झूठा अहम् – शिव कुमारी शुक्ला

आज सुबह सुबह ही परेश और निशा में फिर खट-पट हो गई।यह खट-पट उनके जीवन का आवश्यक अंग बन गई थी और परेश का पूर्ण प्यार पाने के वावजूद भी समय असमय आने वाले तूफानों ने निशा को तोड़कर रख दिया था।

निशा आज तक परेश को अपनी मानसिक स्थिति नहीं समझा सकी थी। उनकी शादी को छः बर्ष हो गये थे, एक आठ माह की प्यारी सी बेटी भी थी किन्तु निशा अभी भी खुलकर अपने मन की बात परेश से नहीं कर पाती। उसके पास केवल आंसू के घूंट पीकर रह जाने सिवा और कोई चारा नहीं था।

परेश ने टब उठाया और नल के नीचे लगाने जा ही रहा था कि निशा ने टोक दिया -सुनीए उसे गीला मत कीजिए इसमें अभी बाई से आटा छनवाना है यह बाल्टी भरी है इसे ले लीजिए।

नहीं मुझे पानी कम पड़ेगा।

उस समय हैण्ड पम्प से पानी निकालना होता था क्योंकि नल नहीं थे।

पर यहां दो बाल्टी पानी रखा है निशा ने कहा।

नहीं कहते -कहते परेश का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। निशा द्वरा टोके जाने पर उसे अपना अपमान प्रतीत हुआ।

पत्नी इस तरह किसी काम के लिए टोक दे यह उसका पुरुषत्व स्वीकारने नहीं देता। उसके इसी झूठे अहम् ने घर में तनाव की स्थिति उत्पन्न कर दी। निशा की आंखों में आंसू छलछला आए फिर तकरार बढ़ने के डर से अपने उमड़ आए आंसुओं को रोकने का भरसक प्रयास कर रही थी। किन्तु पति के अकारण क्रोध के कारण उसका मन विद्रोह कर उठा।वह बार-बार सोचती मैंने कहा ही क्या था।वह भी बड़बड़ाने लगी और परेश उसी बात को लेकर उससे उलझ पडाऔर बार-बार यह  सिद्ध करने की कोशिश करने लगा कि सारी गल्ती निशा की ही थी। वह तो ऑफिस चला गया किन्तु निशा के मन में एक उमड़ता तूफान छोड़ गया।

वह सोच नहीं पा रही थी कि वह किस तरह अपने को शांत रखे एक दिन हो तो ना हमेशा ही ऐसा होता है।हर ऐसे तूफान के बाद परेश ने आज तक कभी अपने को दोषी नहीं माना निशा को ही प्रत्येक स्थिति के लिए जिम्मेदार ठहराता है।

निशा की विचार श्रृंखला में एक कड़ी और जुड़ी अभी कुछ ही दिनों की तो बात है शहर में बावर्ची पिक्चर लगी थी। उसे परेश की अपेक्षा पिक्चर देखने का ज्यादा शौक है फिर भी शायद ही कभी दो-चार महीनों में एक से अधिक पिक्चर देखती हो

क्योंकि घर गृहस्थी एवं नौकरी के बाद समय ही नहीं मिलता।इस दोहरे दायित्व को निभाने के बाद शाम तक वह थक कर चूर हो जाती और कहीं भी आने -जाने का मन नहीं करता। पास-पड़ोस में या किसी सहेली के यहां जाकर इस -उसकी बुराई करने के बदले अपनी मानसिक भूख को उपन्यास या

पत्रिकाएं पढ़कर घर पर ही शांत करने का प्रयत्न करती या फिर कभी पिक्चर देखना दो ही तो उसके मनोरंजन के साधन थे किन्तु परेश को इन दोनों ही चीज़ों से सख्त नफरत थी , उसे तो बस दोस्तों मैं गपशप लगाने में मजा आता ।

उन्होंने पिक्चर जाने के लिए सीढ़ियों से कदम नीचे रखा ही था कि निशा की सहेली दरवाजे पर ही मिल गई। वे लोग वापस ऊपर लौट आए। दूसरे दिन निशा तो पिक्चर देखने की धुन में समय पर तैयार हो गई किन्तु परेश भूल गया कि उन्हें पिक्चर जाना है।

वह साढ़े चार बजे ही घर से निकल गया। निशा ने भी जाते समय नहीं टोका क्योंकि वह सोच रही थी कि परेश समय पर आ जाएगा।किन्तु वह आया सात बजे जब तक पिक्चर शुरू हुए एक घंटा हो चुका था। पिंकी जो तैयार हो गई थी

