बहु ओ बहु !जाओ, चाय बना कर ले आओ ! मिसेज शर्मा आई हैं,शकुंतला देवी ने वहीं से बैठे -बैठे तेज स्वर में अपनी बहु को आवाज देकर कहा।
जी मांजी, कहकर देवयानी गैस के चूल्हे पर चाय चढ़ा देती है, देवयानी की सास शकुंतला देवी सारा दिन पलंग पर बैठी रहती है, और देवयानी को कुछ न कुछ काम बताती रहती है। कई बार देवयानी थक जाती है आराम करने भी जाती है, तभी सास की आवाज सुनकर,तुरंत उठ खड़ी होती है और उनकी आज्ञा का पालन करती है।
ऐसा नहीं है कि देवयानी पढ़ी-लिखी नहीं है, वह पढ़ी -लिखी है, विवाह से पहले नौकरी करती थी किंतु विवाह के पश्चात, उसके ससुराल वालों ने कह दिया था कि हमें उससे नौकरी नहीं करवानी है। देवयानी ने, अपनी ससुरालवालों का सम्मान रखते हुए अपनी नौकरी छोड़ दी,
किंतु शकुंतला देवी को तो जैसे उसे पढ़ी-लिखी नौकरानी समझ लिया था। आए दिन ,उसे कोई न कोई काम बताती रहती और सारा दिन उलाहना देती रहतीं -”आजकल की बहू से तो कुछ भी नहीं होता, हमारे समय में देखो! हम कितना काम करते थे ?
आठ -आठ ,दस -दस लोगों की रोटी बना लेते थे। सास से पहले तो कभी हमने खाना भी नहीं खाया और आजकल की बहूओं को देखो ! सास ने खाया यानहीं खाया, पहले ही खाने बैठ जाती हैं।
हम तो अपनी सास के पैर छूते थे, नए कपड़े पहनते तो पैर छूते थे, कहीं बाहर जाते थे, तो पैर छूते थे। श्रृंगार- मेकअप किया तो पैर छूते थे और आजकल की बहुओं को तो देख लो! झुकते हुए,कमर में बल आ जाता है।
देवयानी उनकी सब बातें सुनती, और जैसा वह कहती या सुनाती थीं, तब वैसा ही करती , उसने एक दिन शकुंतला देवी से कहा -मम्मी जी !आपको यदि मुझसे कोई शिकायत है, तो आप मुझे स्पष्ट रूप से कह सकती हैं, मेरी कोई भाभी नहीं है , मैं तो बाहर रहकर पढ़ी हूं इसलिए यह तौर तरीके नहीं जानती आप मुझे वैसे भी बता सकती हैं।
अब सुन लो ! क्या मेरा यही काम रह गया है, सारे दिन तुम्हें सिखाती रहूं, कल को तुम बुराई दोगी , सारे दिन मेरे पीछे पड़ी रहती है। ऐसा नहीं देवयानी के पास उनकी बातों का जवाब नहीं था, वह जवाब दे सकती थी लेकिन अपने संस्कारों और उनके मान-सम्मान के लिए चुप रहती थी।
क्या अभी तक चाय नहीं बनी? बाहर से वो चिल्लाईं ।
बन गई है, ला रही हूं, कहते हुए देवयानी जल्दी-जल्दी, चाय कप में उड़ेलती है ,ट्रे में बिस्कुट और नमकीन रखती है
और बाहर लेकर आ जाती है। जैसे ही वह चाय की ट्रे मेज पर रखती है, उसकी सास उसे घूरती है, अब न जाने क्या गलती हो गई ? मन ही मन देवयानी सोचती है और अंदर चली जाती है। वह जानती है अब उसे सुनने को बहुत कुछ मिलेगा लेकिन वह समझ नहीं पा रही थी कि अब उससे क्या गलती हुई है ?
उसे ज्यादा प्रतीक्षा करनी नहीं पड़ी,कुछ देर पश्चात् शकुंतला देवी आती हैं और उसे डांटते हुए कहती हैं -यहां क्या पैसों का पेड़ लगा है ?
