किरायेदार – गोविन्द गुप्ता

एक मकान अपना हो यह सपना सभी का होता है यही सपना पाले नरेश और मीना दिल्ली के एक किराये के छोटे से अपार्टमेंट में रहने आये ,

नरेश एक कम्पनी में मैनेजर था और मीना स्कूल टीचर,

दोनो की जिंदगी मस्ती से कट रही थी,

सुवह निकल जाना शाम को आना और बाजार में जाकर खरीदारी करना और मनपसंद खाना कभी घर तो कभी ऑर्डर से मंगा लेना,

सोसाइटी में धीरे धीरे सबसे जानपहचान होने लगी ,

क्योकि मीना बहुत व्यवहार कुशल गृहणी भी थी,

हर त्योहार को सभी मिलजुलकर मनाते थे,

तथा सुख दुख में साथ रहते थे,

मीना गर्भ से हो गई तो छह माह की छुट्टी मिल गई,

तो सभी और घनिष्ठ हो गये,

कमला ताई व राधिका चाची,

बहुत खयाल रखती थी मीना का उनके बेटे बहु ऑफिस चले जाते थे तो वह अकेली रह जाती थी इसलिये मीना के घर आ जाती थी,

मीना भी खुश रहती थी,


डिलीवरी हुई तो लड़के का जन्म हुआ,

सभी खुश थे,

धीरे धीरे जिंदगी आगे बढ़ने लगी शौर्य 5 वर्ष का हो गया यही नाम रख्खा था मीना ने बेटे का,

मीना ने इन छह माह में अपने इस घर को खूब सजाया था ,

घर का एक एक कोना उसकी महक को पहचानता था,

अचानक आये एक पत्र ने उदास कर दिया मीना को,

पत्र में लिखा था आप लोगो को पंद्रह दिन में यह मकान खाली करना है,

आप तब तक तलाश कर ले,

आंसू आ गये मीना के दीवालों को सहलाते हुये उनसे बाते करने लगी,

पंद्रह दिन बीत गये तो पूरी कालोनी के लोग अपने अपने मकान खाली कर गये,

पर मीना जाते जाते अपने उस मकान को देखकर रो रही थी ,

जैसे ही सामान से लदी गाड़ी आगे बढ़ी यादे भी वहीं छूट गई सब कुछ बिखर गया,

बहुत दिनों बाद बाजार में चाची मिली तो कहा बेटा हम सब की यही नियति है मिलना बिछुड़ना खुद का नही सम्बन्धो का होता है,

आखिर हम किरायेदार है,,,

 

लेखक

गोविन्द गुप्ता

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