पर्यावरण और इंसान – आरती झा आद्या 

अवनी जब भी मौका मिलता, कॉलेज की दो चार दिन की छुट्टियों में भी रानीखेत भाग कर आ जाती है.. बहुत लगाव था इस जगह से उसे। उसकी रूम मेट्स भी हँसती कि जहाँ छुट्टियों में हम घर जाने को या नई नई जगह देखने के लिए बेताब रहते हैं… वही ये मैडम रानीखेत जाने के लिए .. पूछो तो कहेंगी पहाड़ों की सरगम से निकली भोर की प्रभाती… पहाड़ों के ललाट पर चमकते सूरज से दोस्ती और पेड़ों के झुरमुट से निकलते शाम की संगीत सुनने.. मीत बनाने जाती हैं।

   अवनी के मम्मी पापा बंगलुरु में रहते हैं। पापा एक कंपनी के सीईओ हैं और मम्मी सामाजिक कार्य करती हैं.. जैसे अनाथ बच्चों के रहने.. पढ़ने – लिखने की व्यवस्था..ऐसे बुजुर्ग जिनके पास कोई ठिकाना नहीं है.. उनकी व्यवस्था.. ऐसा नहीं है कि ये सब करते हुए अवनी पर ध्यान नहीं देती हैं.. बेटी के प्रति भी पूरी तरह समर्पित रही हैं इसीलिए तो बेटी आज आईआईटी दिल्ली की छात्रा है और अवनी के लिए उसकी मम्मी का सामाजिक कार्य हमेशा गर्व का विषय रहा है। 

  आज फिर से वो रानीखेत जा रही थी। वैसे भी जब से कोरोना ने दस्तक दिया है , जा नहीं सकी थी। पर इस बार पूरी तरह लाॅकडाउन नहीं होने के कारण जाने का मन बना लिया उसने और सबसे पहले कोरोना टेस्ट कराया अवनी ने और कैब के लिए जिस एजेंसी से संपर्क किया.. उन्हें भी ड्राइवर के कोरोना टेस्ट रिपोर्ट के लिए कहा।

  यूँ तो रहने के लिए तो कई जगह थे, पर एक काॅटेज था बारह साल के शिवा का, जो उसका पसंदीदा था। वहाँ से बैठे बैठे प्रकृति का हर नज़ारा नजर आता था। बादलों की अठखेलियाँ.. बादलों का रोमांटिक अंदाज में पल पल बदलता स्वरुप रोमांचित कर देता था…. शुक्र था काॅटेज खाली था.. शिवा खुश हो गया था कि दीदी आ रही हैं.. अब तो कोई दुगुने पैसे दे भी तो किसी और को रहने नहीं दे सकता है.. दीदी की तरह ही मानता है अवनी को और शिवा के माता पिता भी बहुत कद्र करते हैं अवनी की। अवनी से किराया भी नहीं लेना चाहते लेकिन कमाई का एक यही जरिया था उनका ..खुद से कभी किराया नहीं बताते हैं.. जो अवनी दे देती है रख लेते हैं… अवनी भी किराया से कुछ ज्यादा ही देकर आती है। 

   अवनी ने सबके लिए शॉपिंग की थी.. शिवा के लिए.. उसके माता – पिता के लिए।  उसने कैब बुक किया था जाने के लिए। सुबह के आठ बज रहे थे और कैब भी आ गई थी। अपनी रूम मेट्स को बाई करती हुई नीचे आती है और अनुमान लगाती है, सही से चले तो शाम के चार पांच बजे तक रानीखेत पहुँच जाएगी। इस माहौल में कहीं रुकना उचित नहीं था इसीलिए अवनी ने दो लोगों के लिए पर्याप्त मात्रा में पानी और खाना रख लिया था.. एक अपने लिए और दूसरा ड्राइवर का सोच कर।