बराबर  बाहर चलने की जिद कर रही थी। निशा ने उसे समझाया अभी थोड़ी देर बाद चलेंगे दूसरे शो में वह इस तरह बोली कि पास में बैठा परेश सुन ले और शायद उससे सैकेंड शो में चलने को कहे किन्तु वह चुप बैठा रहा। आखिर निशा ने ही कहा चल रहे हो क्या पिक्चर ।

क्या अब रात को। सेकेंड शो में, मैं नहीं चल सकता। मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है कि सारी रात खराब की जाए। एक डेढ़ बजे घर आओ ना तो सो सको और सारी रात बेकार जाए कहते परेश को गुस्सा आ गया।

निशा अपने भर्राये स्वर को भरसक संयत रखने का प्रयत्न कर हंसते हुए बोली साढ़े बारह तक तो आ जाएंगे वैसे भी तो तुम ग्यारह सवा ग्यारह तक तो घूम कर आते हो यदि एक दिन थोड़ा और जाग लेंगे तो क्या हो जाएगा।

परेश-नहीं मुझे पिक्चर देखने का इतना शौक नहीं कि आज ही जरुर जाएं और यदि बदल जाएगा तो दूसरी देख लेंगे। जरुरी नहीं कि यही पिक्चर देखी जाए।

निशा का मन बुझ गया। परेश का एक एक एक शब्द उसके ह्रदय पर हथौड़े की तरह लगे। उसकी समझ में परेश के अकारण क्रोधित होने का कारण समझ में नहीं आया। आखिर उसने सेकेंड शो में चलने की बात कहकर क्या अपराध कर दिया।

उसने परेश से चलने के लिए केवल पूछा ही तो था। उसे चलने के लिए बाध्य तो नहीं किया था।वह हंसकर भी मना कर सकता था इतनी बातें सुनाने  की कहां आवश्यकता थी।परेश ने उसकी इच्छा को जरा भी समझने का प्रयास नहीं किया। जिसने जबसे पिक्चर रिलीज हुई हो तब  से देखने का निश्चय कर रखा हो उससे यह कहना यह नहीं दूसरी देख लेंगे जबकि कोई विशेष परेशानी नहीं थी।

नहीं तो वह स्वयं ही क्यों कहती। क्या जीवन में चेंज नहीं होना चाहिए। हमेशा ही छः से नौ देखते हैं अगर एक बार नौ से बारह देख लेते तो क्या हो जाता । जबकि परेश को स्वयं पहले सेकेंड शो ही देखना पसंद था किन्तु आज उसके कहने पर इतना क्यों विफर गया ।

करीब एक सप्ताह बाद दूसरी पिक्चर लगी धड़कन। परेश स्वयं बोला चलो निशा आज पिक्चर चलोगी।

निशा आज तो बरसात हो रही है  ।

परेश तब तक शायद पानी गिरना बंद हो जाएऔर बाजार को चल दिया।

निशा ने कोई जवाब नहीं दिया।वह सोच रही थी कि कि उस दिन कितनी बेरहमी से परेश ने उसकी इच्छा को कुचल दिया था और इसलिए उसने तब से उससे पिक्चर चलने को नहीं कहा और आज परेश ने कहा भी तो कितने रुखेपन से मात्र औपचारिकता निभाने जैसा।ना तो कोई प्यार भरा आग्रह और ना ही चलने की जबरदस्ती।वह सोच रही थी

कि शायद बाजार से लौट कर आने के बाद परेश उससे जरूर कहेगा निशा अभी तक तैयार नहीं हुईं।वह सोच रही थी कि परेश उससे जरूर कहेगा निशा क्या बात है जल्दी करो रूठी क्यों हो और बस वह सबकुछ भूलकर पति की इस मनुहार में अपने को समर्पित कर देगी।बस इस प्यार भरे वाक्य को सुनने का ही तो उसे इंतजार था।

किन्तु परेश के लिए  यह एक मान-सम्मान का प्रश्न था। उसके पुरूषत्व को यह एक चुनौती थी कि उसने कहा और निशा एक बार में ही तैयार क्यों नहीं हुई। दुबारा चलने को कहना वह अपने पुरुषत्व की हार मानता था और उसका यही दम्भ पारिवारिक शांति को नष्ट करने के लिए उत्तरदाई था।

