सुपरमैन शक्तिमान कृष ये रुपहले पर्दे के हीरों देखने में बड़े आकर्षक और बढ़िया लगते हैं, मगर हक़ीक़त में असली हीरो बेहद साधारण होते हैं और हमारे आसपास ही होते हैं जो चुपचाप अपना काम करते हैं । ऐसा ही हीरो हमारी इस कहानी में है।
बाबा मनसुख को सांसें खींच खींच कर आ रहीं थीं और इन खींचती सांसों में एक नाम उलझा हुआ था जुगल ।
मैनेजर ने जुगल को फोन मिलाया – हैलो, जुगल भैया, दूसरी तरफ से आवाज़ आई – नमस्कार मैनेजर, कहिए!
मैनेजर- भैया वो बाबा मनसुख कुछ ही घड़ी के मेहमान हैं, बस आपका ही नाम ले रहे हैं बार बार ।
जुगल ने भावुक होकर कहा- मैंनेजर साहब क्या हुआ बाबा को, मैंनेजर ने उत्तर दिया – जुगल भैया, कुछ दिनों से बीमार थे, आज अचानक सीने में तेज दर्द उठा और जब तक मैं पहुँचा स्थिति गम्भीर हो चुकी थी ।
जुगल – ओह, मैनेजर ये तो बहुत दुखद घटना हो गई, मैं आ रहा हूँ, आधा घंटा लगेगा ।
कौन जुगल और किस मैंनेजर से वह किसकी तबीयत के सन्दर्भ में बात कर रहा था, आइए जानने के लिए थोड़ा फ़्लैश बैक में चलते हैं।
अब उस दिन की बात ही ले लो, अभी जुगल खाना परोसते हुए आगे बढ़ ही रहा था कि धीरे धीरे खाना खा रहे बाबा मनसुख ने कहा – जुगल इस बार पूरे दो महीने में आया है, बेटे सबने तो हमें भूला ही रखा है, तू भी हमसे पीछा छुड़ाना चाह रहा है क्या?
जुगल ने मुस्कुराते हुए कहा – बाबा मैं तुम्हारा तब तक पीछा ना छोडूँगा, जब तक तुम्हें लोटे में भरकर हरिद्वार ना पहुँचा दूँ ।
यह सुनकर सब ठहाका लगाकर हँस पड़े ।
जुगल फिर खाना परोसते हुए आगे बढ़ा ही था तभी 75 वर्षीय रमती मैया ने जुगल के कान में धीमे से कहा- बेटा जुगल ! बड़े दिनों से गुलाब जामुन खाने का मन है । अगली बार आइयो तो बाबू लेके आइयो ।
जुगल मुस्कुराते हुए बोला – ठीक है अम्मा ले आऊँगा, पर तुम्हें मेरी क़सम है, एक पीस ही खाइयो, जे सब डाॅक्टर ने तुम्हें मना कर रक्खा है और हॅंसते हुए आगे खाना परोसने लगा ।
ये दृश्य था मेरठ शहर में बने एक वृद्धाश्रम का । लगभग 60-70 बुजुर्ग इस आश्रम में अपने बुढ़ापे के दिन सम्मान के साथ बिताने के लिए रहते थे । कईं तो अच्छे सम्भ्रांत परिवारों से ताल्लुक रखते थे, तथा कोई ख़ुद अच्छी नौकरी से सेवानिवृत्त था ।
किसी को औलाद ने घर से निकाल दिया था, तो कोई ख़ुद ही घर छोड़कर आ गया था ।
दिल को जब कोई बात लग जाती है तो इंसान ऐसे निर्णय कर बैठता है जो उसकी सोच की परिधि से बाहर होते हैं,
इन बुजुर्गों को ईश्वर ने बच्चे तो दिए मगर औलाद सिर्फ़ एक दी जिसका नाम था जुगल ।
किसी का बाबू, किसी का बच्चवा, किसी का जुगू तो किसी का जुगल बेटा ।
जुगल इन सबका पेट का जाया तो नहीं था उनसे मगर बढ़कर था ।
जो रिश्ते इंसानियत और प्रेम के गर्भ से जन्म लेते हैं सबसे ज़्यादा विश्वसनीय होते हैं।
जुगल इस वृद्धाश्रम का मालिक नही था और नहीं इसका मैनेजर ।
लेकिन जबसे यह वृद्धाश्रम बना, महीने में दो से तीन बार ज़रूर जुगल यहाँ आता और अपना समय इन बुजुर्गों के साथ हँसते हँसाते व्यतीत करता । अपने बच्चों के जन्मदिन पर, त्योहारों पर भी जुगल का नियमित आना होता, और इन बुजुर्गों की फरमाइशें बच्चों की तरह पूरी करता, आश्रम में जुगल का सबसे ज़्यादा मन लगता ।
इन पिछले दस सालों में जुगल ने आश्रम में प्राण त्यागने वालों के सारे संस्कार अपने आप किए, उसी विधि विधान से जैसे एक पुत्र करता ।
जुगल एक मध्यम वर्गीय परिवार से, साधारण कद काठी व्यक्ति । जीवनयापन के लिए दूध की डेरी लगा रखी थी ।
इस वृद्धाश्रम से जुड़ाव का एक और कारण भी था, जुगल को विश्वास हो गया था कि जब से वह आश्रम में आने लगा है उस पर ईश्वर की कृपा बहुत अधिक बढ़ गई है, दूसरा जुगल ने अपने परिवार में तीन तीन पीढ़ियों को एक दूसरे की सेवा में रत देखा था ।
बुज़ुर्गों की छाया ईश्वर का आशीर्वाद होती है ये बात जुगल को तो समझ आ गयी थी । अगर यह बात हर औलाद को समझ आ जाती तो इस देश में वृद्धाश्रमों की नींव ही नहीं पड़ती ।
शेष कहानी दूसरे भाग में……..
~अंकित चहल ‘विशेष’