ग्रहण – विभा गुप्ता

      ” धरा! तू ये क्या अनर्थ करने जा रही थी..इतनी समझदार होकर भी..।” कहते हुए शेखर ने अपनी बहन के हाथ से रस्सी छीन कर फेंक दी तो धरा उसके गले लगकर फूट-फूट कर रोने लगी,” भईया..मुझे मर जाने देते..इतना अपमान अब मुझसे सहा नहीं जाता..मेरी वजह से आपको,

माँ को लोगों की बातें सुननी पड़ रही है..मैं..।” उसका रुदन बढ़ता ही गया। शेखर ने उसके सिर पर अपना स्नेह-स्पर्श रखा और बोला,” जी भर कर रो ले लेकिन फिर कभी मरने की बात नहीं सोचना।

दुख की इस घड़ी का सामना हम सब मिलकर करेंगे..समाज में रहते हैं, इसलिए # कुछ तो लोग कहेंगे ही लेकिन तुम्हें उनकी बातों पर बिल्कुल भी कान नहीं देना है..चल, अब हँस दे..।”

           शेखर के पिता हरिकिशन जी का शहर के मेन मार्केट में अपना प्रोविज़नल स्टोर था।उनके सरल और विनम्र स्वभाव के कारण न सिर्फ़ उनके स्टाफ़ खुश रहते थे

बल्कि दुकान में भी हमेशा ग्राहकों की भीड़ लगी रहती थी।उनके चंद मित्र भी ऐसे थे जो मुसीबत के समय उनके साथ हमेशा खड़े रहते थें।उनकी पत्नी सुमित्रा एक कुशल गृहिणी थी जो अपने घर और बच्चों को भली-भांति संभाल रही थी।

       वैसे तो धरा शेखर से चार साल छोटी थी लेकिन रक्षाबंधन के दिन अपनी पसंद की चीज़ें लेने के लिये वो शेखर से ऐसे ज़िद करती जैसे कि वो अपने भाई से कुछ दिनों की ही छोटी हो।उन दोनों का प्यार देखकर हरिकिशन जी अक्सर अपनी पत्नी से कहते,” सुमित्रा..कल को मैं ना रहूँ

तो भी शेखर अपनी बहन की आँखों में कभी आँसू नहीं आने देगा।” तब सुमित्रा घबराकर उनके मुख पर अपना हाथ रख देती और कहतीं,” शुभ-शुभ बोलिए..अभी तो आप शेखर को इंजीनियरिंग की डिग्री लेते हुए देखेंगे और बेटी को भी अपने हाथों से ही विदा करेंगे..।” परन्तु कहने और होने में बहुत अंतर होता है।

        एक दिन हरिकिशन जी खुशी-खुशी घर से दुकान के लिए निकले।वहाँ पहुँचकर एक स्टाफ़ को चाय लाने को कहकर वो गल्ले का ताला खोल ही रहे थे कि अचानक सीने पर हाथ रखकर वो दर्द से कराह उठे।स्टाफ़ ने तुरन्त घर पर फ़ोन किया

और एंबुलेंस बुलाकर उन्हें लेकर हाॅस्पीटल गया जहाँ डाॅक्टर ने चेकअप करके बताया कि दिल का दौरा पड़ा है..बचना मुश्किल है।सुमित्रा बच्चों को लेकर भागी हुई हाॅस्पीटल आई।हरिकिशन जी शेखर के हाथ में पत्नी और बेटी का हाथ थमा कर इतना ही कह पाए,” संभा…ल..।” 

       शेखर इंजीनियरिंग काॅलेज़ में दाखिला के लिए फ़ाॅर्म लेकर आया था लेकिन अब तो..।अलमारी में अपनी किताबों को बंद करके उसने घर-दुकान की ज़िम्मेदारी संभाल ली।अब उसका एक ही सपना था कि धरा अपनी पढ़ाई पूरी कर ले और अच्छे घर में उसका ब्याह हो जाए।

       अच्छे अंकों से धरा ने बारहवीं पास की और उसने आर्ट्स काॅलेज़ में दाखिला ले लिया।इसी बीच सुमित्रा जी ने खाते-पीते घर की एक शिक्षित कन्या सुमन के साथ शेखर का विवाह कर दिया।

