आस्था या स्वार्थ – कमलेश राणा

दादी, दादी जल्दी आओ,,, देखो यह क्या हो रहा है टीवी में.. 

विभु जोर जोर से चिल्ला रहा था और काफी डरा सहमा सा था.. 

उसकी आवाज़ की तड़प महसूस कर मैं दौड़कर वहाँ पहुंची तो सचमुच वह नजारा भयाक्रांत कर देने वाला था। मैं भी डर गई और सांस रोक कर उस लाइव टेलीकास्ट को देखने लगी जो भोपाल के पास सीहोर में गोवर्धन पूजा के अवसर पर आयोजित एक मेले का था। 

विभु भय से सिकुड़ा बैठा था, मेरे जाते ही गोदी में सर छुपा लिया उसने,, 

मेरे बार बार कहने के बावजूद वह हटा नहीं वहाँ से, परिणाम जान लेने की उत्कंठा जो थी,, मेरा हाल भी कुछ कुछ ऐसा ही था। 

जो दृश्य टीवी पर दिखाये जा रहे थे उनमें कई सारे लोग लाइन से सड़क पर इस प्रकार लेट जाते हैं जिससे मार्ग अवरुद्ध हो जाये। 

फिर एक गायों के समूह को खदेड़ते हुए कुछ लोग आते हैं और उन गायों को लोगों के ऊपर चढ़ने के लिए उकसाते हैं। समूह में 30-40 गायें होती हैं। 

पर उन बेजुबानों की समझदारी देखिये, वो लोगों को सड़क पर लेटे देखकर वापस लौटने लगती हैं। लेकिन उन्हें फिर धक्का देकर लोगों के ऊपर चढ़ने को मजबूर किया जाता है। 

और स्वनाम को धन्य करते हुए गौमाता जोर की छलांग लगाते हुए उन्हें पार करने लगती हैं परंतु पीछे से पड़ने वाले दवाब के कारण कई लोग उनके पैरों तले कुचल भी जाते हैं। 

उसके बाद कुछ लोग जिन्हें भाग्यशाली कह सकते हैं, उठकर खड़े हो जाते हैं और कुछ को दो तीन लोगों को टांगकर ले जाना पड़ता है। 

फिर नये लोग और वही पुनरावृत्ति.. 

मन बहुत द्रवित हो गया, समझ में नहीं आ रहा था किसे पशु कहना सही होगा,, उन गायों को जो मनुष्यों को यथासंभव बचाने का प्रयास कर रही थी या उन मनुष्यों को जो गायों को बाध्य कर रहे थे मनुष्यों को कुचलने के लिए। 

यह कुत्सित कार्य परंपरा के नाम पर किया जा रहा था। इसके पीछे यह अंधविश्वास है कि जिसे गाय से चोट लग जायेगी उसकी मनोकामना पूरी हो जायेगी। 

अरे कामना तो तब पूरी होगी न जब जान बचेगी। कौन जाने कितने लोग मनोकामना पूरी करने की स्वार्थ पूर्ति के चक्कर में हाथ पैर तुड़वाते होंगे या सीधे जन्म मरण के चक्र से मुक्त हो कर परलोक ही सिधार जाते होंगे। 

स्वार्थपूर्ति के लिए इस तरह की परंपराओं का आयोजन कहाँ तक उचित है क्या आप बतायेंगे मुझे। 

#स्वार्थ

कमलेश राणा

ग्वालियर

 

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