   शाम छः बजे तक अवनी रानीखेत अपने काॅटेज पहुँच गई थी। अवनी को देखते ही शिवा आकर उसके गले लग गया… अवनी पेमेंट कर अंदर चली जाती है… चमचमाता हुआ काॅटेज देखकर और शिवा की माँ के हाथों की अदरक, इलायची वाली चाय पीकर ही उसकी सारी थकान दूर हो गई। रात के खाने में चावल के साथ कौफुली की इच्छा प्रकट करती है.. जो कि उत्तराखंड की प्रसिद्ध सब्जी है.. जिसे पालक और मेथी के पत्ते को जोड़कर मसाले और ग्रेवी के साथ बनाया जाता है। 

     आठ बजे तक रात का खाना निपटा कर सारे लोग बातें करने लगते हैं। मुख्य विषय तो कोरोना और दिल्ली में बिगड़ते हालात और पर्यटन स्थलों पर सैलानियों की कमी से बिगड़ती आर्थिक स्थिति थी। अवनी, शिवा और उसके माता पिता को उपहार निकाल कर देती है.. कुछ देर बात करके शिवा के माता पिता सोने चले जाते हैं… 

    अवनी शिवा से बातें करने लगती है… 

शिवा – (बाल सुलभ जिज्ञासा से)दीदी आपकी दिल्ली में हवा भी नहीं मिलती क्या? 

अवनी – नहीं ऐसा नहीं है… पर क्यूँ शिवा? 

शिवा – समाचार में भी दिखा रहे थे कि Oxygen नहीं होने से दिल्ली की स्थिति बिगड़ रही है और अभी आप लोग भी तो यही बातें कर रहे थे। 

अवनी – शिवा इस बीमारी में शरीर का Oxygen level.. जो कि कम से कम 94 होना चाहिए.. कम हो जाता है… जिसके लिए oxygen cylinder की जरूरत होती है.. Oxygen cylinder की कमी हो गई थी… 

शिवा – (आश्चर्य से) दिल्ली में पेड़ पौधे नहीं हैं क्या दीदी.. हमारे मास्टर साहब तो बताते हैं कि Oxygen पेड़ पौधों से मिलता है। 

अवनी – है.. पर बहुत कम…हमने स्वार्थवश अपनी तरक्की के लिए उनका विनाश कर दिया। 

शिवा – कैसे दीदी.. 

अवनी – पेड़ पौधे काटकर ऊँची-ऊँची इमारतें बनाई गई… फैक्ट्रियों की स्थापना की गई और उनकी सारी गंदगी नदियों में तिरोहित कर नदियों को भी गंदला कर दिया गया। फैक्ट्री से निकलने वाला धुआँ से हवा भी प्रदूषित हो कर साँस लेने लायक नहीं रह जाता है। 

शिवा आश्चर्य से अवनी की बात सुन रहा था… अभी तक रानीखेत से बाहर नहीं गया था.. जो भी देखा सुना था दूरदर्शन और किताबों के जरिए… 



शिवा – हाँ दीदी.. तभी शहर के लोग यहाँ आते हैं तो जगह जगह गंदगी फैला देते हैं.. जहाँ बैठते हैं वही प्लास्टिक, बोतल छोड़ देते हैं.. खाने की चीजों से भी तो कितनी गंदगी फैलाते हैं। अपने घर को शहर के लोग इतना ही गंदा रखते हैं क्या दीदी। 

अवनी -(गहरी साँस लेते हुए) नहीं शिवा… अपने घर को सब साफ़ और सुन्दर रखते हैं… 

शिवा -(कुछ सोचता हुआ) अच्छा.. फिर कहीं जाते ही ये आदत खत्म कैसे हो जाती है। 

शिवा – अच्छा दीदी.. शहर के स्कूल में पर्यावरण संरक्षण के बारे में नहीं पढ़ाया जाता क्या? 

अवनी – (मज़ाक में)..हाँ.. नहीं पढ़ाया जाता है.. 

शिवा, जो कि अवनी के मज़ाक को सही समझ लेता है.. गम्भीरता का आवरण ओढ़े बोलता है.. 