जहां निशा व्यस्त जीवन में इस तरह की मान-मनौव्वल को जीवन की एक रसता से हटने के लिए आवश्यक मानती थी वहीं परेश के लिए इन बातों का कोई महत्व नहीं था। पत्नी द्वारा खुद अपनी मान-मनौव्वल करवाना जितना उसे सुखद लगता था किन्तु वह भूल कर भी नहीं सोचता कि शायद कभी रूठी हुई पत्नी भी अपने पति द्वारा मनाने पर ऐसी ही सुखद अनुभूति के लिए तड़पती होगी।

उसके लौटने पर निशा ने अपनी सोच के विपरित परेश को चुप देखा।वह आते ही रेडियो खोलकर न्यूज सुनने लगा और इधर -उधर की बातें करने लगा। फिर बोला मैं हरा धनियां और मिर्च लाया हूं क्यों न मौसम के अनुसार चाय पकौड़ी हो जाये।

उसके इस व्यवहार से निशा का मन क्षुब्ध हो उठा।वह उखड़े मन से उससे बातें करती रही और पकौड़ी बनाने की तैयारी करने लगी।आज अपनी इस अवहेलना पर उसका नारित्व सिसक उठा।जिस घर को सम्हालने के लिए वह रात -दिन एक कर रही है। हमेशा कामों में खटती रहती है परेश की छोटी-छोटी इच्छाओं को भी पूरा करना अपना कर्तव्य समझती है

उस घर में उसकी इच्छा का कितना सम्मान है।उसका पति उसकी इच्छाओं का कितना ख्याल रखता है। उसे अपने पुरुषत्व का कितना झूठा अहम्  है कि पत्नी को प्यार से एक बार मनाना अपने मान-सम्मान का प्रश्न बना लिया। हमेशा ही निशा को झुकना पड़ता है।अपना दोष ना होते हुए भी उसे ही परेश को मनाना पड़ता है।

इस स्थिति ने निशा को जीवन के प्रति विरक्त कर दिया।घुटते- घुटते उसकी तबीयत खराब रहने लगी।कभी सिर दर्द, कभी चक्कर, कभी बुखार। धीरे -धीरे कमजोरी के कारण उसका मानसिक संतुलन बिगड़ता गया। छोटी-छोटी बातों पर भी बहुत क्रोध आता था और उसका दिल तेजी से धड़कने लगता।

अजीब सी घबराहट महसूस होती।ऐसी हालत में लगता वह जी भरकर रो ले ताकि उसके मनका गुबार निकल जाए या कोई उसे प्यार से सांत्वना देकर उसके दिल के दर्द को कम करे। किन्तु वहां कौन था जो यह करता ऐसे में उसे अपनी मां की बहुत याद आती। परेश तो इसे ढोंग समझता उसे

आंसुओं से सख्त नफरत थी सो वह रो भी नहीं सकती थी । पत्र लिख कर अपने माता-पिता को भी यह सब बता उन्हें दुखी नहीं करना चाहती थी क्योंकि उनके ऊपर छोटे भाई -बहन की जिम्मेदारी थी। उनकी समस्याएं थीं उनसे ही परेशान थे और वह अपनी परेशानी बता उनकी परेशानी बढ़ाना नहीं चाहती थी।

कुछ दिन सामान्य रूप से गुजरे। निशा और परेश दिल से एक दूसरे को बहुत चाहते थे उनके बीच कोई दरार नहीं थी किन्तु परेश का अहम् हमेशा तूफान खड़ा कर देता था। निशा को हमेशा उसके जीवन में फिसलते ये प्यार भरे दिन आशा और निराशा के दोराहे में सहारा देते थे।

निशा ने अपनी बेटी नमिता की ग्रुप फोटो में से एक फोटो इन लार्ज करवाया। उसे फ्रेम में लगवाने के लिए परेश से  कई बार कह चुकी थी।वह हर बार हां कह देता किन्तु लेकर नहीं जाता। आखिर हारकर निशा ने पड़ोस के एक बच्चे को दुकान पर भेज कर फोटो के बारे में पूछताछ करवाई। बच्चा छोटा था ठीक से जानकारी प्राप्त ना कर सका।वह निशा को बता रहा था आंटी जी दुकान वाला कह रहा था छोटा कांच लगेगा और इतनी छोटी बनेगी।

परेश अंदर लेटा हुआ सब सुन रहा था उसे एकाएक क्रोध आ गया बोला कैसी बनवा रही हो सब खराब करवाना है क्या।वह माउंट लगा रहा है या नहीं।

निशा बोली मैं माउंट लगवाने की कहना भूल गई थी और बच्चे के हाथ से तस्वीर लेते हुए बोली फिर आप करवा लेना और बच्चे को वहां से भेज दिया ताकि उसके सामने कोई ओर बात ना हो। किन्तु परेश ने सोचा उसके कहने के कारण निशा ने फोटो वापस ली है ।

