विशाल दालान सूना पड़ा खिलखिलाहटों की बाट जोह रहा था आम्र वृक्षों के नवोदित बौर से सुवासित इस दालान को उन दिनों की मधुर स्मृतियां गुदगुदा रहीं थीं जब फागुन आते ही यह दालान गुंजासुमान हो जाता था नीले पीले लाल हरे बैंगनी ना जाने कितने ही रंगो से किनारे बनवाए गए सीमेंट के टैंक लबाबाब भर दिए जाते थे
जगह जगह बड़ी बड़ी टेबल सजा कर अलबेले गुलाल की थालियां आकर्षक अंदाज में हर आने वाले को आमंत्रित करती थीं।शुद्ध घर के बनाए मावे के मिष्ठान्न गुझिया पेड़े बर्फी भांग की महक फागुन की मस्ती को द्विगुणित कर दिया करती थी उस पर लंबी वाली रंग भरी पिचकारियां अरे जा रे हट नटखट के तराने कानों में घोल हाथों में उठाने को विवश कर देती थीं।
जब से घर के सिरमौर सघन आम्र वृक्ष की शीतल छांव सदृश्य बाबूजी जानकी नाथ जी काल कलवित हुए पूरा फागुन ही अदृश्य होने लगा था अम्मा के निधन के पश्चात तो यहां फागुन फिर कभी आया ही नहीं।
ऐसा नहीं था कि परिवार में कोई नहीं था ।भरपूर परिवार जानकीनाथ जी का था समृद्ध किसी बात की कोई कमी नहीं।चार बेटे दो बेटियां .. सभी की शादी ब्याह हो चुके दोनों बेटियां तो शादी हो बाहर चली गई थी लेकिन चारो बेटा बहू नाती पोते सब यहीं इसी दालान के इर्द गिर्द रहते हैं।लेकिन बंटवारे हो जाने से सबके अलग अलग हिस्से हैं और अलग अलग ही किस्से हैं।दिलों के बीच किसी ने नहीं खींची थी दीवार लेकिन यही अनदेखी दीवार कब कैसे बनती चली गई पता ही नही चला …
कारण कुछ भी नहीं था और बहुत कुछ भी था।संपत्ति ही विवादो को जन्म देती है और पालपोस कर बढ़ाती रहती है ।सबके पास सब कुछ था पर दूसरे के पास ज्यादा है का भ्रम जाल उन्हें उलझाता था।बस ये दालान अछूता बचा रह गया है जो किसी के हिस्से में नहीं आया इसीलिए कोई इस पर ध्यान भी नही देता था और शायद आइडिया यह अभी भी उसी पुराने किस्से में उलझा हुआ याद करता रहता था ।
दिद्दा क्या इस बार भी सब लोग अलग अलग होलिका दहन करेंगे मासूम शानू अपने बड़े पापा की बेटी सुजाता से फोन पर चुपके से पूछ रहा था जो होली की छुट्टी में हॉस्टल से घर आई थी।
अरे शानू तुम ये बताओ चाची ने मेवे वाली गुझिया बनाई हैं क्या मां उतनी अच्छी नहीं बना पाती चाची के हाथ की गुझिया में क्या स्वाद है सुजाता बड़ी ललक से कह उठी।
दिद्दा आप खाओगी क्या मैं चुपके से लाऊं आपके लिए शानू उत्साह में आ गया।
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नहीं भैया पापा या चाचा ने देख लिया तो पिटाई हो जायेगी तेरी भी और मेरी भी कातर स्वर था सुजाता का।
कितना डरती हो आप सूजी दीदी मैं लड़का हूं मुझे डर नहीं लगता मैं आपके लिए कुछ भी कर सकता हूं ये तो सिर्फ गुझिया लाने की बात है …बड़ी दीदी का दुखी स्वर आहत कर गया था छोटे भाई को वह अपनी प्यारी दीदी की इस छोटी सी इच्छा को पूरी करने की ठान चुका था।
शानू तुझे मेरी कसम तू इधर बिलकुल नहीं आना मुझे नही खानी गुझिया जल्दी से अपने स्वर को सामान्य बनाते हुए सुजाता ने खुद को संभालते हुए नन्हे भाई को संभालने की कोशिश की थीऔर फोन काट दिया था
तीनों बड़े भाईयो के बेटियां ही थीं जबकि छोटे अशोक नाथ और अन्नू के दो बेटे थे शानू छोटा बेटा था।
जानकी नाथ जी के बेटो बहुओं में भले ही गले तक मनमुटाव था एक दूसरे की शकल नही देखना चाहते थे लेकिन उनके बच्चों में एक अलग ही लगाव पनप रहा था।
शानू चुपके से किचन में गया मां ने एयर टाइट डब्बों में सारी गुझिया भर के रख दी थी।एक डिब्बा खोला और नन्हें हाथों में जितनी भी गुझिया आईं जल्दी से भर लिया तभी किसी के कदमों की आहट सुन झट से फ्रिज के पीछे छुप गया तभी उसकी मां आ गईं कौन है कौन है रसोई में बिल्ली है क्या और ये गुझिया का डिब्बा कैसे खुला पड़ा है ….हड़बड़ा गया छोटा शानू डर के मारे दौड़ पड़ा तभी पैर उलझ गए फ्रिज के स्टैंड में और लहरा के गिर पड़ा लेकिन गिरते समय भी मुट्ठियां जोरों से भींच के रखी थीं उसने।
धड़ाम से आवाज आई मां दौड़ पड़ी अरे मेरा लाल शानू यहां क्या कर रहा है बेटा ये हाथों में क्या है खोल मुठ्ठी
नहीं खोलूंगा मां तुम मारोगी कहता शानू पैर की ताजी चोट भूल फिर उठने लग गया था लेकिन उसकी एड़ी स्टैंड में फंस कर चोटिल हो गई थी खून बह रहा था मांस फट कर झूलने लग गया था वह फिर से फर्श पर ढह गया गिरने से बचने के लिए हाथ फर्श पर टेके तो मुठ्ठी खुल गई और गुजिया का चूरा निकल पड़ा…!
