वो लम्हें जो याद आती रहेंगी: – मुकेश कुमार (अनजान लेखक)

हर किसी के मन में कुछ लम्हें खाश जगह बना कर रखती हैं फिर चाहे वह अच्छी हो या बुरी।

ख़ुशी वाली हो या तकलीफ से भरी।

ऐसी बातें अक्सर तब याद आती है जब आप कुछ उसी तरह की चीज़ें दोबारा होते हुए देखते हैं।

मैं बताता चलूँ की ये कोई तकलीफ वाली बात की जिक्र नहीं हो रही है और न ही कोई खुशिओं भरी यादों की।

बात है जिंदगी की चंद ऐसे पहलुओं की जो अब नहीं आती।

न ही अब बचपन वाला इतवार आता है और ना ही गर्मिओं की छुटियाँ आती हैं।

वो बचपन का इतवार जो अक्सर रंगोली या घर में बजने वाले भजन (टेप में भजन बजाया जाता था सुबह) से शुरू होता था और पकौड़ों पर शाम ख़त्म होती थी। कितना अलग होता था वो इतवार जब हम अख़बार में रंगीन पन्नों वाली पत्रिका पढ़ते थे और उसी को अपने किताबों के ऊपर लगा लेते थे (बूक कवर), कितना अलग होता था वो दोपहर जब खाना खा कर भाई बहनो के साथ चोर सिपाही या लूडो खेलते थे।


हद तो तब हो जाती थी जब अचानक हम सारे लोग लड़ पड़ते थे और अलग अलग ग्रुप बन जाता था।

ताई या चाची हमें लड़ते हुए देखती तो अपने बेटे का कान मरोड़ कर बोलती “अरे क्या हो जाता है तुमलोग को? अभी थोड़ी देर पहले राम-लखन वाली जोड़ी बना कर खेल रहे थे”

“ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहे थे – बड़े भैया चोर बन ही नहीं सकते”

“वो राजा बनेंगे, उसके बाद दुसरे भैया मंत्री”

“हम दोनों छोटे हैं तो एक बार तुम सिपाही बनना, मैं चोर बनुँगा, फिर तुम चोर बनना और मैं सिपाही बनुँगा”

“बड़े भैया बोल रहे थे – नहीं, नहीं जो सबसे छोटा है वो राजा बनेगा, उसी तरह मैं बड़ा हूँ तो मैं चोर बनुँगा”

“उससे पहले सब बोल रहे थे, छोटे भाई की गोटी नहीं काटेंगे, वो छोटा है इसलिए लूडो के पहले दानी में उसी को जीताएँगे”

अब क्या हो गया? लूडो तो खेल ही ऐसी है, गोटी नहीं कटेगी तो खेल का मज़ा कैसे लोगे?

गोटी क्या कट गई, राम-लखन से सीधे राक्षस बन बैठे, ए क्या तरीक़ा है बड़े भैया से बात करने का?

चाची, ताई या माँ से काम मरोड़ा जाने के बाद हमलोग उठ कर कमरे में चल जाते, पिताजी भी समझा कर शांत कराते।

एक बार तो ऐसा लगता मानो अब हम दोबारा कभी बात भी नहीं करेंगे।

फिर आती थी शाम जब हम फिर से एक साथ बैठ कर ब्लैक एंड वाइट टेलीविज़न में हिंदी फिल्म का मजा उठाते।

फ़िल्म में किसी की शादी के बाद दो फूल को आपस में सटाते हुए दिखाया जाता या फिर दो कबूतर को चोंच मिलाते दिखाया जाता तब दादाजी हम सब का ध्यान हटा कर पुछते “अरे उस दिन मेरे कमरे से पेपर काट कर कौन ले गया था?”

“पढ़ना बाक़ी रह गया था, अगली बार से ऐसा मत करना”

थोड़ी देर बाद फिर दादी बोल पड़ती “कोई बात नहीं, अब फ़िल्म देखने दिजिए, पेपर वाली बात ख़त्म हो गई”


बहुत दिनों तक हमलोग सोचते रहे आख़िर दादाजी फ़िल्म देखते-देखते पेपर की बात क्यों बीच में घुसा देते हैं?

अब हमलोग भी वैसा ही कुछ करते हैं, या तो कोई खेल का चैनल लगा देते हैं या फिर धड़ा-धड़ चैनल बदलने लगते हैं।

और हाँ गर्मी की छुट्टियों की बात तो रह ही गयी, आप खुद याद किजीए कितना अलग होता था वो छुट्टी, दिन भर धमा-चौकड़ी।

कभी भी चाची या ताई के कमरे में जाने के लिए कोई झिझक नहीं होती थी।

टेबल पर रखे डब्बे से बिस्कुट निकाल कर गपा-गप खा जाते थे।

इतवार आज भी आता है, घर में बच्चे आज भी हैं, लेकिन अब इतवार को कोई सुबह-सुबह टीवी चला दे तो कोहराम मच जाता है।

चाची,ताई के लड़के और मैंने भी कमरों में अलग-अलग दरवाज़े लगा लिए हैं।

अंदर कोई नहीं जा सकता कोई बात करनी हो तो मोबाइल से बात होती है।चाची, ताई और माँ का कमरा निचे है, बाक़ी के चार मंज़िल हमने आपस में बाँट लिए हैं ।

चाची, ताई और माँ में लगभग रोज़ कहा सुनी हो जाती है लेकिन फिर भी वो सब एक साथ टहलने निकलती हैं।

हम सभी भाई, उनकी पत्नी, उनके बच्चे भी एक साथ बात करते हैं – सुबह उठ कर गुड मॉरनिंग और रात गुड नाइट लिखते हैं, वाट्सएप पर बार-बार देखते हैं “हमारा मैसेज किसने किसने पढ़ा और किसने जवाब दिया”

आज भी इतवार है, घर भी वही है, लोग भी वही हैं लेकिन इतवार अब पहले जैसा नहीं है।

मुकेश कुमार (अनजान लेखक)

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