आम के पेड़ के ही थोड़े बगल में अमरूद का पेड़ है। ये अमरूद का पेड़ हमने बाद में लगाया था।ऐसा लगता है ये अमरूद कभी बड़ा नहीं हो पायेगा। आम का वृक्ष अपने मजबूत और बड़े होने के कारण इसे चारो तरफ से घेर रखा है। ये अमरूद का पेड़ आम की वजह से दूर से नज़र भी नहीं आता।
छोटा होना एक तरह का श्राप है , मैं भी घर का छोटा हूँ। ये बात मुझसे बेहतर कौन समझ सकता है
अठाईस साल का होने वाला हूँ पर छोटा हूँ। भैया इक्कीस साल में बड़े हो गए थे। हर फैसला खुद लेते हैं घर का जमीन का या किसी भी बात का। मैं हर फैसले में उनपर निर्भर रहता हूँ। दिल से नही! दबाव से। छोटे होने का दबाव। ये बात मुझे तब समझ नहीं आती थी, पर शादी के बाद सब समझ आने लगा। बीवी कहती है
“जिंदगी भर बच्चे ही बने रहो। सुनती हूँ तुम्हारी उम्र से बहुत पहले भैया ने सारी जिम्मेदारी ले ली थी। तुम बस भैया की पूँछ ही पकड़े रहोगे ज़िन्दगी भर, कुछ नहीं कर पाओगे ना खुद के लिए ना बच्चों के लिए।”
इस बात पर दिल में आग लग जाती है। मन में सोचा अब बहुत हुआ।आज फैसला ले ही लूँगा।
“भैया! मैं अपने हिस्से की कुछ जमीन बेचकर पार्ट्स की दुकान लगाने वाला हूँ, और ये पूछ नहीं रहा मेरा खुद का फैसला है”
“जमीन का हिस्सा कब हुआ रे छोटे! और ये राइस मिल तो ठीक ही चल रहा है अपना” भैया खाने के बाद हाथ धोते हुए बोले
“तो फिर आधा पैसा हर साल मुझे क्यूँ नहीं मिलता, मुझे तो कोई हिसाब नहीं देता?”
“आधे के बारे में तो मैं कभी सोचा ही नहीं छोटे! जितनी तुम्हें जरूरत होती तो तुम्हें दे देता हूँ, वैसे ये चाभियाँ है और वो आलमारी।हिसाब समझ आये तो ठीक है नहीं तो कल ऑफिस आकर बाकी समझ ले फिर ज़िम्मेदारी भी ले ले धीरे धीरे” चाभी दे भैया उदास मुस्कुराहट के साथ चले गए।
मैंने सारी फाइल चेक किया, सब हिसाब मिलाया। कुछ और कागजात देखा। भैया से पहले हर जगह मेरा नाम है। मेरे लिए फिक्स डिपॉजिट। मेरे भविष्य के लिए बहुत सारे प्लान्स ले रखे हैं भैया ने। सब वापस बन्द कर मैं आँगन वाले छत पर गया, जानता हूँ भैया जब भी उदास होते हैं वही मिलते हैं।
“अरे छोटे तुम! कुछ हिसाब समझ में आया तुझे?” आंखों में कुछ था जिसे वो साफ करते बोले
“नहीं भैया! इतना छोटा हूँ कि बड़े दिल का हिसाब समझ ही नहीं पाया” मैं पश्चाताप में बहकर भैया के गले लग गया
“सुन! तू अब तो थोड़ा समझदार बन, रोज ऑफिस आया कर, सलोनी को भी अच्छा लगेगा”
मैं भैया के गले लग..उनदोनो वृक्ष को देख रहा था। तेज हवाओं, चिलचिलाती धूप और उनपर फेंके गए पत्थरों को भी पहले आम का पेड़ ही सहता आया है..!
विनय कुमार मिश्रा