” ये क्या चंदा..आज फिर से…तू एक बार उसका हाथ पकड़कर ऐंठ क्यों नहीं देती।तेरी कमाई खाता है और तुझ पर ही हाथ…।खाली ‘दुर्गा मईया सब ठीक कर देंगी’ कहने से नहीं होता है..दुर्गा बनना भी पड़ता है..।” अपनी कामवाली के चेहरे और हाथ पर चोट के निशान देखकर आरती गुस्से-से उस पर चिल्लाई।
” मैं उसका हाथ..नहीं दीदी..वो मेरा मरद है..मैं कैसे…।” चंदा रुआँसी होकर बोली।
” तो फिर मरद-मरद कहकर मार खाती रह।” रूई का बंडल और डिटाॅल की शीशी उसके सामने पटक कर आरती कमरे में चली गई।चंदा ने अपने ज़ख्मों पर डिटॉल लगाया और सी-सी( दर्द से कराहना) करती हुई उठी और रसोई का काम समेटने लगी।
काम खत्म करके वो आरती से बोली,” दीदी.., चलती हूँ, कल थोड़ी-सी देर होगी..दुर्गाअष्टमी है ना..और कुछ नहीं तो कम से कम अपनी दोनों बेटियों को तो पूज ही सकती हूँ।”
” ठीक है..हो सके तो कल आते समय उन्हें भी लेती आना।”
” जी दीदी..।” कहकर चंदा चली गई।रास्ते भर वो आरती की कही बात पर विचार करती रही, कहती हैं..हाथ पकड़कर के.. अरे..ये कैसे मैं कर सकती हूँ..पाप नहीं चढ़ेगा मुझे…।
अगले दिन सुबह उठकर चंदा ने अपने घर की साफ़-सफ़ाई की..बेटियों को नहला- धुलाकर नये कपड़े पहना दिये..बालों में कंघी करके उन्हें आसन बिछाकर बैठा दिया और बोली कि मैं बस पूड़ियाँ तल लेती हूँ।
चार पूड़ियाँ तल कर वो पाँचवीं पूड़ी कड़ाही में डाली ही थी कि उसका पति महेश चिल्लाया,” चंदा..चाय ला।”
” लाती हूँ..बस पाँच मिनट।आज अष्टमी है ना..अपने घर की दो कन्याओं की ज़रा पूजा कर लेती हूँ..।” बड़े उत्साह-से वो बोली और पूड़ी तलने लगी।
तभी महेश आया और पीछे-से उसका बाल पकड़कर उसे गालियाँ देने लगा।चंदा दर्द- से कराह उठी लेकिन बोली कुछ नहीं।महेश अपना गुस्सा निकालकर कुरसी पर आराम से बैठ गया।
पूड़ियाँ तल कर चंदा ने चाय बनाई और महेश को देने गई।महेश गर्व- से तनकर हाथ बढ़ाते हुए बोला,” ला..चाय दे।” लेकिन चंदा ने चाय उसके हाथ में न देकर उसके पैर पर उड़ेल दी।महेश दर्द-से चिल्लाया तो वो क्रोध-से बोली,”
अब दर्द का मतलब समझ में आया।” महेश ने उसे मारने के लिये हाथ उठाया तो चंदा ने कसकर उसका हाथ पकड़कर लिया और दाँत पीसते हुए बोली,” बस..अब नहीं..वरना तोड़ दूँगी।और सुन..कल से कमा कर लाएगा तभी खाना दूँगी वरना…।” महेश इस अप्रत्याशित हमले के लिए तैयार न था।जिस चंदा को वो कमज़ोर और मार खाकर चुप रहने वाली समझता था,
वो आज उसे दुष्टों का नाश करने वाली साक्षात् दुर्गा नज़र आ रही थी।उसने कहीं सुन रखा था कि औरत जब अपने पर आती है तो..कहीं चंदा ने भी..वो काँप गया..बड़ी मुश्किल से उसने अपना हाथ छुड़ाया और धीरे-से बोला,” ठीक है…तू पूजा कर ले..चाय मैं बना लूँगा।”
चंदा की बेटियाँ भी अपनी माँ का नया रूप देखकर दंग थीं और खुश भी थीं।चंदा ने उन दोनों के माथे पर तिलक लगाया..पूड़ी-हलवा खिलाकर अपने आँचल की गिरह खोलकर पाँच-पाँच के सिक्के निकालकर उन्हें दिया..प्रणाम किया और फिर दोनों का हाथ पकड़कर काम करने के लिये आरती के घर चल दी।
विभा गुप्ता
स्वरचित, बैंगलुरु