दरवाजा ध्यान से बंद करना – श्वेता अग्रवाल

“मम्मा खजला(चावल के पापड़) दो ना।” अंशुल अपनी मम्मा रीमा से कह रहा था।

“खजले नहीं है,अंशुल। खत्म हो गए हैं।”

“मुझे नहीं पता। मुझे तो खजला खाना है। दादी ने इतने सारे खजले तो दिए थे।” अंशुल जिद करते हुए बोला।

“हाँ,दिए तो थे पर दिन में तीन- तीन बार ब्रेकफास्ट, लंच, डिनर सब में खजले खाओगे तो कितने दिन चलेंगे।”रीमा ने झुंझलाते हुए कहा।

“लेकिन, मम्मा मुझे बिना खजला खाना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।”

“ठीक है, इस बार जब छुट्टियों में दादी के पास जाएँगे तो ढेर सारे खजले ले आयेंगे।”

“छुट्टियों में तो अभी बहुत टाइम है। आप ही बना दो ना।”

“लेकिन मुझे खजले बनाने नहीं आते बेटा।” यह सुनकर अंशुल रोआंसा हो गया। उसे ऐसे देख कर रीमा को बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था। 

वह सोचने लगी कितने मजे से हम सब रायपुर में एक साथ रहते थे। सबके साथ कितना मजा आता था। अंशुल की पसंद की चीजें सासू माँ आगे से आगे बनाकर रखती थी लेकिन, तभी अमन के ट्रांसफर

के कारण उन्हें मुंबई आना पड़ा।यहाँ उसे अकेले बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था।ऊपर से अंशुल की फरमाइशें खत्म होने का नाम ही नहीं लेती थी। लेकिन, वह मजबूर थी।आखिरकार उसने सासू माँ से पूछकर खजले बनाने का निर्णय किया।

“माँ, प्रणाम। आप जो अंशुल के लिए स्पेशल खजले बनाती हैं।वो कैसे बनाती हैं? आपके दिए खजले खत्म हो गए हैं और अंशुल जिद कर बैठा है कि उसे खजले खाने है।”

“हाँ,मालूम है खजले के बिना तो उसका खाना ही हजम नहीं होता। मैंने बना रखे हैं, उसके लिए खजले।कोई साथ लगते ही भेजती हूँ।तब तक तू थोड़े से बना ले मैं विधी बताती हूँ।चावल के आटे में थोड़ा सोडा,नमक,जीरा मिला कर…। समझ गई ना।”

“समझ तो गई माँ। देखती हूँ बनाकर बनते हैं कि नहीं।”

“बिल्कुल बनेंगे, क्यों नहीं बनेंगे? तू ट्राई तो कर।”

दूसरे दिन रीमा ने बहुत मेहनत से खजले बनाए। अंशुल तो खजले बनते देखकर ही बल्लियों उछलने लगा।

“मम्मा प्लीज एक खजला दे दो।”

“अंशुल, अभी नहीं बेटा, अभी गीले हैं। कल तक सूख जाएँगे, तब खाना। अभी सो जाओ।” यह कहकर खजलों को पंखे के नीचे सुखाकर रीमा भी सोने चली गई।

दूसरे दिन जब सुबह उठकर रीमा खजलों को संभालने गई तो देखकर चौंक गई कि वहाँ से सारे खजलें गायब थे।खजले कहाँ गए? कहीं अंशुल की कोई शरारत तो नहीं?

“अंशुल, अंशुल तुमने खजले लिए हैं क्या?”

“नहीं, मम्मा मैं तो अभी उठा हूँ।”

“तो फिर खजले कहाँ गए?” रीमा ने परेशान होते हुए कहा।

फिर दोनों ने मिलकर खजलों को खोजना शुरू किया। खजले कहीं भी नहीं दिख रहे थे।अचानक अंशुल खूब जोर से चिल्लाया “मम्मा, वह रहा खजला चोर।”अंशुल की आवाज पर जब रीमा पलटी तो उसने देखा कि एक चूहा अपने दाँतो में ख़जला दबाये भागा जा रहा था।

एक ही पल में उसे सारा माजरा समझ में आ गया। बगल में अनाज का गोदाम होने से चूहों का घर में आना जाना लगा रहता था। उन्हीं चूहों ने सारे खजले साफ कर दिए थे। यह देखकर ही रीमा को रोना ही आ गया।

कितनी मेहनत से उसने खजले बनाए थे और इन चूहों ने सारी मेहनत बर्बाद कर दी। तब तक शोर -गुल सुनकर उसके हस्बैंड अमन भी वहाँ पहुँच गए। जब उन्हें सारी बात का पता चला तो वे अपनी हँसी ना रोक पाए। बोले “कोई नहीं, चूहों की खजला पार्टी हो गई।”

यहाँ आपको मजाक सूझ रहा है। मेरी सारी मेहनत बर्बाद हो गई।रीमा गुस्से से बोली।

“सॉरी, सॉरी। सारी बात सुनते ही अचानक हँसी आ गई।लेकिन एक बात नहीं समझ में आ रही कि चूहों को खजले मिले कैसे?तुमने कमरे का दरवाजा तो ध्यान से बंद किया था ना।”

“हाँ, किया तो था या शायद नहीं? मुझे कुछ सही से ध्यान नहीं आ रहा।” रीमा ने कंफ्यूज होते हुए कहा।

“लो हो गई सारी पिक्चर क्लियर। रात में हड़बड़ी में तुमने दरवाजा सही से बंद नहीं किया और चूहों ने खजलों का लुफ्त उठा लिया। इसलिए आगे से जब भी खजले बनाना, तब जितने ध्यान से खजले बनाना, उतने ही ध्यान से दरवाजा भी बंद करना ताकि खजले अपना प्यारा अंशुल खाए, चूहे नहीं।” अमन की इस बात पर रिया भी हँस पड़ी।

“लेकिन मम्मा, मेरे खजले।” अंशुल ने रोते-रोते पूछा। “

“रो मत अंशुल। मैं आज फिर बना दूँगी और इस बार दरवाजा भी ध्यान से बंद करुँगी।” रीमा ने हँसते हुए कहा।

धन्यवाद

लेखिका- श्वेता अग्रवाल, 

धनबाद , झारखंड 

कैटिगरी -लेखक /लेखिका बोनस प्रोग्राम (सितंबर माह-आठवीं कहानी)

शीर्षक-दरवाजा ध्यान से बंद करना

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