वह कहने लगा नहीं उसी के साथ भेज दो करवा लो जैसी भी करवाना है।

निशा ने फिर भी स्थिति को सम्हालते हुए कहा नाराज़ क्यों हो रहे हो वह ठीक से नहीं करा पाएगा , खुद ही करा लाना।

नहीं, मैं तो तुम्हारा कोई काम करता ही नहीं। 

निशा मैं यह कहां कह रही हूं। करते तो हो किन्तु समय पर नहीं मैं छः महिने से कह रही हूं किन्तु तुम कहां सुन रहे हो ।

यह सुनते ही परेश गुस्से से बौखला गया मैं तो कभी कुछ नहीं करता बाहर के लोग आकर तुम्हारा काम कर जाते हैं।

निशा मैं यह नहीं कह रही कि तुम****पूरी बात ही नहीं कह सकी।

नहीं मुझे अब कुछ नहीं सुनना, जो तुम्हारे मन में आए करो।

निशा और आगे ना सुन सकी। उसके ह्रदय में अपनी इस विवशतापर एक हूक सी उठी और उसकी आंखों के आगे अंधेरा छा गया। उसने वहां से उठने की कोशिश की किन्तु वहीं फर्श पर गिर पड़ी। परेश पहले तो यही समझता रहा कि वह लेटी है किन्तु जब पिंकी के बार-बार मम्मी -मम्मी कहने पर भी उसके शरीर में कोई हरकत नहीं हुई तो वह उठा किन्तु घबरा गया निशा बेहोश पड़ी थी। उसके उसे होश में लाने के सारे प्रयत्न असफल रहे।

डाक्टर का घर पास ही था सो वह भाग कर बुलाने गया और डाक्टर ने आकर निरीक्षण कर बोला गहरे मानसिक आघात के कारण यह स्थिति हुईं है। इंजेक्शन दे रहा हूं रात तक होश आ जाएगा।दवा से ज्यादा इन्हें मानसिक शांति की जरूरत है।

आज परेश को पछतावा हो रहा था क्रोध में वह क्या नहीं बोल जाता ।वह निशा का चेहरा आंसुओं से धो रहा था और मन-ही-मन उसके जीवन की दुआएं मांग रहा था। आज उसे अपने झूठे पुरूषत्व के दंभ से नफ़रत हो गई थी और निशा की मजबूरी समझने का प्रयास कर रहा था।

वह सोच रहा था कि मैं कितना मानसिक दबाव निशा पर बनाकर रखता हूं।आज मैंने निशा के सम्मान पर कितना बड़ा लांछन लगाया। निशा जो उस पर जान छिड़कती है। उसकी छोटी छोटी जरुरतों का भी  कितना ध्यान रखती है

जो उसपर अपना सर्वस्व न्यौछावर करती है उसीके  कारण आज उसके प्राणों पर बन आई।आज वह स्वयं को कितना अपमानित महसूस कर रहा था।वह एक हारे हुए जुआरी  की भांति मौन ,निश्चल बैठ निशा के होश में आने की प्रतीक्षा कर रहा था।

शिव कुमारी शुक्ला 

जोधपुर राजस्थान 

26-9-25

स्व रचित एवं अप्रकाशित 

विषय****लेखिका बोनस प्रोग्राम 

कहानी***सप्तम कहानी 

दोस्तों यह कहानी मैंने आज से छप्पन बर्ष पूर्व लिखी थी उस समय की सामाजिक परिस्थितियां आज से काफी भिन्न थीं।उस समय नलों की,लाइट की सुविधा हर कस्बे में उपलब्ध नहीं थी। कुछ शब्द जो उस समय बोलने के चलन में थे वे आज नहीं है ।आज के अधीकांश पाठक नई पीढ़ी के है जिन्होंने उन परिस्थितियों को नहीं देखा है सो उन्हें समझने का  प्रयास करें।

यह एक ऐसे दंपति की मनोदशा को दर्शाती कहानी है जिसमें दोनों के स्वभाव में अंतर है पत्नी जहां अत्यंत भावुक संवेदनशील है वहीं पति एक टिपिकल भारतीय पति है जैसे कि उस जमाने में हुआ करते थे तानाशाह पत्नी को बोलने का कोई हक नहीं ।वह कोई फैसला नहीं ले सकती। इन्हीं मनोदशाओं को मद्देनजर रख इस कहानी का ताना-बाना बुना गया है। आशा है पाठकों को पसन्द आएगी।

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