“अकेलापन” – अनु अग्रवाल

हरि बेटा….तेरी माँ की तबियत बहुत खराब है…….थोड़ा समय निकालकर……..

“मैं कोई डॉक्टर थोड़े ही हूँ….आप दवा दे दो माँ को ठीक हो जायेंगीं”- हरि….. रमाशंकर जी की बात बीच में ही काटकर बोल पड़ा।

“हर बीमारी का इलाज सिर्फ दवा नहीं होती बेटा….. अकेलापन खा चला है उसे…..कैसी तड़प रही है तुम सबसे मिलने के लिए…..एक बार आजा मेरे बच्चे”- रमाशंकर जी मनुहार करते हुए बोले।

“अरे………… ऊपर वाला भी बहीखाता नहीं अब लैपटॉप लेकर बैठता है…इस जनम के पापों का फल इसी जनम में भुगतना होता है….आप ज़िद न करो हरि से….ये अकेलापन मैंने खुद ही तो चुना है”- कंपकपाती आवाज़ में कांता देवी ने कहा।

कांता देवी……बहुत ही खरखरा स्वभाव…….कोई सुहाता ही नहीं…….बच्चों को अपने घर के आँगन में खेलने न देतीं….सब पर चिल्लातीं……डाँट लगातीं……गलती से बॉल उनके घर में आ जाती तो लौटाती ही नहीं……..इसी वजह से हरि के साथ कोई खेलना पसंद नहीं करता…बेचारे बच्चे का बचपन भी यूँ ही अवसाद में निकला……

खैर……….. समय पंख लगाकर उड़ गया……हरि की शादी भी हो गयी….पत्नी प्रिया अपने नाम के अनुरूप ही प्यारी सी…..लेकिन वो कहते हैं न इंसान का स्वभाव कभी नहीं बदलता….कांता देवी का भी नहीं बदला…..बहु प्रिया फूटी आँख न सुहाती….रोज के झगड़े होने लगे घर में….इन सबसे तंग आकर हरि ने अपना ट्रांसफर दूसरे शहर में करवा लिया।

रमाशंकर जी अपनी पत्नी का स्वभाव जानते थे…उन्होंने भी नम आँखों से बच्चों को विदा किया….लेकिन कांता देवी मन ही मन खुश थीं….. अब पूरे घर पर उनका ही राज था… शरीर से चुस्त दुरुस्त थीं तो काम की भी कोई परेशानी न थी।

रमाशंकर जी अक्सर कहते…….कैसी औरत हो तुम? अपने बच्चों से भी मोह नहीं है तुमको…..देख लेना एक दिन पछताओगी….ये अकेलापन खलेगा तुमको बुढ़ापे में….जब शरीर साथ देना बंद कर देगा…तब याद करोगी मेरे ये शब्द….




और आज कांता देवी के कानों में ये शब्द गूँज रहे थे।

अकेलापन इस कदर हावी होने लगा था…..कि दरवाजे पर घन्टों बैठी रहतीं…जब भी किसी बच्चे को देखतीं आँखों में एक चमक सी आ जाती…..आवाज़ देकर उसे बुलातीं…

“आजा……. आजा मेरे पास….यहाँ मेरे घर में खेल ले….चाहे तो घर के शीशे भी तोड़ दे….तुझे टॉफी दूंगी मैं…..आजा… आजा मेरे पास….अरे कोई तो आ जाओ मेरे घर पर…मेरे घर के आँगन में कोई तो खेलो….जे घर खाने को दौड़े है मुझे”

लेकिन कोई बच्चा न टिकता……बच्चों को डर लगता था उनसे….पागल अम्मा कहकर बुलाते थे उन्हें…अकेलेपन की वजह से वक्त से पहले बुढ़िया लगने लगीं थीं कांता देवी।

आज तबियत ज्यादा खराब थी….इसलिए रमाकांत जी ने हरि को फ़ोन किया था।

“किस सोच में डूब गए….बाबूजी का फ़ोन था न….माँ की तबियत ठीक नहीं है”- प्रिया ने चाय देते हुए हरि से पूछा

हरि की चुप्पी सब कुछ बोल गयी।

चलो चलते हैं न माँ के पास….देखना आपको देखकर एकदम से अच्छी हो जाएंगी ….हर बीमारी का इलाज सिर्फ दवा नहीं होती है जी। क्या हर बार माँ- बाप का ही फ़र्ज़ होता है कि वो बच्चों को मांफ करें… बच्चे भी तो माफ़ कर सकते हैं न…..कहीं बहुत देर न हो जाये।




बस प्रिया का इतना ही कहना था कि हरि दोनों बच्चों और प्रिया को लेकर रात में ही घर के लिए निकल पड़ा। 6 घण्टे गाड़ी चलाकर हरि तड़के सुबह ही परिवार समेत अपने घर जा पहुँचा।

…बेटे बहु को देख कर आँखों में चमक के साथ पश्चाताप के आँसू भी बह निकले। कुछ बोल न पायीं लेकिन उनके आँसू सब कह गए। पोते पोतियों की चहचहाट से घर गूँज उठा। प्रिया की देखभाल प्यार और अपनेपन से कांता देवी अच्छी होने लगीं….दिन-रात दिल से दुआएं देतीं प्रिया को।

रमाशंकर भी अपनी पत्नी का ये रूप देखकर खुश थे। सोच रहे थे सच में….अपने तो अपने ही होते हैं…..कांता ने लाख बुरा किया बच्चों के साथ लेकिन बुरे समय में बच्चे ही काम आए।

हँसी खुशी दिन निकल रहे थे….लेकिन परदेसी कितने दिन रुक सकता था….बच्चों की छुट्टियाँ खतम हो गयीं थीं… हरि तो पहले ही जा चुका था आज प्रिया और बच्चों को भी जाना था…कांता देवी सुबह से रसोई में लगीं थीं। बहुत सारे पकवान बनाये ……..पैक करने के लिए भी सूखा नाश्ता बनाया। आँखों में नमी और होंठों पर मुस्कान लिए प्रिया और बच्चों को इस वादे के साथ विदा किया कि वे लोग अब आते रहेंगे।

तो दोस्तों….अब मैं भी विदा लेती हूँ फिर मिलूंगी आपसे एक नई कहानी लेकर…हाँ लेकिन जाने से पहले एक और बात……अगर हम बच्चों को बचपन से ही नफरत और दुत्कार देंगें तो क्या भविष्य में बच्चों से कभी प्यार की उम्मीद कर सकते हैं…नहीं… कभी नहीं….सभी बच्चे हरि प्रिया जैसे नहीं होते….जो सब कुछ भुलाकर नयी शुरुआत करते हैं…….वैसे कमेंट में बताइएगा आप हरि ने वापस लौटकर सही किया या नहीं?आपकी क्या राय है।

#अपने_तो_अपने_होते_हैं 

आपकी ब्लॉगर दोस्त

अनु अग्रवाल

 

 

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