मुक्ता की शादी को आठ साल बीत चुके थे पर अभी तक उसकी गोद सूनी थी। हालांकि आशीष ने कभी उसे इस कमी का अहसास नहीं होने दिया था दोनों अपनी जिंदगी में बहुत खुश थे लेकिन जब भी वे किसी फंक्शन में जाते तो ऐसा लगता कि जैसे बच्चा न होना बहुत बड़ा गुनाह है।
हर किसी की जुबान पर एक ही सवाल होता.. खुशखबरी कब सुना रहे हो तुम लोग भई हम तो जाने कब से लड्डुओं की आस लगाए बैठे हैं।
जब वहां से वापस आते तो कुछ समय के लिए एक अजीब सी खामोशी पसर जाती उनके बीच आखिर थक – हार कर उन्होंने टेस्ट ट्यूब बेबी तकनीक की मदद लेने का फैसला किया।
डॉक्टर ने बताया कि मुक्ता को पूरे नौ महीने बेड रेस्ट करना होगा क्योंकि इस विधि में गर्भपात का जोखिम अधिक रहता है। अब सबसे बड़ा सवाल यह था कि इतने दिनों तक कौन उनको सहारा देगा। सबसे पहले मुक्ता ने अपनी मम्मी से बात की क्योंकि वही उससे सबसे ज्यादा आग्रह करती थीं।
अरे मैं कैसे जा सकती हूं बेटा तुम्हारे पापा को छोड़कर और फिर इंदु के छोटे – छोटे बच्चे हैं वो कैसे अकेली संभालेगी। दो – चार दिन की बात होती तो सोचा भी जा सकता था। ऐसा करो तुम अपनी सास को बुला लो।
मां मैने कब कहा कि आप लगातार नौ महीने मेरे साथ रहो। आप और दीदी बारी – बारी से थोड़े दिन रह सकती हैं और आज जब मुझे सहारे की जरूरत है तो आप मुझे अपनी सास को साथ ले जाने की सलाह दे रही हैं । अभी तक तो आप उनसे दूरी बनाने की कोशिश ही करती रही हैं आपने उनसे मेरा मन मिलने ही नहीं दिया।
चलो एक बार गांव चलकर मां से बात करके देखते हैं शायद दादी बनने की खुशी में वो पसीज जाएं वैसे तो हमने इतने सालों में उनकी कोई खोज – खबर नहीं ली अब जाएं भी तो किस मुंह से। पर मरता क्या न करता जी कड़ा करके जाना ही पड़ेगा उनके अलावा कोई दूसरा सहारा नज़र नहीं आ रहा था।
अरे यह किसकी गाड़ी रुकी है आज दरवाजे पर..मुद्दत बीत गई किसी ने सुध नहीं ली। देखती हूं कौन आया है..अरे आशु और मुक्ता तुम दोनों आज अचानक यहां… सब ठीक है न।
अरे अंदर तो आने दो मां या दरवाजे पर ही सब कुछ पूछ लोगी.. पैर छूते हुए आशीष बोला।
हां हां आओ न.. खुशी के मारे मैं तो भूल ही गई ..आओ बहू आंखें तरस गईं तुम लोगों को देखने के लिए।
मां आप दादी बनने वाली हैं।वक्त पड़ने पर अपने ही तो काम आते हैं यह बात हमें आज समझ आई जब दिन – रात मीठी – मीठी बातें करने वाली मुक्ता की मां और उसकी दीदी ने कुछ दिन उसे सहारा देने के लिए स्पष्ट रूप से मना कर दिया। अभी तक तो यही लगता था कि इनसे बड़ा हमारा शुभचिंतक दूसरा कोई नहीं है पर काम पड़ने पर असलियत का पता चला।
अरे वाह दिल खुश कर दिया तुमने। न जाने कब से इस दिन का इंतजार कर रही थी कि मेरे आंगन में कोई नन्हा मुन्ना शरारतें करे और उसके साथ मैं फिर से बच्ची बन जाऊं। वह अपनी तोतली जुबान से मुझे दादी कह कर बुलाए और मैं प्यार से उसे अपने आंचल में समेट लूं।
मां आप हमारे साथ चल रहीं हैं न.. मुक्ता और आशीष बड़ी उम्मीद भरी नजरों से उनकी तरफ देख रहे थे।
हां मैं चलूंगी तुम्हारे साथ, मेरे होते हुए तुम किसी और का मुंह क्यों देखो? चिंता मत करो मैं सब संभाल लूंगी।
जब गायत्री जी जाने लगीं तो आस -पड़ोस की महिलाएं और परिवार जन उनसे मिलने आये। महिलाएं गले मिलकर कह रही थीं.. जल्दी वापस आ जाना बहन आपके जाने से बहुत सूना लगेगा। देवर भी भारी मन से भौजाई के पैर छूते हुए भावुक हो गए और सभी काफी दूर तक उन्हें छोड़ने आये।
वो थी ही ऐसी कि हर किसी को वे अपने परिवार के सदस्य जैसी ही लगतीं , कोई उन्हें खाना दे जाता तो कोई घर बुहार जाता। शाम को जब काम से निपट कर बहुएं बैठती तो उनके पैर भी दबा जातीं थीं। जिंदगी बड़े आराम से कट रही थी।
