आज सुकन्या दीवाली की सफाई कर रही थी, सीढ़ी पर चढ़कर ऊपर की अलमारी के किवाड़ खोले। एक चरर्रर्रर सी आवाज़ हुई, क्योंकि ये अलमारी सिर्फ दीवाली के एक हफ्ते पहले ही खुलती थी। तभी एक लकड़ी का बक्सा दिखा, जिसमे सिर्फ उंसकी ही यादें थी, जिसमे सिर्फ उसके अपने थे, जिनका वो बहुत आदर सम्मान करती थी।
उन अपनो के लिये कोई कभी अपशब्द न कहे, इसलिये उसने सबकी नजरों से ओझल कर रखा था। कहीं मन की कोठरी में एक डर बैठा था, जिससे वो बचपन से भयभीत थी।
वो डर फिर अपना सिर उठाने लगा, और उसने उठकर दरवाजा बंद किया। डूब गई अतीत में…
त्योहार में गांव से पापा, 7 वर्षीय सुकन्या को ताईजी के पास एक महीने को छोड़ जाते। दादी, हमेशा प्यारी सी ताईजी को चौबीसों घंटे काम मे बैलों के जैसे जोते रहती, और ताईजी कभी सिलबट्टे पर मसाले पिसती रहती, कभी खल से चने का सत्तू बनाती, कभी गेहूं, बाजरा गोल चक्की में घुमाती रहती। किसी काम के लिए वो मना नहीं करती। सिर्फ दोपहर को सुकन्या के पास जब बैठती तो अपनी अम्मा, बाबूजी की खूब प्यारी कहांनी सुनाती, बताती बचपन मे अम्मा मुझे परी कहती थी, देखना कोई राजकुमार आएगा लेने, और तू रानी बनेगी। ऐसी ही प्यारी बातें जब भी दादी के कानों में पड़ती, वो सारे दिन ताईजी को सुनाते रहती, ई कौन कहांनी है, जो पुरखे बन गये, मर खप गये कब से, उनको याद करती हो, भूल जाओ, जो सामने है उनके लिए कुछ करो, अब मायके से क्या लेना देना रह गया, रोटी तो यही की खानी है, और ताईजी उस दिन पूरे दिन गुनगुनाती, अम्मा मेरे बाबा को भेजो री…
मुझे बोलती बेटा, “अपने तो अपने होते है, और हज़ार रिश्ते बन जाये, अम्मा, बाबूजी जैसा रिश्ता कोई नही होता, कैसे कोई भूल जाये, मैने सिर्फ उनसे ही प्यार पाया।”
तब से सुकन्या इतना डर गई कि ससुराल आकर किसी से अपनी मम्मी, पापा की बाते नही करी, मम्मी की कुछ पहले के चार, पांच प्यारे से पत्र और फ़ोटो छुपाकर बक्से में अलमारी में बंद रखती और दीवाली के पहले ही उसे भरपूर आंखों से देखकर जल्दी से रख देती, दिल के कोने में एक कोना मायका का हमेशा रहता और ताईजी को यादकर वो भी गुनगुनाती, अम्मा, मेरे बाबा को भेजो री…
#अपने_तो_अपने_होते_हैं
स्वरचित
भगवती सक्सेना गौड़
बैंगलोर