वर्षों बाद दहलीज के भीतर कदम रखते ही रेखा ने देखा सब अनमने से थे।ऐसा नहीं कि चाय नाश्ता ,खाना नहीं कराया सब कराया पर पहले जैसा उसके पहुंचने पर लोगों में उत्साह ,जोश और अपनापन नहीं मिला। खैर कोई नहीं, वक्त हमेशा एक सा नहीं रहता,जब लोग बदलते है तो बात व्यवहार रहने सहन ,मान सम्मान में थोड़ा अंतर तो आ ही जाता है।
अब कहां पहले जैसा प्यार सम्मान और अपनापन मिलेगा , बाबा तो रहे नहीं मां बेटे बहू के आश्रित है हां बेटे बहू – इसलिए कि अवलाद के नाम पर बेटी तो दो है पर बेटा एक ही है।
इसी बात का तो कष्ट है उन्हें कि अच्छा है या बुरा उसी के साथ रहना है क्योंकि लड़कियों के घर रह नहीं सकती और पोरुख अब घटने लगा है।
सही भी है पति की पेंशन है अपना घर है घर में एक कमरा और कमरे से लगा गुसलखाने उनका अपना है पूजाघर ही उनका कमरा है एक तरह से कह सकते हैं कि वो पुजारिन भी है।
वहीं एक कमरे में भाव भजन करते अपनी छोटी सी दुनिया में पड़ी रहती है।
अपनों का कहना है कि तुम हर चीज से मुक्त हो गई हो तो तुमसे किसी चीज से क्या लेना देना।
कौन क्या करता है ,कैसे रहता है कहां जाता है,जैसे चीजों से तुम्हारा कोई लेना देना नहीं।
और हां अब जरा लड़कियों से भी कम बतिआया करो।
उन सबका कहना है कि सब घर के अपने अपने तरीके होते हैं रहने के फिर तुम हर बात उन सबको बताती है आखिर क्यों?
कोई जरूरत नहीं अब सबकी शादी हो गई।
सब कि अपनी अपनी गृहस्थी है अपने अपने में बिजी है तो अपने घर कि बात अपने तक रखो।
ये सब बातें पहले तो मां को परेशान की पर चुंकि उन्हीं के बीच रहना है तो खुद को समझा लिया।
और बातें तो करतीं हैं पर पहले जैसी नहीं बल्कि उन्हीं का हाल चाल पूछकर रख देती।
करें भी क्या भाई उन्हें इन्हीं के बीच रहना जो है। घर जो है कहीं जा जो नहीं सकती।
जबकि खुद भी संतुष्ट नहीं रहती न उन्हें मान सम्मान मिलता है न कोई उनसे मतलब रखता है और तो और खाना भी वो अपना खुद बनाके खाती है ,यहां तक कि वो ये भी कहती पाई गई कि इस घर के लिए ये बोझ है।
जबकि कई महीने कि पेंशन जब इकट्ठा हो जाती है तो सुनने में आया कि बेटा बच्चों के नाम फिक्स कर देता है।
पर कौन बोले किसी से क्या मतलब।
अब तो कोई बात मां बताती भी नहीं है।
बल्कि जिस माहौल में रहने के लिए उसे कहा गया उसी में ढल कर वो खुश रहती है। आज उसे देखकर ये सोचने पर मजबूर हैं सच अपमान क्या होता है उस औरत से कोई पूछे जिसका कि बचपन वक्त बाप-भाई के बीच बीता हो जवानी सिरफिरे नशेड़ी पति
पति के साथ बीता हो और वयस्क जीवन बच्चों की परवरिश में बिता दिया हो और बुढ़ापा उनकी शादी के बाद उनके परिवार वालों के साथ समझौता करके गुजर रहा हो ये सोचकर कि लोग उसे ही बदनाम करेंगे कि बहू से नहीं बनती तो कमी इसी में है बस यही सोच एक कमरे को ही सब कुछ मानकर उसी में सिमट के रह जाती है।
उफ़!
सचमुच आज के अनमने भाव को देखकर लगा कि हां वर्षों बाद बहुत कुछ बदल गया।
ये एक ऐसा अपमान था।जिसमें शब्द नहीं थे पर भाव ऐसे थे जो भीतर तक भेद गए।
और मन ही मन मां से उसके जीवन रहने तक फोन से ही बात करने का वादा कर ,” क्योंकि उसकी खामोशी बहुत कुछ कह रही थी पर चुप थी” । कभी ना आने का संकल्प लिया।
क्योंकि ये अपमान पीढ़ियों और सोचों का था ।
जिसे उसने महसूस किया।
अपने घर वापस चली आई।
स्वरचित
कंचन श्रीवास्तव आरज़ू