केतकी ! ऊपर वाले स्टोर की सफ़ाई करवा देना किसी को कहकर कल ।
कल…. मैं आज खुद ही सफ़ाई कर दूँगी । कल सुबह तो अरुण आएगा भाभी ।
अच्छा….. हाँ…. दिमाग़ से ही निकल गया था । सचमुच बहुत मुश्किल रास्ता तय किया है तूने ।
हाँ भाभी, रास्ता तो कठिन था पर भगवान किसी न किसी को सहारे के रुप में भेज ही देता है । इतने बड़े ज़मींदार परिवार की बहू होकर भी आपने हमेशा मेरा साथ दिया, वक़्त- बेवक्त ज़रूरत पड़ने पर मेरे साथ खड़ी रही ।
चल, स्टोर की सफ़ाई कर दे वरना अम्मा तेरी और मेरी दोनों की अच्छी तरह से ख़बर लेंगी ।
स्टोर की साफ़ सफ़ाई करने के बाद केतकी ने नीचे आकर अम्मा के लिए गुड़ की चाय बनाई और खुद भी उनकी खटिया के पास अपना चाय का गिलास लेकर बैठ गई ।
अम्मा! चाय पीने के बाद पैरों पर तेल लगा दूँ क्या?
पहले तसल्ली से चाय पी ले , तू भी फिरकी बनी रहती है सुबह से शाम तक…. चाय के साथ रोटी भी खा ले ।
रोटी तो खा ली मैंने । अम्म्म, कल मेरा अरुण आएगा…. याद तो है ना ?
ना मुझे तो कुछ याद नहीं….. तेरा ही है अरुण…. हमारा तो कुछ लगता ही नहीं ।
अरे नहीं अम्मा…. नाराज़ क्यूँ होती हो ? मेरा मतलब वो नहीं था । हमारी दोनों माँ बेटे की ज़िंदगी तुम्हारी तो दी हुई है ।
चाय पीने के बाद केतकी ने अम्मा के पैरों में तेल की मालिश की और अपने कमरे में लौट आई । आज तो समय काटे नहीं कट रहा था । उसने अपने कमरों की खूब साफ़ सफ़ाई की और सोचने लगी —
ये मेरे कर्मों का ही तो नतीजा है जो भरे-पूरे घर का बेटा होने के बावजूद अरुण को अभावों का जीवन जीना पड़ा । अगर उस रात तबाही लाने वाला वो भूकंप ना आता तो आज मैं भी बड़ी हवेली की बहू कहलाई जाती पर न जाने क्या पाप किया था जो अपने बच्चे को लेकर यहाँ इस गाँव में नौकरानी जैसा जीवन गुज़ारना पड़ा था । कोई कितने भी जतन कर लें पर कर्मों का चक्र तो चलता ही रहता है और आदमी इस बात से बेख़बर होता है कि पल भर में उसकी दुनिया कैसे लुट जाती है ।
बैठी-बैठी केतकी सालों पहले की उन यादों में खो गई जब वह सोलह – सत्रह साल की अल्हड़ युवती थी । वह अपने गाँव के सरपंच की लाड़ली और पास के ही दूसरे गाँव के मुखिया की दुलारी बहू थी । उसकी ससुराल वाले आसपास के गाँवों में हवेली वाले के नाम से पहचाने जाते थे । शादी के साल भर बाद ही अरुण उसकी गोद में आ गया था । सास- ससुर की तो अपने बेटे- बहू और पोते में जान बसती थी । बेटा होने के बाद भी अक्सर केतकी अपने देवर- ननद के साथ खेलती – घूमती फिरती थी तो पूरी हवेली उसकी पायल के घुँघरुओं से गूँज उठती थी । कभी-कभी पड़ोसनें केतकी की सास से शिकायत करते हुए कहती थी——
सोमेश की माँ! बहू को इतनी छूट देनी ठीक नहीं होती , घरबार सँभालना सिखाओ । एक बच्चे की माँ बनकर भी ज़िम्मेदारी का कोई अहसास नहीं है केतकी को ….. तुम बच्चा सँभालती हो और ये देवर- ननद के साथ उछलती फिरती है ।
सीख जाएगी घरबार सँभालना भी …… हम- तुम भी तो सीख गए हैं । अभी उम्र ही क्या है मेरी केतकी की….. अरे बच्चे का क्या है , ब्याह के बाद तो बच्चे हो ही जाते हैं । भगवान की दया से घर में काम करने वालों की कमी नहीं, मैं पाल दूँगी अपने पोते को । केतकी दो- चार साल हँस- खेल लेंगी ।
सोचते- सोचते केतकी की आँखें छलछला उठी । उसने रोते- रोते खुद से ही कहा—
माँ जी ! उसके बाद दो महीने भी तुम्हारी केतकी नहीं हँस- खेल पाई ।
रोज़ की तरह उस डरावनी रात भी वह आराम से अपने बेटे के साथ सोई थी , बहुत गर्मी थी …. उसके पति सोमेश ने कहा था—
केतकी! मैं ऊपर छत पर सोने जा रहा हूँ….. तुम भी चलोगी क्या? यहाँ तो आज नींद नहीं आने वाली ।
पर अरुण रात में दो- चार बार तो दूध पीता ही है….. बार-बार दूध गरम करने के लिए आना-जाना मेरे बस में नहीं…. तुम जाओ । माँजी- बापूजी , केशव और नंदा सभी छत पर सोए है आज तो ….. गर्मी क्या …. आग निकल रही है धरती से …..
