रिटायर्ड आदमी की आत्मकथा – सत्य प्रकाश श्रीवास्तव

आप सोच रहे होंगे, “इस आदमी को बेहद खुशनसीब होना चाहिए। साठ साल तक सरकारी माल काटने के बाद अब नाती- पोतों के साथ जीवन का आनंद लेते दिखना चाहिए था। बेटे-बहुओं की हथेली पर इस आदमी के नखरे कुलांचे भरते दिखने थे। पर, यहां ये आदमी इस उम्र में..! ये तो दया का पात्र दिखता है!”

जी हां, आपने सही पहचाना! मै रिटायर्ड व्यक्ति हूं। स्कूल के बाहर बेंच पर मुझे ऊँघते बैठा देख आप अपने मन में जरूर मेरे बारे में ही सोच रहे होंगे।

बिल्कुल! रिटायर होने के पूर्व मेरे भी कुछ अरमान थे। सोचता था कि नौकरी के बाद जीवन की खटपट से मुझे कुछ-न-कुछ आजादी जरूर मिल जाएगी। मुझे याद है जब सातवां वेतन आयोग की संस्तुतियों पर सरकार ने मुहर लगाई, कि मेरे पास पूरा कुबेर का खजाना ही आ गया था। मेरे बेटे-बहू की लालसाएं हिलोरे मारने लगीं। नई कार और फ्लैट खरीदने की फेहरिस्त बनने लगी और बहू-बेटे के इस गुणा-गणित में मैं भी खो गया। लेकिन, अफसोस… यह सुख भोगने के लिए मेरी पत्नी इस दुनिया में सशरीर उपस्थित नहीं रहीं थीं।

हालांकि मैंने इसके पहले भी नौकरी करते हुए काफी पैसे कमाए थे। यकीन मानिए, पूरी तनख्वाह बैंक खाते में सुरक्षित बची रह जाती थी। घर-बाहर के सारे खर्चे ऊपरी कमाई पर निर्भर थे। …और इस ऊपरी कमाई को पाने के लिए मुझे चाहे जिस स्तर तक जाना पड़े- मैं तैयार रहता था। …और इसी काली कमाई की बदौलत मेरा तीन मंजिला आलीशान मकान शहर के पॉश इलाके में लहरा रहा था।

समय का चक्र देखिए! देखते-देखते मैं सरकारी नौकरी से रिटायर हो गया। अभी तक जो समय ऑफिस में ऊपरी कमाई ढूढ़ने के चक्कर में व्यतीत होता था, अब वह समय नाती-पोतों की दुनिया में खो गया। अब पेंशन का हर महीने इंतजार रहने लगा।


अब आप सोच रहे होंगे, कि इस आदमी को रिटायर होने के बाद अपनी मनमर्जी का मालिक होकर जिंदगी का लुत्फ उठाना चाहिए था! …तो आपको बता दूं कि मुझे सिर्फ सरकारी नौकरी से ही सेवानिवृत्ति मिली है, असल जिंदगी से नहीं। असली नौकरी तो अब चालू हुई है।

रिटायरमेंट के बाद बहू-बेटे ने मेरी जिम्मेदारियां तय कर दी हैं। बाहर का एक कमरा मेरे लिए अलॉट हो चुका है। …या यूं समझिए, मुझे मेन गेट की चौकीदारी का जिम्मा सौंप दिया गया है। बेईमानी की जिस कमाई से मैंने तिमंजिला इमारत खड़ी की थी, आज उसी का कोना देखने के लिए भी खांस-खखार का एलार्म बजाना पड़ता है।

सुबह दूध से ब्रेड लाने की सारी जिम्मेदारी मेरी है। हालांकि दोनों नातियों को बेटा ऑफिस जाने के पहले ही स्कूल खुद छोड़ आता है। दोनों बेटों के छुट्टी का अंतराल दोपहर में डेढ़ घण्टे का होता है। बच्चों को स्कूल से लाने की जिम्मेदारी भी मेरी ही है।… और इसके लिए स्कूल समय पर पहुंच जाने की खास ताकीद बहू द्वारा कर दी गई है। इसका अनुपालन करना मेरे लिए नितांत जरूरी है, अन्यथा… (आप खुद अनुमान लगा सकते हैं)।

