नींव का पत्थर – नम्रता सरन”सोना

“अरे भाभी! घर का तो नक्शा ही बदल दिया, ऐसा लग ही नही रहा कि यह वही घर है, जहाँ मेरा जन्म हुआ, जहाँ मैं पली- बढ़ी, सब कुछ बदल गया। हाँ,  पर अच्छा किया आपने रिनोवेशन करवाकर” संस्कृति ने चारों तरफ नज़र घुमाते हुए कहा।

संयोगवश काफी समय के बाद संस्कृति मायके आई थी, पापा तो काफी समय पहले ही नही रहे थे। माँ का मोह मायके का चुंबक था और इसलिए माँ से मिलने आती रहती थी किंतु माँ के देहांत के बाद मायके से मोहभंग हो गया था। आज कई वर्षों बाद आई तो अपना घर उसे बिल्कुल पराया सा लग रहा था। हालांकि उसके आने से भाई और भाभी बहुत खुश थे । संस्कृति को समझ नही आ रहा था कि कैसे रिएक्ट करे। उसने सोचा कि चलो थोड़ा अपना शहर ही घूम आए, हालांकि घर आते समय उसे महसूस हो गया था कि शहर भी बदल चुका है।

“भाभी,  मैं आस पास घूम कर आती हूँ” संस्कृति ने कहा।

“हाँ, बताओ कहाँ चलना है, हम भी चलते हैं।”

“नही भाभी, मैं अकेले ही जाना चाहती हूँ।”

“ठीक है, बताईए क्या खाएंगी आप, मैं वही बनाकर रखूंगी आपके लिए।”

“भाभी कुछ भी बना लीजिए, ज़्यादा परेशान मत होईएगा।”

संस्कृति फ्लाईओवर पर खड़ी थी,  मेरा शहर , यह क्या हो गया, बड़े -बड़े मॉल्स, गगनचुंबी इमारतें, थ्री वे, फ़ोर वे रोड्स और चारों तरफ फ्लाईओवर का जाल बिछा हुआ है, जिस सड़क पर माँ के साथ बाज़ार जाती थी वह तो फ्लाईओवर के नीचे है, जिन रास्तों पर  दौड़ती फिरती थी ,वह सब गुम हो गए , हवा में भी वह ताज़गी, वह अपनेपन की महक , कहाँ गई? उफ् क्या यह मेरा शहर है? कुछ तो ऐसा मिले जो मुझे एहसास दे, कि हाँ यह मेरा ही शहर है।” सोचते हुए घबरा कर वह फ्लाईओवर की दीवार से टिक कर खड़ी होकर नीचे देखने लगी।


“बाई! मेरे हाथ की चाय नही पिओगी?”

अचानक किसी की आवाज़ ने उसे चौंका दिया, उसने ध्यान से नीचे देखा।

“अरे काकाजी … ” संस्कृति के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई। ये तो चाय वाले काकाजी थे, जहाँ कॉलेज जाते समय रोज़ चाय पिया करती थी।

वह वहाँ तक पहुंचने का रास्ता ढूंढते हुए अखिरकर पहुंच ही गयी।

“काकाजी, आपने पहचान लिया?”

संस्कृति ने उत्सुकता से पूछा।

“क्यों नही पहचानते बिटिया, कैसी हो?” काकाजी ने चाय बनाते हुए पूछा।

“अच्छी हूँ , लेकिन यहाँ आकर मन बहुत उदास हो गया था, सब बदल गया काकाजी।” उसने दुखी मन से कहा।

“बिटिया, परिवर्तन संसार का नियम है और बदलते समय के साथ खुशी -खुशी चलना हमारा धरम है, बिटिया ऊपरी बदलाव से विचलित क्यों होना? नींव का पत्थर तो वही है,मंदिर का कितना भी जीर्णोद्धार कर लो, भगवान तो वही है न”

काकाजी ने कहते हुए उसे चाय का प्याला पकड़ाया।

काकाजी की बातों ने संस्कृति को झकझोर कर रख दिया।

वह हल्के मन से घर लौट आई।

भाभी खाना लगा रही थी, संस्कृति ने देखा, माँ का मंदिर भी बदलकर नया हो गया था लेकिन लड्डू गोपाल की मूर्ति अभी भी  वही थी, जिसकी पूजा माँ करती थीं।

संस्कृति की आँखों से अश्रुधार बह निकली।

*नम्रता सरन”सोना”*

भोपाल मध्यप्रदेश

1 thought on “नींव का पत्थर – नम्रता सरन”सोना”

  1. कहानी कुछ और बढ़ाते, भाभी द्वारा माँ जैसा प्यार देना, ननद की पसंद की डिश बनाना और बिदाई तक का वर्णन भी कर देते तो सोने पर सुहागा हो जाता.
    बहुत ही उत्तम कहानी है आपकी.

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