      अपनी भाभी के साथ धरा की खूब बनती थी।वो काॅलेज़ और अपनी सहेलियों की हर बात उनसे शेयर करती थी।वो पढ़ने में तो होशियार थी ही, उम्र के साथ उसके रूप में भी निखार आ गया था।फ़ाइनल ईयर का अविनाश रईस बाप का बिगड़ैल बेटा था जो दो साल से फ़ेल हो रहा था।

वो तो अपने लेक्चरर को परेशान करने और लड़कियों के साथ बद्तमीज़ी करने के लिए ही काॅलेज़ आता था।उसकी नज़र जब धरा पर पड़ी, तब वो आते-जाते उसकी राह रोकने लगा।

कुछ दिनों तक तो धरा ने उसे इग्नोर किया लेकिन जब उसने धरा को फूल दिया तब उसने प्रिंसिपल सर से शिकायत कर दी।सर के सामने तो उसने साॅरी कह दिया लेकिन अपनी हरकतों से बाज नहीं आया।

         एक दिन अविनाश सबके सामने धरा का हाथ पकड़कर बेहयाई-से हँसते हुए उसे ‘जाने-मन’ बोला तब वो अविनाश का हाथ झटकते हुए उसे खूब भला-बुरा सुनाने लगी।

यह देखकर उसके साथी-मित्र भी अविनाश की खिल्ली उड़ाने लगे।अविनाश को बुरा लगा और उसने काॅलेज़ आना छोड़ दिया।धरा भी निश्चिंत हो गई कि उससे पीछा छूट गया।

       एक शाम धरा अपनी सहेली के घर से वापस आ रही थी कि अचानक एक नकाबपोश आ गया और उसका मुँह दबाकर एक खाली घर में ले गया।वो चाहकर भी अपने बचाव के लिए चीख नहीं पाई क्योंकि नकाबपोश ने उसके मुँह पर कपड़ा बाँध दिया था।

फिर भी उसने खुद को बचाने के लिए बहुत हाथ-पैर मारे लेकिन..।नकाबपोश उसके साथ दुराचार करता रहा और कुछ-कुछ बुदबुदाता रहा।

आवाज़ पहचान कर वो चीखी,” अविनाश..तुम!” उसने अविनाश के मुँह पर से नकाब खींच लिया तो वो भागा।हड़बड़ी में अविनाश के हाथ की घड़ी गिर गई।धरा ने किसी तरह से खुद को समेटा और घड़ी उठाकर मन ही मन एक प्रण कर लिया।

           बेटी के फ़टे कपड़े और बिखरे बाल देखकर सुमित्रा जी सब कुछ समझ गईं।धरा अपनी भाभी के गले लगकर फूट-फूटकर रोने लगी और बताई कि अविनाश ने…।उसी समय शेखर दुकान से लौटा था, उसका खून खौल उठा।धरा का हाथ पकड़कर बोला,” चल थाने..उस अमीरज़ादे को जेल की चक्की..।”

   ” नहीं-नहीं..इससे हम सबकी बदनामी..।” कहते हुए सुमित्रा जी ने उनका रास्ता रोकना चाहा तब शेखर चीखा,” बदनामी के डर से मैं अपनी बहन के साथ अन्याय होने दूँ।” तब सुमन उसे शांत करते हुए बोली,” एक बार किशोरी अंकल से बात कर लीजिए, वकील हैं और पापाजी के मित्र भी।”

        शेखर की बात सुनकर किशोरी लाल जी बोले,” तुम घबराओ नहीं..आज की रात कट जाने दो और…।” उन्होंने शेखर को सब कुछ समझा दिया और धरा का भी हौंसला बढ़ाया।

         अगली सुबह ही शेखर सुमन और धरा को लेकर थाने गया,उसने अविनाश के खिलाफ़ FIR दर्ज़ कराई और किशोरी अंकल के बताए डाॅक्टर के पास जाकर सुमन ने धरा का मेडिकल कराया।पुलिस ने त्वरित एक्शन लेकर अविनाश को गिरफ्तार कर लिया और फिर अदालत में केस शुरु हो गया।

       अविनाश का वकील धरा से उल्टे-सीधे सवाल पूछने लगा जिसे सुनकर वो घबरा गई।घर आई तो मोहल्ले की औरतें उस पर ताने कसने लगीं,” इसकी वजह से पूरे परिवार पर ग्रहण लग गया है।इसका मर जाना ही अच्छा है..।”