उनकी तंद्रा तब भंग हुई जब आशीष ने कहा.. मां घर आ गया। फ्लैट में घुसते ही दरवाजा बंद हो गया और इसके साथ ही बाहर की दुनियां से संबंध भी। अगर किसी से मिलने जाना हो या बुलाना हो तो ही गेट खुलता। गांव जैसी रौनक यहां कहां? वहां तो आते – जाते लोग राम – राम करके दो बातें करके ही जाते।
खैर अब तो यहीं रहना था उन्हें तो उन्होंने बहू के सारे काम खुद संभाल लिए। किचिन से लेकर झाड़ू – पोंछा तक वह खुद करतीं। आशीष ने कहा भी कि वह मेड लगा देगा पर उन्हें मेड का काम पसंद नहीं था। जीवन भर अपने हाथों से ही तो किया था सब लेकिन अब वह थकने लगीं थीं।
वो तो पोता आने की खुशी में थकान को अनदेखा कर देती। काम निपटा कर अपने कमरे में चुपचाप लेट जाती यहां कोई बात करने वाला, मन की पूछने वाला नहीं था। बहू सारे दिन मोबाईल और टीवी में ही व्यस्त रहती। शाम को बेटा आता तो औपचारिक बातचीत के बाद खाना खाकर वह भी अपने कमरे में चला जाता ऐसे में उन्हें अपना घर बड़ा याद आता।
मुक्ता का नौवां महीना चल रहा था वे रोज नई उम्मीद और उत्साह के साथ दिन की शुरुआत करतीं आखिर मुक्ता ने एक प्यारे से बच्चे को जन्म दिया। गायत्री जी को जब नर्स ने बच्चा दिया तो वो उसे देखकर निहाल हो गईं।
अब बच्चे की नैपी बदलने से लेकर उसे नहलाने, धुलाने और मालिश करने तक की सारी जिम्मेदारी उन्होंने ले ली थी और साथ ही मुक्ता का भी अब उन्हें विशेष ध्यान रखना पड़ता था। उसके लिए जच्चा का पौष्टिक आहार भी वही बनातीं। रात में जब बच्चा रोता तो वह तुरन्त उठ कर बैठ जातीं।
धीरे -धीरे बच्चा बड़ा हो रहा था और उसकी प्यारी शरारतों और मुस्कान में दिन कब गुज़र जाता उन्हें पता ही नहीं चलता।
मुक्ता अब पूरी तरह स्वस्थ हो चुकी थी पर अब उसकी काम करने की आदत छूट चुकी थी। अगर बच्चा रोता या नैप्पी गीली कर देता तो उसे चेंज करने के लिए भी वह उन्हें ही आवाज देती। कई बार तो खाना बनाते हुए काम छोड़कर उन्हें आना पड़ता। उन्हें समझ में आने लगा था कि मुक्ता अब उनका नाजायज फायदा उठा रही है।
एक दिन उन्हें तेज बुखार आया बदन बुरी तरह जल रहा था। सुबह उठने की हिम्मत नहीं थी। मुक्ता बड़बड़ाते हुए आई.. मम्मी अभी तक चाय नाश्ता नहीं बना। आशीष के ऑफिस का टाइम हो रहा है आप अभी तक सो ही रही हैं।
मुझे बहुत तेज बुखार है बहू आज तो तुम्हें ही काम करना पड़ेगा।
अब मैं काम करूं या बच्चे को संभालूं जरा सा बुखार ही तो आया है आपने तो इस तरह बिस्तर पकड़ लिया जैसे जाने कौन सी आफत आ गई.. उसने उनके बदन को छू कर देखने की जहमत भी नहीं उठाई।
क्या हुआ मुक्ता?? क्यों शोर मचा रही हो?? तुम परेशान मत हो मैं ऑफिस में ही लंच कर लूंगा.. कहते हुए वह चला गया एक बार भी मां को हॉस्पिटल ले जाने का ख्याल नहीं आया उसके मन में।
मुक्ता ने भी जोमैटो से खाना ऑर्डर कर लिया। गायत्री जी को बाहर का खाना पसंद नहीं था तो उन्होंने भूख न होने का हवाला दे कर चुप्पी साध ली। खिचड़ी बनाने की उनमें हिम्मत नहीं थी और बहू को उनकी चिंता नहीं थी। इसी तरह कई दिन गुज़र गए।
अब उन्हें लगने लगा था कि उनकी जरूरत वहां तभी तक थी जब तक वह उनके इशारे पर कठपुतली की तरह नाच रही थी। अब ताकत खत्म तो उनका खेल भी खत्म।
एक दिन जब आशीष शाम को ऑफिस से आया तो वो बोलीं बेटा तुम मुझे गांव छोड़ आओ। अब बस बहुत हो चुका मैं समझ गई हूं कि तुमने मुझे इस्तेमाल किया है अब जब मुझे तुम्हारे सहारे की जरूरत पड़ने लगी तो तुम लोगों को मैं बोझ लगने लगी हूं। मैं जीती – जागती इंसान हूं कोई कठपुतली नहीं जिसे न दुःख होता है और ना ही दर्द होता है।
मैं उन बेगानों के बीच बहुत खुश हूं जिनके दिल में मेरे लिए निस्वार्थ प्रेम है।
#कठपुतली
कमलेश राणा
ग्वालियर