केतकी और उसका बेटा नीचे बरामदे में सो गए । रात में कुत्तों के भौंकने की आवाज़ से केतकी की जाग खुल गई थी पर अरुण को दूध पिलाकर सुलाने के बाद उसकी आँख भी लग गई थी । सुबह चार बजे जब आँख खुली तो चारों तरफ़ हाहाकार मचा था । केतकी आँख फाड़े अरुण को छाती से लगाए धरती पर पड़ी थी । उनकी हवेली मलबे के ढेर में बदल चुकी थी । आसपास के सभी गाँवों में केवल केतकी, अरुण और मायके की तरफ़ पड़ोस के घीसा काका बचे थे । केतकी तो पत्थर की मूर्ति बन गई थी….. ना तो आँसू निकलते थे और ना ही मुँह से शब्द…. सरकार की तरफ़ से उन तीनों को तंबू में रहने भेज दिया । एक दिन घीसा काका केतकी से बोले—-
केतकी बिटिया, यहाँ कब तक रहेंगे….. ना तो मायके में और ना तेरी ससुराल में कुछ बचा है …. भूकंप सब कुछ निगल गया था ।
एक दिन सहायता शिविर में किसी गाँव के ज़मींदार राशन बाँटने आए । उनके साथ उनकी पत्नी भी थी । पता नहीं कैसे …. पर घीसा काका ने चुपके से ज़मींदार साहब की पत्नी से कहा —-
हुज़ूर! मेरे गाँव के सरपंच की बेटी है ये ….. पता नहीं इसे कहाँ भेज दिया जाएगा? ना तो कोई पीहर में बचा और ना ही ससुराल में….. छोटा सा बच्चा है गोद में, कुछ करके इन दोनों को अपने साथ ले जाओ । ज़मींदार लोग हो ….. आपकी हवेली में जगह मिल जाए तो अभागन धक्के खाने से बच जाएगी ।
घीसा काका ने केतकी को भी समझाया—
बिटिया, बड़े भले लोग हैं…. जा इनके साथ चली जा । मैं बूढ़ा कितने दिन तेरा साथ निभाऊँगा? ज़मींदार साहब को बड़े अधिकारी जानते हैं…… इस दुनिया में अकेली औरत को लोग गीद्ध नज़र से देखते हैं….. बच्चा पालना मुश्किल होजाएगा …
केतकी घीसा काका की सभी बातें समझ गई क्योंकि तीन- चार हफ़्तों में ही अल्हड़ सी केतकी परिपक्व महिला बन चुकी थी ।
हुआ भी ऐसा ही….. ज़मींदार साहब के कहने पर अधिकारियों की अनुमति से वह ज़मींदार साहब की पत्नी के साथ उनकी हवेली में आ गई । उसी दिन हवेली के पीछे बने दो कमरे केतकी को रहने के लिए दे दिए । उन कमरों की ख़ास बात यह थी कि वे गलियारे के रास्ते हवेली से जुड़े थे हालाँकि कमरे पुराने और कच्चे थे पर केतकी और ज़मींदार साहब की पत्नी को वही स्थान सबसे सुरक्षित लगा था । उनका सोचना था कि बड़े ज़मींदार साहब तो केतकी को बेटी बनाकर लाएँ है पर घर के दूसरे मर्दों की ज़िम्मेदारी कैसे लें ?
