पछतावा- संगीता अग्रवाल: Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : बहुत दिनों बाद मिले थे वो दोनो,”कितनी पक्की दोस्ती हुआ करती थी कभी हमारी और आज देखो!अचानक मिल गए..” रंजन ने निशांत को गले लगाते कहा।

कितना बदल गया है तू?पहचान ही नहीं आ रहा था,तबियत ठीक नहीं क्या?सब ठीक??

हम्मम.. बुझे स्वर में निशांत बोला,चल रही है जिंदगी…।

रंजन को अजीब सा लगा,उसने तुरंत पूछा,अंकल आंटी ठीक हैं?

पापा तो पिछले साल ही चले गए हमें छोड़कर,मम्मी  तो उनसे पहले ही चली गई थीं…

ओह तभी…और छोटा भाई सुनील ..वो तो वहीं रहता होगा अभी,उसका परिवार…सब??

उसी का किया धरा है सब ..निशांत हौले से बड़बड़ाया।

क्या?क्या किया उसने?रंजन ने सुन लिया था शायद।

गलती उसकी भी नहीं,शायद मेरी ही है…निशांत अपनी रो में बोलता गया,मुझे उसके साथ ऐसा नहीं करना चाहिए था।

कुछ बता भी,क्या पहेली सी बुझा रहा है?चल!किसी चाय की शॉप पर बैठते हैं,चाय पीते हुए बताना मुझे…तू बहुत परेशान लग   रहा है।

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निशांत ने जो बताया रंजन को ,वो सुनता गया और आश्चर्य से उसकी आंखें फैलती गई।

क्या तुम्हारे सगे  छोटे भाई ने ऐसा किया?तुम पर केस कर दिया?रंजन भौंचक्का था।

दरअसल,वो हम सब बहन भाइयों में आर्थिक रुपए कमजोर रहा शुरू से,हमारी सरकारी नौकरियां रहीं और उसकी एक दुकान,वो अम्मा पिताजी का करता रहा इस उम्मीद में कि बाद में सारी संपत्ति का हकदार वो बनेगा।

पर उनकी डेथ के बाद,बड़े भैया को क्या सूझी जाने,उससे सारा हिसाब मांगने लगे।

समय समय पर उसने,अम्मा के साइन लेकर लाखों रुपए उनके अकाउंट से निकाले थे,बस उस सबका हिसाब मांग बैठे।

फिर?रंजन उत्सुकता से बोला।

सुनील चिढ़ गया,उसका हिसाब देना तो दूर,उसने हमारा पुश्तैनी मकान भी खुद अकेले  उस का ही है,ये कहना शुरू कर दिया।

तो लेने देते उसे मकान…तुम सब पर तो अपनी कितनी प्रॉपर्टी है,आखिर है तो वो तुम्हरा भाई ही और फिर उसने ही अंकल आंटी का किया आखिरी समय में,जैसा तुम कह रहे हो,भले ही किसी लालच से किया हो पर किया तो सही।

ठीक कह रहे हो तुम,मुझे भी कोई आपत्ति न थी पर बड़े भाईसाहब पर उसने झूठे आरोप लगाए कि उन्होंने उससे मारपीट की तो  उन्होंने भी उसपर संपत्ति के झूठे कागज़ बनाने का आरोप लगाया।

बात बिगड़ती चली गई और कोर्ट तक पहुंच गई,मेरी गलती ये हुई कि मैंने बड़े भाई साहब के उकसाने पर उस बात की गवाही दे दी।शायद कुछ गुस्सा  मुझे भी था  सारी पेरेंटल संपत्ति  उसकी होते देखकर।

तो अब की चल रहा है?रंजन बोला।

तारीख पर तारीख…चल रही हैं,वकील आता है अपना पैसा ले जाता है…उससे भी और हमसे भी…एक ही घर का पैसा..इस तरह वकीलों के घर भर रहा है।

उसका कुछ निर्णय नहीं हुआ अभी तक?रंजन ने पूछा।

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ऐसे केसेज का कभी निर्णय होता है?निशांत डूबी आवाज में बोला।

तुम अपना हिस्सा उसे दे क्यों नहीं देते?रंजन ने रास्ता सुझाया।

बहुत बार ऑफर दिया उसे क्योंकि उससे ज्यादा तो साल भर से वकील की फीस और आने जाने में दे चुका हूं मैं,बहुत पछता रहा हूं अब।निशांत ने सिर झुका लिया।

अब क्या रास्ता है बाहर निकलने का?रंजन बोला।

शायद कोई नहीं,बस आत्म ग्लानि है,हर समय घुलता रहता हूं,न जाने क्या सोचकर,किस मनहूस घड़ी में वैर लिया था अपने ही भाई से…अब पछतावे और नैराश्य के सिवाय कुछ नहीं बचा मेरी जिंदगी में।कहीं आउट ऑफ स्टेशन भी जाना हो तो कोर्ट से परमिशन लेनी पड़ती है।

और भाई साहब क्या कहते हैं?उन्हें अफसोस नहीं अपने निर्णय का?रंजन ने पूछा।

बिलकुल नहीं,इतनी उम्र हो रही है पर हर डेट पर मुस्तैदी से तैयार रहते हैं,कहते हैं बेशक खुद बर्बाद हो जाऊंगा पर सुनील को भी बर्बाद करके ही मानूंगा।

उफ्फ…तुम,खैर खुद की सोचो…रंजन बोला,कुछ ले देकर मना लो सुनील को।

की थी कोशिश पर उसका कहना है,बड़े भाई को भी मनाओ या तो मुझसे सिर्फ कोर्ट में बात करो।

इस तरह,निशांत के दिन आत्मग्लानि में कट रहे हैं जो कहीं एक दिन उसे ही न ले डूबेगी।एक बार की गई गलती,आसानी से नहीं जाती फिर सिर्फ अफसोस रह जाता है और आदमी हेल्पलेस हो जाता है।

संगीता अग्रवाल

वैशाली,गाजियाबाद

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