हर बुढापा शरीर की कुछ डिमांड होती है। कहते हैं बुढापे की जीभ कुछ एक्सट्रा के चक्कर में लार टपकाने लगती है। कुछ बूढों को इस अवस्था में सावन की हरियाली नजर आने लगती है। इस तरह के रसिक मिजाजी बूढों को आप अक्सर देख सकते हैं। जो सड़क से गुजरती रंग-बिरंगी महिलाओं को तिरछी निगाहों से एकटक घूरते पाए जाते हैं। यद्यपि कुछ बूढ़े इस मामले में कुछ ज्यादा ही शातिर होते हैं। वे काले चश्मे की आड़ में अपने मंसूबे को अंजाम देते हैं।


हालांकि अब मुझे बच्चों को स्कूल से ले जाने में मजा आने लगा है। मैं कोशिश करता हूं कि बच्चों की छुट्टी से आधे घण्टे पहले ही स्कूल पहुंच जाऊं। अब आप सोच रहे होंगे कि आखिर जब इस बूढ़े को दोपहर में दो घंटे आराम करने की जरूरत हो, तो भागा-भागा स्कूल आने की बातें क्यों कर रहा है!

चलिए, इस रहस्य को भी उजागर किए देता हूं!

तो, मैं आपको बता दूं कि स्कूल पहुंचते ही वेटिंग रूम की कोने वाली बेंच की एक सीट कब्जिया कर बैठ जाता हूं। फिर सामने रंग-बिरंगी तितलियों के आने का सिलसिला शुरू होने को होता है।

फिलहाल कुछ सामाजिक बंदिशें होती हैं। खैर, अब बच्चों की मम्मियों को देखने की उमर तो गई… और यह दुनियादारी की दृष्टि से भी खतरनाक हो सकता है! लेकिन, कहते हैं विधाता ने हर आयुवर्ग के लोगों के नयन सुख का नायाब इंतजाम कर रखा है। विधाता के इसी इंतजाम का नतीजा यह रहा कि अब कुछ बच्चों को लेने उनकी दादियां भी आने लगी हैं।

वह भी क्या खूबसूरत डिजाइनों में..! आंखें कि पलक झपकाने का भी नाम न लें! कोई सूट में, कोई दुपट्टा के, कोई बेदुपट्टा, कोई साड़ी में, कोई घांघरे में, कोई खिजाब में, कोई हिजाब में, कोई बल खाती चोटी में, कोई माधुरी कट बालों में… तरह-तरह की लाजवाब किस्में… लाली-लिपिस्टिक और काजल से शोभित आंखें आदि-आदि!


कसम से मेरे दोस्त..! अब मैंने एक काला चश्मा भी खरीद लिया हूं, ताकि बिना लोगों की नजरों में आए सावन की हरियाली का लुत्फ उठाते बहू-बेटों द्वारा सौंपी जिम्मेदारी का निर्वहन भली-भांति करता रहूं।

एक बात तो बताना ही भूल गया! शाम को बाजार की जिम्मेदारी भी मेरी ही है। हालांकि मेरे लिए ये भी एक अवसर से कम नहीं। चूंकि घर में मुझे नपा-तुला और बुढ़ापे के हिसाब से ही भोजन मिलता है। सो अपने जीभ की संतुष्टि बाजार की चटपटी चीजों और पानी बताशे से पूरी कर लेता हूं।

… और इसका खर्चा भी साग-सब्जी में मोलभाव कर निकाल ही लेता हूं। क्योंकि अब मेरा जीवन बहू-बेटे के दिए पैसे पर ही निर्भर हो चला है। पेंशन की एक मुश्त राशि का मालिकाना हक अब बहू के पास है।

(अब बच्चे की छुट्टी की घण्टी बजने वाली है। रंग-बिरंगी तितलियां गेट के पास मंडराने लगी हैं। मैं भी गेट के पास खड़े होने की कोशिश में हूं।)

अलविदा दोस्त! कल फिर मिलेंगे! इसी समय! इसी जगह! स्कूल की छुट्टी के आधा घंटा पहले..!

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