ज़मींदार साहब के बेटे की बहू ने दो चार बार उन कच्चे कमरों को छोड़कर दूसरे कमरों में रहने के लिए कहा भी पर केतकी ने हमेशा मना कर दिया—-
ना भाभी ! कमरे कच्चे ही सही पर अम्मा के कमरे के पास हैं और फिर पूरा दिन हम दोनों माँ बेटा उधर ही तो रहते हैं …. सोने में क्या कच्चे और क्या पक्के ?
बस वो दिन सो आज ….. केतकी ज़मींदार साहब की बेटी बनकर वहाँ रहने लगी । ज़मींदार साहब के बेटे ने हमेशा उसे बहन की इज्जत दी । केतकी ने ज़मींदार साहब से केवल एक ही प्रार्थना की थी—
बाबा , अपनी बेटी पर केवल इतनी दया करना कि मेरे बेटे की पढ़ाई पर खर्च कर देना । मैं जी-तोड़ मेहनत करूँगी … पाई-पाई चुका दूँगी क्योंकि मैं नहीं चाहती कि मेरी तरह अनपढ़ रहकर यह भी समय के हाथों मजबूर हो जाए ….. ख़राब समय का किसे पता होता है?
ज़मींदार साहब और उनके बेटे ने अपने बच्चों की तरह ही अरुण की पढ़ाई का ख़्याल रखा और उसकी इच्छानुसार लॉ कॉलेज में दाख़िला दिलवा दिया था । पढ़ने में होशियार और माँ की प्रेरणा से आज अरुण उस मुक़ाम पर आ गया था जहाँ का सपना केतकी ने अपने बेटे के लिए देखा था ।
ख़्यालों में खोई केतकी की कब आँखें लग गई, उसे पता ही नहीं चला । जब सुबह आँख खुली तो एक नया सवेरा नई ज़िंदगी का प्रकाश लेकर आया था । वह जल्दी से नहाई- धोई और दीपक जलाने के बाद अम्मा के पास पहुँच गई ।
वहाँ जाकर देखा कि अरुण तो अम्मा के पास बैठा बातें कर रहा है । बेटे को देखकर केतकी का चेहरा खिल उठा —
अरे ….. तू पहुँच भी गया और माँ को खबर भी नहीं…. नानी के साथ बतिया रहा है ।
हाँ माँ…. नानी ने ही तो एक बेसहारा माँ बेटे को आश्रय दिया था वरना पता नहीं हमारा क्या होता । माँ को देखकर खड़े होते हुए अरुण ने कहा ।
बेटे की बातें सुनकर केतकी का मन खिल गया । उसने मन ही मन भगवान का शुक्रिया अदा करते हुए कहा—
तपस्या तो बहुत कठिन थी पर ईश्वर ! तुमने बेटे के रुप में एक अच्छा इंसान देकर मेरी सारी शिकायत दूर कर दी ।
नानी….. दो चार दिन में माँ को लेकर चला जाऊँगा । कुछ समय एक बड़े वकील के साथ काम करूँगा। आपका ऋण तो कभी चुकाया नहीं जा सकता …..
चुप कर , बड़ा आया ऋण की बातें करने वाला …. मेरे जीते जी केतकी कहीं नहीं जाएगी । तू जा … नौकरी कर , हम सबसे मिलने आता रह । ये खून के नहीं मन के रिश्ते हैं बेटा ! जीते जी ना छूटेंगे । जा माँ के साथ जा …. केतकी ! रसोई में कह जा अपनी भाभी को …. अपना और अरुण का नाश्ता उधर ही मँगवा ले आज । और हाँ, अरुण की पसंद के बेसन के लड्डू बना लेना ….. लेता जाएगा अपने साथ ।
अम्मा की बात सुनकर केतकी उठी और अरुण के साथ चल पड़ी …. आज उसे पहले से भी कहीं अधिक सम्मान इस घर से मिला था । सचमुच मन के रिश्ते खून के रिश्तों से गहरे होते हैं ।
करुणा मलिक