शाम का समय ठंडी हवाएं और सर्दी का मौसम …
सब ओर शीतलता पर भीतर की उष्णता से मैं त्रस्त हो चुकी थी ।
मैं कहां से कहां पहुंच चुकी थी..
मैं क्यों मर्यादा सीमा में नहीं रह पाई …
ख़ुद से ही लज्जित हो रही थी मैं..!
अब तो उम्र का वह हिस्सा मैं पार कर रही थी जिस अवस्था तक आते-आते लोग सांसारिक मोहमाया भी त्याग कर अपने कदम साधुता की और बढ़ाने प्रारंभ कर देते हैं..
और …मैं.. छि:…
मैं अभी भी निशांत के मोह- पाश में फंसी हूं…
क्यों नहीं झटक कर तोड़ देती… यह रिश्ता ..
विवाह योग्य होने पर मेरे लिए बहुत से रिश्ते भी आए पर पता नहीं माता-पिता या मेरे कारण या ग्रहों की चाल ऐसी चल रही थी कि मैं विवाह बंधन में नहीं बन पाई।
समय निकला जा रहा था और उम्र के उस दौर की आवश्यकता पूर्ति के लिए मैं अपने सहकर्मी निशांत की ओर आकर्षित होती चली गई ।
उसका ‘अपना’ मन बहलाना…
मेरे लिए ज़िंदगी था… प्यार था..
अपने दो प्यारे बच्चों और सुशिक्षित पत्नी के होते हुए निशांत कभी भी मेरा नहीं हो पाएगा… …
यह आज ग्यारह वर्ष बाद मैं समझ पाई हूं ..
अभी तो वो मेरा साथ चाह रहा है पर कुछ समय बाद जब मेरी शारीरिक सुंदरता ना रहेगी , क्या तब भी निशांत मेरे पास आने को ऐसे ही लालयित रहेगा..?
नहीं… ‘ निशांत …
तब तुम अपनी पत्नी का सहारा बनोगे क्योंकि तुम्हारे उस रिश्ते पर सामाजिक मोहर लगी है ।
बस.… अब और नहीं..…
मैं ख़ुद को लुटाउंगी… तुम पर…
तुम कभी मेरे थे ही नहीं ।
……
आकाश में विचरते पंछियों को अब पंख समेटने का समय आ गया है”…
निर्णय ले, मैं शांत गहरी नींद में सो गई। क्योंकि कल…. मर्यादा में रहकर… मुझे तुमसे… एक नए रूप में मुलाक़ात करनी है..।
सारी उलझन खत्म हो गई
मन की घुटन से मैं बाहर आ चुकी थी..
#मर्यादा
नीना महाजन नीर