आम का स्वाद -देवेंद्र कुमार

“अजय, आज घर पर ही रहना। अपने दोस्तों के साथ खेलने मत जाना। दादी अकेली हैं, उनका ध्यान रखना।” कहकर अजय के पापा अविनाश बाहर चले गए।

अजय को पता था कि आज मम्मी अस्पताल गई हैं। पापा कह रहे हैं—जल्दी ही अच्छी खबर सुनने को मिलेगी। वह खबर क्या होगी, इसे अजय समझता है। मम्मी अस्पताल से बेबी लेकर आएँगी-भैया या बहन कोई भी।

दोपहर का समय, गरम हवा चल रही है। पर यह आमों का मौसम है। उसका मन है कि आमों के बगीचे में जाकर ताजे तोड़े गए आम का स्वाद ले, पर पापा का आदेश था। वह मन मारकर दादी के पास बैठा रहा।वह बैठा-बैठा दादी की ओर देख रहा था, जो ऊँघ रही थीं। तभी उसने खिड़की के बाहर अपने दोस्त नितिन को इशारा करते देखा-वह बाहर बुला रहा था। अजय ने देखा दादी नींद में थीं। वह चुपचाप बाहर चला गया। बाहर नितिन के साथ और भी कई दोस्त खड़े थे।नितिन ने कहा, “अजय, चलो बाग में। यह तो आमों का मौसम है।”

अजय को पिता की चेतावनी याद आ रही थी, पर अपने हाथ से तोड़े गए आमों का स्वाद उसे अपनी ओर बुला रहा था। आमों के बगीचे में पहुँचते ही वह सब कुछ भूल गया। सब बच्चे आम तोड़ने में लग गए। बगिया का रखवाला रामभज उन्हें रोकने के लिए दौड़ा आता था, पर आज तो वह कहीं नजर ही नहीं आ रहा था।

बच्चे ताक-ताककर डालियों से झूलते आमों को अपने ढेलों से निशाना बनाने लगे। कभी निशाना आम पर लगता तो कभी पत्थरों की चोट से टहनियाँ और पत्ते नीचे आ गिरते। बीच-बीच में लड़के बगिया के रखवाले रामभज पर भी नजर रख रहे थे। अब अजय की बारी थी। उसने एक आम का निशाना ताक कर पत्थर उछाला, तभी दूर से पिता की आवाज सुनाई दी, “अजय, ओ अजय, कहाँ घूम रहा है धूप में।” अजय घबरा गया। बोला, “मैं चला…”

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लड़कों ने पुकारा, “अपना आम तो लेता जा, फिर दूसरी आवाज आई, “अरे यह तो आम नहीं कुछ और है—एक घोंसला।”

सुनकर अजय का जी धक् रह गया, पर अब वापस जाकर देखने का समय नहीं था। उसने पिता को सामने से आते देख लिया था। तेजी से दौड़ता हुआ पिता के पास आ पहुँचा।

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अविनाथ ने कहा, “हाँफ क्यों रहे हो। वह अजय का हाथ पकड़कर घर में ले गए। दादी ने देखा तो पूछने लगी, “कहाँ चला गया था इतनी धूप में?” अजय को किसी की कोई बात नहीं सुनाई दे रही थी। बस कानों में वही शब्द गूँज रहे थे, “अरे, यह तो आम नहीं कुछ और है-एक घोंसला।”” दादी ने अजय का सिर थपकते हुए कहा, “तुम बहन के भाई बन गए हो।” और हँस पड़ीं।

“हाँ, अजय बधाई। मैं अस्पताल जा रहा हूँ। चलो तुम भी अपनी नन्ही-मुन्नी बहन से मिल लेना।”

अविनाश अजय का हाथ पकड़कर पत्नी रमा के पास ले गए। रमा ने पास एक नन्ही मुन्नी सो रही थी। अजय ने नन्ही मुन्नी बहन को देखा। मन में खुशी भर गई, पर फिर चेहरा उदास हो गया। कानों में कोई कह रहा था-तेरा पत्थर आम को नहीं, घोंसले पर लगा था और…

वह लगातार एक ही बात सोच रहा था, कैसे जल्दी से जल्दी घर पहुँचकर आम के बाग में जाए और देखे कि क्या सचमुच पत्थर की चोट से घोंसला गिर गया था। पता नहीं घोंसले में मौजूद पंछियों के छौनों का क्या हुआ था।अजय की आँखें डबडबा आईं-उसने पिता से कुछ कहना चाहा, पर मन की बात होंठों से बाहर नहीं आई। उन्होंने पूछ लिया, “अजय क्या बात है? ‘’