मां अन्नू अचंभित रह गई तूने गुझिया की चोरी की शानू कहते ही अगले ही पल में सारा माजरा समझ गई ।
दीदी के लिए निश्छल उमड़ता प्रेम बड़ों के आपसी मनमुटाव की जकड़न में फड़फड़ा रहा था।अपने ऐड़ी की भीषण चोट भूल कर दीदी के पास गुझिया ले जाने की अदम्य इच्छा महसूस करती अन्नू का दिल मासूम बेटे के अंतर्द्वंद्व की अग्नि की आंच से सुलग उठा था।
उसने घर के बाहर आकर बड़े भाईसाब के घर के सामने खड़े होकर जोर से आवाज लगाई सुजाता बेटी सुजाता बेटी यहां आना जरा …!
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अन्नू की जोर से लगाई आवाज में कुछ ऐसा था जिससे सुजाता ही नहीं पूरा परिवार बाहर आ गया।एक लंबे अरसे के बाद सुनाई दे रही ये आवाज मानो पूरे परिवार के लिए सेतु बन गई थी।होली का त्योहार सामने था सभी घर पर ही थे अपने अपने घर में अपनी तरह से होली की तैयारी करते हुए सभी के दिलो में बाबूजी के जमाने की होली का उल्लास हिलोरे मार रहा था जिसे सब एक दूसरे से छुपाते हुए खुश दिखने का अभिनय कर रहे थे।इस आवाज ने अचानक सबको एक दूसरे के सामने ला दिया।
क्या बात है चाची क्या हो गया आप ठीक तो हैं ना पढ़ी लिखी समझदार बेटी सुजाता झपट कर अपनी दुलारी चाची के पास यूं आ गई मानो पास आने का कोई कारण ही ढूंढ रही थी।
सुजाता बेटा देख तेरा छोटा भाई गिर गया उसे चोट लग गई है तुझे बुला रहा है आजा बेटा जल्दी अन्नू का द्रवित स्वर सबको आकुल कर गया था । अन्नू की निगाहें अपनी बड़ी जेठानी सुजाता की मां की ओर सुजाता को अपने घर आने देने की अनुमति मांग रहीं थीं।
सुजाता चल बेटा मैं भी आ रही हूं तेरे साथ क्या हो गया छोटी मेरे शानू को बड़ी मां का दिल भर आया ।
झपटते हुए वे दोनों अन्नू के करीब आईं तो शेष पूरा परिवार भी स्वत: ही पीछे पीछे आ गया था।
शानू ए शानू देख तेरी सूजी दिद्दा आई है अन्नू ने बेसुध हो चुके अपने पुत्र को गोद में लेते हुए आकुल स्वर में पुकारा तो जैसे शानू चैतन्य हो गया था।
सूजी दीदी लीजिए मैं आपके लिए मां के हाथ की बनी गुझिया ले आया…. लेकिन दीदी ये तो टूट गईं है दीदी की ओर अपने फैले हुए हाथों में गुझिया का बुरा हाल देख रूआंसा हो गया था छोटा बच्चा।
मेरा भैया मेरा प्यारा भैया मैने मना किया था ना तुझे देख कितनी चोट लग गई है तुझे पूरी ऐड़ी घायल हो गई है सुजाता शानू की चोट देख रो उठी थी।
दीदी आप रोना मत मैं दूसरी अच्छी वाली गुझिया आपके लिए ले आऊंगा ।
ना भैया मैं यही वाली खा लूंगी कितनी स्वादिष्ट है गुझिया है छोटू उसके नन्हे हाथों से गुझिया का चूरा खाते हुए सुजाता बोल उठी।
चल तुझे डॉक्टर के पास ले जाना है उसे उठाते हुए सुजाता ने जल्दी मचाई ।
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पापा जल्दी गाड़ी निकलवाइये बड़े चाचा आप जल्दी से डॉक्टर को फोन कर दीजिए छोटी चाची आप घबराइए नहीं शानू को कुछ नही होगा ।
सारा परिवार इस तरह एक हो गया था मानो कभी अलग हुआ ही नहीं था।सब एक दूसरे को साहस देते सहारा देते जुट आए थे।
बड़े पापा गाड़ी निकाल रहे थे बड़े चाचा डॉक्टर को फोन लगा रहे थे मांझले चाचा शानू को उठाने में मदद कर रहे थे।बड़ी मां अन्नू को दिलासा दे रही थी बड़ी चाची सुजाता के साथ खड़ी थीं और मंझली चाची शानू के पैर पर फर्स्ट एड कर रही थीं।