अब क्या हुआ मांजी ? मैं कुछ समझी नहीं देवयानी ने पूछा।
तुम काहे की पढ़ी लिखी हो, तुम्हें इतना भी सऊर नहीं है, किसको कैसे नाश्ता देना है ? अरे! इस शर्मानी को नमकीन और बिस्कुट लेकर आने की क्या जरूरत थी ? खाली चाय ले आती। यह तो बहुत कंजूस है अपने घर पर जाने पर चाय के लिए भी नहीं पूछती डांटते हुए बोली।
उस दिन तो आप कह रही थीं – कि तुम्हें नाश्ता देने की तमीज नहीं है, खाली चाय ले आईं साथ में कुछ लेकर नहीं आई।
वह तो मैं तिवारिन के लिए कह रही थी, उसके घर जब भी जाते हैं बहुत आवभगत करती है, मान -सम्मान करती है लेकिन यह तो बहुत चालाक है, खाली चाय दे देती तो अच्छा था।
यह मुझे कैसे मालूम होगा? कि किसको चाय -नाश्ता देना है और किसको नाश्ता नहीं देना है ? तुम्हें यहां आए हुए 6 महीने हो गए और तुम्हें अभी तक पता ही नहीं चला बड़बड़ाते हुए वहां से चली गईं। उनके इस व्यवहार से देवयानी को कभी-कभी लगता, जैसे मैं उनकी बहू नहीं कोई” कठपुतली” हूं, जैसे और जिस तरह से मुझे घूमाना चाहती हैं ,घूमाती रहती हैं।
अब तो देवयानी को लगने लगा, जैसे उसने सारा पढ़ा- लिखा खो दिया है, पढ़ाई से ज्यादा जरूरी सास के नीचे काम करना था। ताकि उनसे सामाजिक तौर -तरीके सीख लेती, सारा दिन यही, बातें होती रहती है। आजकल की बहू को यह नहीं आता, आजकल की बहू यह नहीं जानतीं, और ऐसे में यदि पति साथ खड़ा हो जाए ,” तो उन्हें जोरू का गुलाम की पदवी दे दी जाती थी।
तुझे तो इसी दिन के लिए पाल -पोषकर हमने बड़ा किया है। कल को बहू के सामने तू हमारी बेइज्जती करेगा और सारा दिन रोना -धोना, रोटी न खाना , ऐसे अनेक हादसे होते रहते जिनसे उबरने का प्रयास देवयानी करती रहती।
कभी-कभी रोकर, परेशान होकर, अपनी मम्मी से पूछती – मम्मी ! ऐसे कब तक चलेगा ?
तब उसकी मम्मी उसे समझती तुम्हें उनकी बातों का कोई जवाब नहीं देना है, तुमसे उम्र में बड़ी हैं ,जो कहती हैं सुन लेना चाहिए, अच्छे के लिए ही कह रही हैं।
ये कैसी अच्छाई है ?देवयानी समझ नहीं पाई।
तुम्हारी अच्छाई का तो उन्हें तभी मालूम होगा जब छोटे की बहू आ जाएगी। अब देवयानी इसी उम्मीद में जी रही थी कि मेरी अच्छाई का तभी इन्हें एहसास होगा कि जब छोटी आएगी।
दो-तीन वर्षो के पश्चात, देवर के सर ओर भी सेहरा बंध गया और देवयानी जेठानी बन गई , मन ही मन खुश भी थी, अब मम्मी जी के लिए एक नहीं दो बहुएं हो जाएगी ,मेरा भी काम बंट जायेगा। पता नहीं किसको क्या सुनना होगा ?किंतु उसके आते ही, मम्मी जी के तो जैसे तेवर बदल गए।
न जाने, उसने कौन सा, पाठ पढ़ाया ? फटाफट उठकर उसके लिए काम करती , जिस चीज के लिए वह सारा दिन देवयानी की प्रतीक्षा करती रहतीं , अब वह काम तुरंत ही हो जाता,वे स्वयं ही कर लेती, यह सब देखकर देवयानी बौखला गई, यह सब क्या हो रहा है ?
देवयानी ने अपनी देवरानी से बात की, तो वह बोली -हमें एक साथ रहना चाहिए , समझदारी से रहना है, बहनों की तरह रहना है, मेरे दीदी ने मुझे समझाया है- तब तुम्हारी सास कुछ नहीं कह पाएगी। कुछ और बातें भी कहीं किंतु देवयानी को पता नहीं चला। वह काम भी नहीं करती थी और सारा दिन सास के” कान भरती थी।”
तब सास ने कहा -इसे हम दोनों मिलकर मजा चखाएंगे ।
देवयानी कहने लगी -आपके लिए जैसी मैं बहू हूं ,वैसे ही यह भी इस घर की बहू है, आपको इस तरह भेदभाव करना शोभा नहीं देता।
– जब छोटी ने सास से पूछा कि दीदी क्या कह रही थीं , तो सास बोली -यह तुमसे जलती है, तुम्हारे घर से थोड़ा नगद भी ज्यादा आया है, यह अपने घर से, मोटरसाइकिल लाई थी और तुम गाड़ी लाई हो। तब देवयानी को एहसास हुआ, कि मुझसे थोड़ा ज्यादा सामान लाने के कारण, इसका मान- सम्मान हो रहा है।
एक दिन शकुंतला देवी ने जाने क्या सोचे बैठी थीं?तब वो बोलीं -मेरे घर से निकल जाओ ! देवयानी यह सुनकर सकते में आ गई, इतने वर्षों से मैं उनकी सेवा कर रही हूं और इसे आये हुए कुछ महीने हुए हैं और देवरानी भी मुझ पर हावी होने लगी है।
अब तो देवयानी को बहुत क्रोध आया। जब यह बात उसके पति ने सुनी तो बोला -मम्मी, कह रही हैं, तो हम यहां से चले जाते हैं , आए दिन झगड़े होते रहते हैं और झगड़ा बढ़ाने से कोई लाभ नहीं है।
देवयानी ने पूछा -कहां जाएंगे ?