अदालती ज़िरह से उसका मनोबल आधा हो चुका था, उस पर से लोगों की बातें..।खुद को खत्म करने के इरादे से वो स्टूल पर चढ़कर गले में रस्सी डाल ही रही थी कि शेखर आ गया और उसने उसके हाथ से रस्सी छीन कर फेंक दी।

सुमन और माँ भी वहाँ आ गईं।सुमित्रा जी उसके आँसू पोंछते हुए बोलीं,” बेटी, ग्रहण तो चाँद-सूरज में भी लगता है, फिर भी वो रोशनी देना तो नहीं छोड़ देते।तुझे भी अपना कर्म करते हुए आगे बढ़ना है।मैं, तेरी भाभी..।वो समझाती रहीं।तब अपनों का साथ पाकर उसका टूटा मनोबल फिर से ऊँचा होने लगा।

      अब धरा वकील के प्रश्नों का जवाब पूरे आत्मविश्वास के साथ देने लगी।उधर अविनाश का वकील भी उसे बचाने के लिए दाँव-पेंच खेल रहा था।

धरा फिर से काॅलेज़ जाकर अपनी पढ़ाई करने लगी।मुश्किलें तो बहुत आईं लेकिन वो उन्हें पीछे धकेलते हुए आगे बढ़ती रही।सुमन ने एक बेटे को जनम दिया।सुमित्रा जी अपने पोते के साथ खेलने में व्यस्त हो गईं।

       तीन साल की लंबी कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद अंततः धरा को न्याय मिला और अविनाश को दस साल का सश्रम कारावास और आर्थिक दंड मिला।

उसका ग्रेजुएशन पूरा हो गया तब उसने किशोरी अंकल से कहा कि वो लाॅ करना चाहती है ताकि गरीब-मजबूर लोगों को न्याय और अविनाश जैसे दुराचारियों को सज़ा दिला सके।शेखर भी यही चाहता था कि उसकी बहन आत्मनिर्भर बने।

      धरा कानून की पढ़ाई पढ़ने लगी।वकालत की डिग्री मिलते ही वो किशोरी अंकल की असिस्टेंट बनकर कोर्ट जाने लगी।एक चौबीस वर्षीय नवविवाहिता का केस लड़कर उसने न केवल उसे दहेज़लोभी सास-ससुर के चंगुल से बचाया बल्कि उन्हें सज़ा भी दिलाई।

चारों तरफ़ उसकी वाहवाही होने लगी।तब एक दिन मौका देखकर शेखर उससे बोला,” धरा..अब तो सब अच्छा हो गया है।तू कहे तो तेरे विवाह की बात..वरना लोग कहेंगे कि…।”

    “भईया…मैंने अपना पूरा जीवन कानून को समर्पित कर दिया है।दुखी लोगों की मदद करना और गरीबों को उनका हक दिलाना ही मेरे जीवन का उद्देश्य है।रही बात लोगों की तो प्यारे भईया #कुछ तो लोग कहेंगे ही..वरना उन्हें खाना कैसे पचेगा।हा-हा..।”

   ” ईश्वर तुझे सफलता दे..।” शेखर ने धरा के सिर पर अपने वरद-हस्त रखा तो वो भावविह्वल होकर भाई के गले लग गई।भाई-बहन का प्यार देखकर दूर खड़ी सुमित्रा जी और सुमन की आँखें भी खुशी-से छलछला उठीं।तभी नन्हा मनु(सुमन का बेटा) धरा की ऊँगली पकड़कर कहने लगा,” बुआ..मुझे बड़ा होना है।”

      ” बड़ा होना है, क्यों? ” धरा ने आश्चर्य व्यक्त किया।

    ” क्योंकि लोग कहते हैं कि मैं छोटा हूँ, इसलिए मेरी शादी नहीं होगी..।” मनु की बाल-सुलभ बात सुनकर सभी ठहाका मारकर हँसने लगे और घर का वातावरण खुशनुमा हो गया।

                                  विभा गुप्ता 

                             स्वरचित, बैंगलुरु 

# कुछ तो लोग कहेंगे

               जीवन में आई विपरीत परिस्थितियों का डटकर सामना करना चाहिए और मन से लोगों के कहने का भय निकाल कर अपने साथ गलत करने वालों को सज़ा दिलाना चाहिए जैसा कि धरा और उसके परिवार वालों ने किया।

Leave a Comment

error: Content is protected !!