सबकी गाड़ियां निकल आई थीं सभी डॉक्टर के यहां पहुंच गए थे।तुरंत डॉक्टर ने शानू को एडमिट कर लिया था टांके लग रहे थे चोट पर।
सारे बिखरे उधड़े परिवार को भी मानो जोड़ कर टांका ही जा रहा था।
डॉक्टर के केबिन के बाहर खड़े सारे भाई भौजाई एक दूसरे के पास खड़े थे। अन्नू के सिसकने की आवाज से बड़ी भाभी उसके पास आ गईं अरे छोटी तुम चिंता मत करो हमारे लल्ला शानू को कुछ नही होगा।
नहीं दीदी मैं ये सोच कर दुखी हो रही हूं यहां से घर जाते ही सब फिर अलग अलग हो जायेंगे बच्चे फिर से अलग हो जायेंगे शानू दीदी को बहुत याद करता है आप कुछ दिन सुजाता को शानू के साथ रहने की अनुमति दे दीजिए ।
नहीं छोटी सिर्फ सुजाता ही क्यों हम सब अब साथ ही रहेंगे#बेरंग हो चुके रिश्तों में रंग भरना है अब..!! सही कहा तुमने हम सब निरर्थक मनमुटाव से अपने मासूम बच्चों के अबोध मन की निश्छलता छीन रहे हैं उन्हें क्या सीखा रहे है आपसी रंजिश आपसी ईर्ष्या !! बड़े भैया कैलाशनाथ ने जोर से कहा तो सभी का मुंह प्रसन्नता से खिल उठा ।
हां भैया आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं मंझले त्रिलोकीनाथ ने आगे आकर कहा।
तो दोनो छोटे भाई भी संजीदा हो उठे।
तो इसका मतलब इस बार हम सब होली साथ मनाएंगे मां सुजाता सबकी बात सुनकर शानू के साथ बोल पड़ी।
हां हां बच्चों इस बार फिर वही रंग गुलाल साथ लगाएंगे पिचकारियां भरी जाएंगी क्यों भाभी तैयार हैं छोटे चाचा अशोक ने उत्साह से सबकी और देखते हुए कहा तो मंझली भाभी चहक उठीं ।
जा रे हट नटखट …. भैया हमें कमजोर ना समझिएगा पूरी तैयारी रहेगी हमारी भी क्यों छोटी मंझली भाभी चहक उठीं थीं।
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भैया आप अनुमति दें तो दालान की सफाई कल से ही शुरू करवा देता हूं बहुत दिनों से उधर कोई गया ही नहीं मंझले त्रिलोकी ने उत्साह से कहा।
हां भैया आप सही कह रहे हैं दिनों नही तीन सालों से उधर कोई नहीं गया बाबूजी क्या गए हमने दालान की तरफ ध्यान ही नही दिया मैं मिस्त्री लगवा कर वहां की टूटी पड़ी सीमेंट टंकियों को ठीक करवा देता हूं टेसू के फूलों का रंग पकवाने की व्यवस्था करवाता हूं जैसा बाबूजी करवाते थे …..बड़े चाचा मगन हो बोलते जा रहे थे…
आज फिर होली है ..!!
इस बार फागुन झूम के आया है बाबूजी के दालान में चमचमाती टंकियों में ताजे टेसू का पक्का रंग खिलखिला रहा है पिचकारियां तैयार हैं शुद्ध घर के मावे से बनी गुझिया शकरपारे बर्फी लड्डू फागुन को मदमस्त कर रहे हैं शानू कुर्सी पर बैठे बैठे ही लंबी पिचकारी से आने जाने वाले पर रंग डाल रहा है ।
सूजी दीदी कितना अच्छा लग रहा है ना सबके साथ होली मनाने में।
हां शानू बहुत मीठा लग रहा है बिलकुल चाची के हाथो की बनी इन गुझियों जैसा सुजाता गुझिया से भरी थाली से गुझिया उठाते हुए चहक रही थी और मंझली चाची शानू के हाथ से पिचकारी लेकर भांग का छोटे चाचा की तरफ बढ़ गईं थीं।
आज तो पापा की खैर नहीं हैं शानू हंस रहा था ।
बड़े भाई भाभी सबकी आवभगत में मगन थे सभी छोटे भाई अबीर लेकर बड़े भैया और भाभी के पैरों पर लगा आशीर्वाद ले रहे थे।
आज फागुन फिर से उस सूने पड़े दालान में सराबोर बरस रहा था …#बेरंग हो चुके रिश्तों में नए रंग चटक रहे थे..बाबूजी भी मानो अम्मा के साथ मस्तक पर अबीर लगाए चहक रहे थे आशीर्वाद दे रहे थे।
लतिका श्रीवास्तव