बारह बरसों तक सूनी कोख लिए सरोज अपनी ममता लूटाने को तरसती रही….
हर मंदिर और हर देश प्रतिमा के आगे अपने कोख के गुलजार होने की अनसुनी सी प्राथनाएं कर के रख चुकी सरोज ने जान लिया था कि ईश्वर ने शायद उसके भाग्य में ये सुख दिया हीं नहीं था…
उसकी गोद भले हीं खाली थी परंतु ममता और वात्सल्यता की नदी अभी सूखी नहीं थी…
महेश ने जब आज अचानक से उसे पुकारा तो उसकी आवाज में एक अलग हीं उत्सुकता थी…
सरोज आओ तो सही देखो ये क्या आया है???
सरोज ने उस सांवले और गोल-मटोल चेहरे वाले बच्चे को देखा तो बस देखती हीं रह गई…
गोल-गोल चमकती आंखें जैसे मासुमियत का पूरा खजाना उड़ेल दिया था ईश्वर ने उन्हें बनाने में…
सरोज ने उसकी आंखें देखते हीं हंसते हुए कहा – वाह इसकी आंखें तो बिल्कुल मटर की तरह गोल हैं…
इसका नाम तो मटरु होना चाहिए…
मगर ये है कौन???
महेश ने कहा – ये हमारे पड़ोस में रहने वाले चौधरी जी का बेटा है इसकी मां कल हीं इसे छोड़ कर…. ईश्वर के पास चली गई…
मटरू की मां के बारे में जान कर सरोज की आंखें भर आईं और उसने मटरू को अपने कलेजे से चिपका लिया…
लगभग ढाई-तीन साल का वो बालक एक मां की ममता को भली भांति समझ गया था…
उसने तुंरत सरोज को कस कर पकड़ लिया और उसके कंधे पर अपना सर रख दिया…उस नन्हे से मासुम का स्पर्श पाकर सरोज तो जैसे धन्य हो गई…
उसके भोले से मुखड़े को बार-बार चुमने और पुचकारने लगी।
आज जाने क्यों उसके अंदर की ममता बिना बांध के नदी की भांति उमड़ पड़ने को बेचैन हो रही थी…
मटरू को पाकर वो अपना सुध-बुध खो चुकी थी…
आज उसे ईश्वर की सता पर किए गए अपने सारे संदेहों पर बेहद हीं पछतावा हो रहा था…
हे ईश्वर मुझे क्षमा कर दो जो मैंने आपसे हर बार शिकायत किया कि क्यों मुझे मां बनने के सुख से वंचित रखा आपने???
परंतु आज मैं अपनी हर उस भूल का प्रायश्चित करना चाहती हूं…
आपने क्षणिक हीं सही परन्तु मुझे मातृत्व का ये सुख दे कर मुझ पर जो उपकार किया है उसके लिए मैं सदैव आपकी ऋणी रहूंगी…
सरोज मन हीं मन जाने क्या क्या सोच बैठी…
पल भर में मटरू को लेकर अनगिनत स्वप्न सजा लिए उसने…
उसकी तंद्रा तब भंग हुई जब महेश ने उसे आवाज लगाई – सरोज!! बच्चे को दे दो..
उसके पिता उसे घर ले जाने आए हैं…
सरोज कल्पनाओं की दुनिया से बाहर आई और अनमने मन से मटरू को उसके पिता को सौंपते हुए बोली – इसे हर दिन ले कर आइएगा…
अब तो मटरु के पिता की भी चिंता लगभग उड़नछू हो गई क्यों कि उसकी देखभाल का पूरा दायित्व सरोज ने संभाल लिया…
पूरे दिन मटरू की मासुम बदमाशियों में सरोज का अच्छा खासा दिन बीतने लगा…
मटरू अगर एक दिन भी नहीं दिखता तो वो बेचैन हो उठती थी…
पूरे घर में कोहराम मचा देती…
और महेश से कहती -ऐ जी जाइए ना जरा देख आईए आज मेरा मटरू क्यों नहीं आया वो ठीक तो है ना….
महेश को भी सरोज की जिद के आगे झुकना पड़ता और जाकर मटरू को लाना पड़ता…
ऐसा नहीं था कि घर में केवल सरोज को हीं मटरू से लगाव था…
महेश को भी बड़ा स्नेह था उससे…
अब तो मटरू चार साल का हो चुका था थोड़ा बड़ा होते हीं उसका सरोज के पास आना जाना थोड़ा कम हो गया परंतु प्रेम कभी भी कम नहीं हुआ….
अपने नन्हे कदमों से हर दिन मटरू स्वयं हीं सरोज के पास चला आता था…
सरोज की रसोई में पकने वाली हर वस्तु सर्वप्रथम मटरु के जिह्वा से हो कर बाकियों के गले तक पहुंचा करती थी…
सरोज के मटरू के प्रति इस स्नेह को देख कर सासु मां कभी-कभी कह उठती-रहने भी दो बहू किसी और के बच्चे को इतना भी सर चढ़ाना ठीक नहीं है…
मटरू कोई तेरी औलाद नहीं है जो इस पर लाड़-प्यार लुटा रही है…
सरोज हंसकर कहा करती- मां जी माना कि मटरु मेरी औलाद नहीं है परंतु किसी पर प्रेम और स्नेह लुटाने के लिए उसका अपना होना अनिवार्य है क्या???
मटरू के साथ महेश और सरोज का ये अनोखा संबंध स्वयं ईश्वर ने जोड़ा था…
कितने हीं बरस बीत गए परंतु उनके इस संबंध में कोई अड़चन नहीं आई और ना हीं प्रेम कभी कम हुआ…
मटरू भी सरोज और महेश के लिए अपनी जान भी देने तक को सदैव तैयार रहता था…
सूर्य की पहली किरण के साथ मटरू महेश के घर पहुंच जाता…
खेती-बाड़ी में महेश की मदद करना, महेश की आज्ञा का पालन करना,सरोज के लिए जरूरी सामान लाना ये सारे कार्य वो निःसंकोच किया करता था…
महेश के पड़ोसी अक्सर मटरू के कान भरते रहते थे…
अरे मटरू!! तू पगला है क्या जो इन लोगों के चक्कर में अपना समय गंवाए जा रहा है…
जाकर कहीं शहर में कोई नौकरी चाकरी करता तो परिवार पेट पालने में बापू की मदद भी हो जाती…
मटरू कभी कभी तो कुछ नहीं कहता परंतु बात जब सर से उपर होने लगती तो बस इतना हीं कहता – ये मेरा मामला है आप लोग इससे दूर हीं रहें…
मैं भूला नहीं हूं कि चाचा-चाची ने मुझे अपने सगे माता-पिता से भी बढ़ कर प्रेम और दुलार दिया है…
जब मां छोड़ कर चली गई थी तब मुझ अनाथ को इन्हीं चाचा-चाची ने अपने स्वयं के बच्चे की तरह पाला पोसा…
दुनिया की परवाह किए बिना चाची मुझ पर अपनी सारी ममता लुटाती रही…
इतना तो शायद मेरे बापू भी नहीं कर पाते मुझे जितना इन लोगों ने किया है मेरे लिए…
मटरू के लिए तो अपने सगे माता-पिता से भी सगे थे सरोज काकी और महेश काका…
लोगों की बात की परवाह किए बिना मटरू अपना फर्ज निभाता रहा ठीक वैसे हीं जैसे एक समय पर सरोज ने अपना फर्ज निभाया था…
ये सोचे बिना कि कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना…
डोली पाठक