अब अजय चुप नहीं रह सका। वह पिता को आम के बगीचे में घटी पूरी घटना बता गया। अविनाश बोले, “बेटे, यह तो ठीक नहीं हुआ। घोंसला पेड़ से गिरा है तो उसमें मौजूद बच्चों या अंडों का पता नहीं क्या हुआ होगा। चलो चल कर देखते हैं।” कहकर वह अजय के साथ आम के बगीचे में पहुँच गए।

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शाम हो चली थी। बगिया में घने पेड़ों के कारण धुंधलका सा हो गया था। घोंसलों की ओर लौटते पंछियों का शोर सुनाई दे रहा था। बाग में और कोई नहीं बस रामभज था।




घर में बेटी का जन्म हुआ है सुनकर रामभज ने बधाई दी फिर पूछने लगा, “इस समय क्यों आए हो बाबू?”अविनाश ने रामभज को पूरी बात बता दी। इधर-उधर देखते हुए बोले, “अजय कह रहा है कि इसने अपने दोस्तों को कहते सुना था कि आम नहीं घोंसला गिरा है, पर यहाँ तो जमीन पर कोई घोंसला कहीं दिखाई नहीं दे रहा है।”

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रामभज बोला, “मैंने बच्चों को आमों पर पत्थर फेंकते देखा तो मैं चला आया। मुझे देखते ही सब बच्चे भाग गए। मैंने देखा था जमीन पर पड़ा एक घोंसला।”“मैंने पेड़ पर चढ़कर घोंसले को अच्छी तरह डालियों के बीच टिका दिया है।”

“क्या घोंसले में अंडे या चिड़िया के बच्चे थे?” अजय ने डरे-डरे स्वर में पूछा।“नहीं घोंसले में कुछ नहीं था। लगता है पंछी ने अभी नया घोंसला बनाया है। घोंसले में अंडे या बच्चे मुझे नहीं दिखे।‘’ रामभज बोला।

अजय को अब साँस आई। फिर भी अपनी आँखों से घोंसले में झाँकना चाहता था। उसने रामभज से कहा तो वह झटपट पेड़ पर चढ़ गया। अविनाथ ने अजय को अपने कंधे पर खड़ा कर लिया। ऊपर से रामभज ने खींच लिया-इस तरह अजय पेड़ पर जा पहुँचा।

“कहाँ है घोंसला?” अजय ने पूछा।

रामभज ने पत्तों के बीच ऊपर की तरफ इशारा किया, “आओ दिखाता हूँ। तुम डाल पकड़कर आगे खिसकते रहो। मैं पीछे से संभाले रहूँगा-गिरने नहीं दूँगा।”

अजय डाल को दोनों हाथों से मजबूती से थामकर धीरे-धीरे आगे खिसकता रहा। पीछे से रामभज ने थामा हुआ था। फिर दो डालियों के जोड़ पर एक घोंसला दिखाई दिया, “अजय ने देखा छोटा सा घोंसला एकदम खाली था। पेड़ पर दूसरे और भी कई घोंसले थे, जिनसे तरह-तरह की आवाजें आ रही थीं। अब जाकर अजय को तसल्ली हुई कि सचमुच घोंसले में अंडे या बच्चे नहीं थे। वरना अब तक तो वह खुद को अपराधी समझ रहा था। कुछ देर चुप्पी रही। अविनाश ने कहा, “रामभज भैया, आज तुमने बहुत अच्छा काम किया। अजय के हाथों से एक बड़ा अपराध होते-होते रह गया।”




रामभज बोला, “मैं तो बच्चों को यही समझाता हूँ कि इस तरह आमों को पत्थर मार कर तोड़ना ठीक नहीं। इससे घोंसले गिर जाते हैं, पंछी घायल होते हैं, अंडे टूट फूट जाते हैं।‘’

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“तुमने ठीक कहा। इस तरह आम तोड़ने के बारे में नहीं, पेड़ों पर रहने वाले परिंदों के बारे में सोचना चाहिए।” कहकर अविनाश बेटे के साथ घर लौट आए। उन्होंने अजय से कहा “बेटा, घोंसले में रहने वाले पंछियों के छौने बहुत कोमल होते हैं। समझो जैसे अस्पताल में तुम्हारी माँ के पास लेटी तुम्हारी छोटी बहन। जरा सोचो, तुम्हारी बहन माँ के पास पलंग पर लेटी है और तब कोई उस पर पत्थर फेंक दे तो क्या होगा? उसे चोट लगेगी, वह घायल हो सकती है और…”

“बस पापा बस…” अजय ने रुंधे स्वर में कहा और जोर से अविनाश का हाथ थाम लिया। उसकी उंगलियाँ कांप रही थीं। अविनाथ ने धीरे से उसका कंधा थपथपा दिया। अब अजय से और कुछ कहने की जरूरत नहीं थी। संदेश उस तक पहुँच गया था।(समाप्त )

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