Moral Stories in Hindi : आज महीने की पाँच तारीख थी। कैलेंडर देखते हुए रमा देवी बेचैन सी घर के आँगन में टहल रही थीं कि यकायक घंटी की आवाज़ सुनकर वो तेजी से दरवाजे की तरफ चल पड़ीं।
उन्होंने दरवाजा खोला तो उनकी उम्मीद के मुताबिक सामने उनकी बहू तन्वी के दफ्तर का चपरासी रतन खड़ा था।
रमा देवी को एक लिफाफा देते हुए रतन बोला “अम्मा जी, सूरज निकलने में चाहे देर कर दे, मैडम वेतन मिलते ही आपको पैसे भेजने में देर नहीं करती हैं।”
रमा देवी ने उसे गुस्से में घूरकर देखा और बिना कुछ कहे पैसे लेकर अंदर आ गयीं।
उन्हें पैसे गिनते हुए देखकर उनके पति आशीष जी बोले “छः वर्ष हो गये हमारे बेटे को इस दुनिया को गये हुए लेकिन हमारी बहू आज भी हमारे प्रति बिना किसी शिकन के अपनी जिम्मेदारी निभा रही है।”
उनके ये शब्द मानों रमा देवी को तीर की तरह चुभे और उन्होंने कठोर स्वर में कहा “बस कीजिये उस मनहूस की प्रशंसा करना। कोई अहसान नहीं करती है वो हम पर। नौकरी भी तो उसे हमारे बेटे की जगह पर मिली है।”
“तुम्हें कोई नहीं समझा सकता”, ये कहते हुए आशीष जी वापस अपने अखबार में नजरें छुपाते हुए पुरानी यादों में खो गये।
छः वर्ष पहले तन्वी का विवाह रमा और आशीष जी के इकलौते बेटे किशन से हुआ था।
सारा घर इस अवसर पर खुशियों में डूबा हुआ था लेकिन ये खुशियां चंद दिनों की ही मेहमान साबित हुईं।
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विवाह के एक ही महीने बाद दुर्घटना में किशन की मृत्यु हो गयी।
रमा देवी इसके लिए तन्वी को जिम्मेदार मानने लगीं और किशन की तेरहवीं के अगले दिन ही उन्होंने उसे घर से चले जाने का आदेश दे दिया। आशीष जी भी उस वक्त कुछ नहीं कर सके।
तन्वी के माता-पिता उसका दूसरा विवाह करना चाहते थे लेकिन वो नहीं मानी।
अलग रहकर भी तन्वी अपने सास-ससुर के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाती आ रही थी। उसे पता था कि आशीष जी की पेंशन और किशन की तनख्वाह मिलाकर ही घर का खर्च चलता था, इसलिए अनुकम्पा के आधार पर किशन के दफ्तर में उसे जो नौकरी मिली थी उससे प्राप्त होने वाले वेतन में से अपने गुज़ारे के लिए नाममात्र के पैसे रखकर वो बाकि वेतन नियम से रमा देवी को भिजवा दिया करती थी लेकिन रमा जी का व्यवहार तब भी उसके प्रति कभी नहीं बदला।
आशीष जी जरूर अपनी बहू के लिए सहानुभूति रखते थे लेकिन अपनी पत्नी के सामने कुछ कह नहीं पाते थे।
सहसा रमा देवी की आवाज सुनकर आशीष जी की तंद्रा टूटी जो उन्हें घर के राशन की सूची थमा रही थीं।
इस महीने के बाद अगला महीना आधा बीत गया लेकिन रतन पैसों का लिफाफा लेकर नहीं आया। रमा देवी का गुस्सा अब चरम पर था।
उन्होंने आशीष जी को पुरानी बातें याद दिलाते हुए कहा “पिछली बार तो आप बहुत बड़ी-बड़ी बातें कर रहे थे अपनी बहू की प्रशंसा में। आखिर उसने अपना रंग दिखा ही दिया ना। कुछ ही दिनों के बाद दिवाली आने वाली है। अब क्या करेंगे हम? आपके मामूली से पेंशन में कैसे सब कुछ हो पायेगा?”
आशीष जी ने उन्हें समझाने का प्रयास करते हुए कहा “कुछ बात हो गयी होगी। कहो तो मैं उससे मिलकर पता कर आऊँ?”
