उमंग उनके साथ नहीं आ सका तब कई दिनों बाद हमें पता चला कि उस दिन के बाद उमंग ने खाना पीना छोड़ दिया और उसका स्वास्थ्य काफी खराब हो गया है और यहाॅं पापा का चेहरा भी हमेशा बुझा बुझा रहने लगा था, फिर मम्मी ने उमंग को यहीं बुलवा लिया और वो क्षण था
जब दोनों बिछड़े पिता पुत्र की तरह एक दूसरे को देख रो पड़े थे। माॅं कहती थी शायद पिछले जन्म का कोई रिश्ता दोनों को एक दूसरे की ओर खींचता है, तभी वह उमंग जो कहीं भी एक से दो महीने ही काम करता और छोड़ देता, उसी उमंग को अंकल के बिना एक पल भी चैन नहीं आता था। दोनों के मध्य कोई अदृश्य अटूट बंधन था, जिसने दोनों को अभी भी बाॅंधे रखा है, कहकर अभिनव चुप हो गया।
“भैया, भैया, उमंग…उमंग।” सुबह की सूरज के साथ अभिषेक बड़े भाई के कमरे का दरवाजा पीटते हुए घबराए स्वर में बोल रहा था।
“क्या हुआ अभि”, अभिनव निकलते हुए पूछता है।
उमंग, उमंग का शरीर निस्तेज है भैया, वो शायद…
हम घर के बंधन में बंधे सोचते रहे और उमंग भावनाओं में बंधा यहां के सभी बंधन को तोड़ गया। अभिनव सर्द आवाज में उमंग के सर्द हो गए शरीर को छूता हुआ कहता है।
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प्रेम के धागे का एक सिरा पकड़े हुए विजय चला गया। दूसरे सिरे को उमंग ने इतनी मजबूती से थामा था कि उस सिरे को बिना छोड़े वो भी उसी लोक में पहुॅंच गया।
प्रकृति भी दोनों के प्रेममयी बंधन को तोड़ नहीं सकी। अपने बंधन को अटूट रखने के लिए उमंग भी प्राण त्याग अपने अंकल के पास उड़ चला। निःस्वार्थ प्रेम का बंधन ही एकमात्र ऐसा बंधन है, जो न कभी छूटता है और न कभी टूटता है।
आरती झा आद्या
दिल्ली