शिवा – दीदी मैं आपको बताता हूँ कि पर्यावरण संरक्षण नहीं करना कितना नुकसानदायक होता है… 

वायुमंडल का तापमान बढ़ना, ओजोन परत की हानि, भूक्षरण के कारण नए नए रोग हो सकते हैं.. प्रदुषित पानी से सिंचाई करने से मिट्टी की उर्वरता समाप्त हो जाती है.. उससे उगने वाले फसल, सब्जियों में पौष्टिकता नहीं रह जाती है और वो विषैला हो जाता है… उसे जब हम खाते हैं तो शरीर के अंदर जाकर हमारे खून को भी विषाक्त कर देता है और हमारी प्रतिरोधक क्षमता भी कमजोर होने लगती है। 

शिवा इतना कहकर अवनी को देखने लगता है.. 

अवनी – इतनी बातें कहाँ सीखी तुमने शिवा

शिवा-स्कूल में दीदी… 



और पता है दीदी मास्टर साहब कहते हैं… सबसे ज्यादा जरूरी है साफ़ पानी… गंदे पानी से सबसे ज्यादा बीमारियाँ होती है.. और इसके लिए जरूरी है नदियों को साफ़ रखना… पर्यावरण पर ही हमारा जीवन और भविष्य निर्भर करता है.. इसीलिए तो दीदी हम लोग अपने पहाड़ों को साफ़ रखना चाहते हैं.. 

अवनी – कितना समझदार हो गया है हमारा शिवा… 

शिवा सुनकर खुश हो जाता है और पूछता है… 

शिवा – पर्यावरण क्या होता है.. आपको पता है दीदी.. 

अवनी – नहीं.. मुझे तो नहीं पता.. 

शिवा – मैं बताऊँ क्या दीदी.. 

अवनी – हाँ.. हाँ.. बताओ

शिवा – वनस्पतियों, प्राणियों, मानव जाति और जितने भी सजीव जीव जंतु.. उनकी एक दूसरे पर निर्भरता.. परिवेश ही पर्यावरण कहलाता है और इनका संतुलन बिगड़ता है तो प्रकृति गुस्सा हो जाती है और प्राणियों का नाश करने लगती है.. इसीलिए हमें संतुलन बना कर रखना चाहिए…अपने साथ साथ पृथ्वी पर रहने वाले दूसरे जीवों की भी सुरक्षा करनी चाहिए… तभी हम पर्यावरण को सुरक्षित रख सकते हैं… 

शिवा अभी इतना बोल कर चुप ही हुआ था कि शिवा की माँ आ गई… क्यूँ रे..सारी बातें आज ही करेगा क्या.. आज सोएगा नहीं क्या.. चल सोने और दीदी को भी सोने दे.. सुबह बात कर लेना अब… तुम भी सो जाओ दीदी बोल कर शिवा की माँ शिवा को ले जाती है और अवनी भी लेट जाती है और खिड़की से छनकर आती चाँद की रौशनी में चाँद को देखने लगती है।

उसे अपना रूम याद आता है.. जहाँ से चाँद तो दिखता है लेकिन चाँद की धवलता नहीं दिखती है। अपने स्वार्थ से वशीभूत होकर हम खुद के लिए ही खाई खोद रहे हैं। इतना स्वार्थ लेकर जाने हम कौन सी उन्नति कर रहे हैं…

अवनी चाँद को देखते देखते अपने विचारों में खो जाती है, जो विचार शिवा ने उसके दिमाग में डाला था कि हम शहर वाले अपने घर को साफ़ और सुन्दर रख सकते हैं तो बाहर जाकर स्वच्छता क्यूँ भूल जाते हैं… इसी पर्यावरण में हम भी तो रहते हैं… फिर इसकी अवहेलना क्यूँ…इन सारे प्रश्नों को साथ लिए सोचते सोचते निरुत्तर हो अवनी नींद के आगोश मे चली गई।

 

#स्वार्थ 

आरती झा आद्या (स्वरचित व मौलिक) 

दिल्ली 

सर्वाधिकार सुरक्षित

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