“कोई जरूरत नहीं है आपको उस मनहूस की सूरत देखने की। कर लेंगे हम किसी भी तरह अपना गुजारा।” चिड़चिड़ाती हुई रमा देवी अपने कमरे में चली गयीं तो आशीष जी का मन घबराने सा लगा कि कहीं तन्वी के साथ कुछ ऊँच-नीच तो नहीं हो गयी, पता नहीं वो सही-सलामत होगी भी या नहीं।
लेकिन वो इतने बेबस थे कि रमा देवी के विरुद्ध जाकर घर में बेवजह क्लेश को निमंत्रण नहीं देना चाहते थे।
संयोग से अगले ही दिन रतन पैसे लेकर रमा देवी के घर पहुँचा।
उसे देखते ही रमा देवी ने तीखे स्वर में कहा “तुम्हारी मैडम को याद आ गयी हमारी?”
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उनका ये ताना सुनकर रतन रूआँसी आवाज़ में बोला “अम्मा जी, मैडम तो एक महीने से सिटी अस्पताल में है। सीढ़ियों से गिरने के कारण उनके पैर में फ्रैक्चर आया है और उनके सिर में भी चोट लगी है।
उन्होंने तो मुझे पैसे भिजवा दिये थे आपको देने के लिए पर मैं ही भूल गया।
आज उनके पूछने पर मुझे याद आया।
उन्होंने आपसे क्षमा माँगते हुए लिफाफा भेजा है।
हम भी आपसे क्षमा माँगते हैं अम्मा जी। हमारे कारण आपको काफी असुविधा हुई होगी।”
ये कहकर रतन तो चला गया लेकिन उसकी बातें सुनकर रमा देवी और आशीष जी मानों सदमे में आ गये थे।
स्वयं को सँभालने का प्रयास करते हुए आशीष जी ने अपने स्कूटर की चाभी उठाकर कहा “बस अब बहुत हुआ किशन की माँ। अब मैं तुम्हारी एक नहीं सुनूँगा। मैं जा रहा हूँ अपनी बहू से मिलने।”
सहसा रमा देवी बोलीं “ठहरिये मैं भी आपके साथ चलूँगी।”
यकायक अस्पताल में रमा देवी और आशीष जी को देखकर तन्वी और उसके माता-पिता को यकीन ही नहीं हुआ कि वो सचमुच तन्वी से मिलने आये हैं।
उनकी तरफ देखकर अपने हाथ जोड़ते हुए तन्वी बोली “अम्मा जी, बाबूजी, मुझे क्षमा कर दीजिये, इस महीने मैं वक्त पर पैसे…।”
वो इतना ही कह पायी थी कि रमा देवी ने उसके मुँह पर हाथ रखते हुए कहा “बस बेटी, कुछ मत बोलो। अपनी अम्मा को आज तुम क्षमा कर दो।
लोग अपनी गृहलक्ष्मी का मान-सम्मान करते हैं और मैंने तुम्हें बस तिरस्कार दिया वो भी उस दुर्घटना के लिए जिस पर तुम्हारा कोई वश नहीं था।
अपने दुख में अंधी मैं तुम्हारा दुख देख ही नहीं सकी।”
“नहीं-नहीं अम्मा जी ऐसा मत कहिये। आपकी कोई गलती नहीं है। दोष तो नसीब का है।” तन्वी ने रोते हुए कहा तो रमा देवी ने उसके आँसू पोंछते हुए उसे गले से लगा लिया।
तन्वी के मना करने के बाद भी रमा देवी उसके ठीक होने तक अस्पताल में उसके साथ ही रहीं।
दिवाली की सुबह तन्वी को जब अस्पताल से छुट्टी मिली तब उसके माता-पिता से रमा देवी ने कहा “अगर आप आज्ञा दें तो मैं अपनी गृहलक्ष्मी को उसके घर ले जाना चाहती हूँ।”
सभी लोग रमा देवी की इस बात से हैरान भी थे और खुश भी।
रमा देवी और आशीष जी जब तन्वी को लेकर घर पहुँचे तब रमा देवी ने कहा “आज की दिवाली कितनी विशेष है। वर्षों बाद इस घर की लक्ष्मी यहाँ वापस लौटी है।”
आशीष जी भी मिठाई का डब्बा खोलते हुए बोले “इस खुशी में हम सब मुँह मीठा करेंगे।”
रमा देवी के हाथ से मिठाई खाते हुए तन्वी की आँखें खुशी से भर आयीं थी।
प्रेम के इस क्षण में उन सबको ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों किशन की तस्वीर भी आज अपने परिवार को साथ देखकर मुस्कुरा रही थी।
©शिखा श्रीवास्तव