कहीं किराए पर घर ले लेते हैं, देवयानी चुप रही। अब तक देवयानी ने, जो डोर शकुंतला देवी के हाथों में सौंपी हुई थी उसने निश्चय कर लिया, अब यह डोर काटनी ही होगी अब मैं उनके हाथों की’ कठपुतली’ नहीं बनूंगी। यह सोचकर, शकुंतला देवी से बोली -हम इस घर से कैसे निकल जाएं और क्यों निकल जाएं ? क्या इस घर पर हमारा हक नहीं है ?
यह घर मेरे नाम है,शकुंतला देवी इठलाते हुए बोलीं।
मानती हूं, आपके नाम है, लेकिन इस घर में, हमने ही आपका नाम लिखवाया था, आपका मान- सम्मान बनाये रखने के लिए, उस समय, इस घर को मैं अपने नाम भी करवा सकती थी क्योंकि सारे कर्ताधर्ता तो यही थे
और यदि आपको लगता है कि यहां पर देवरानी को रहने का हक है, तो फिर मुझे भी रहने का उतना ही हक है। मैं इस घर की’ बड़ी बहू’ हूं। देवयानी के इन शब्दों को सुनकर, शकुंतला देवी तिलमिला गई और बोली -कितना बोल रही है ? अभी चली जा! मेरे घर से
नहीं जाऊंगी, जितना हक इसका है उतना ही मेरा भी है, यदि यह यहां रह सकती है तो मेरे लिए इतना ही घर बनवा दीजिए तब मैं इस घर को छोड़कर चली जाऊंगी। शकुंतला देवी ने आज पहली बार देवयानी के मुख से ऐसे कठोर और दृढ़ संकल्प वाले शब्द सुने थे।
देवयानी बोली- मैं इससे पढ़ाई में कोई कम नहीं हूं , मेरा विवाह थोड़ा, इससे पहले हुआ है,जितना ये लाई है ,
उतना तो मैं अब तक कमा लेती ,यदि आप लोगों ने मेरी नौकरी नहीं छुड़वाई होती। कोई कम लाता है कोई ज्यादा लाता है, जो भी लाता है अपने लिए लाता है। यह मुझे नहीं दे रही है और ना ही मैं इसका कुछ ले रही हूं। यदि आप यह सोचती हैं कि इसके सामने आप मेरी बेइज्जती करेंगी तो आप गलत सोच रही हैं।
उस समय तो उन्होंने कुछ नहीं कहा -किंतु मन ही मन, छोटी से मिलकर दृढ़ निश्चय कर लिया था, इसको घर इस घर में इतना तंग कर देंगे, यह घर छोड़ने पर मजबूर हो जाएगी। दोनों एक हो गई, कभी साग- सब्जी छुपा लेती, कभी दूध उठाकर रख देतीं , यहां तक की माचिस, भी छुपा लेती थीं।
देवयानी चुपचाप उनकी हरकतें देखती और उनका किसी न किसी तरह काट कर देती लेकिन देवयानी मानसिक और शारीरिक रूप से बहुत ही परेशान हो चुकी थी।
एक दिन देवयानी अपनी सास से बोली -मुझे इतना भी परेशान मत करो !जिसके बल पर आप कूद रहीं हैं ,कल को यदि ये आपको परेशान करे,तो मैं भी सहायता के लिए हाथ न बढ़ा सकूँ।
किन्तु उसकी सास की हरकतों पर कोई असर नहीं पड़ा,मुझे किसी की जरूरत नहीं।
इतना सब झेलने के पश्चात देवयानी ने एक दिन अपने ससुर से सभी बातें बताईं। सास के सामने ससुर भी नहीं बोल पाते थे। तब ससुर ने अपने बड़े बेटे से चुपचाप कहा -मैं तुम लोगों के लिए ,इस बगीचे को कटवाकर तुम्हारा हिस्सा बनवा देता हूँ। इसने जो ठान लिया है, करके ही रहेगी ,इसने आज तककभी मेरी नहीं सुनी, तो तुम क्या चीज हो ?
इस तरह देवयानी अपनी देवरानी और सास से अलग हो गयी और सुकून से धीरे -धीरे अपनी गृहस्थी में रम गयी किन्तु अब शकुंतला देवी को एहसास होने लगा था कि उन्होंने कितनी बड़ी गलती की है ?जब तो शकुंतला देवी ने देवयानी को चिढाँने के लिए देवरानी से कोई कार्य नहीं करवाया किन्तु अब उसकी देवरानी काम करना ही नहीं चाहती थी।
सारा काम शकुंतला देवी करती साफ -सफाई से लेकर ,बर्तन मांजना ,कपड़े धोना सुखाना ,उनकी छोटी बहु सिर्फ खाना पकाती और उसने अपने पति और सास से कह दिया -‘मेरे कोई चार हाथ नहीं हैं ,न ही मैं तुम्हारी नौकरानी हूँ। या तो स्वयं काम करो !वर्ण नौकरानी लगा लो !अब शकुंतला देवी स्वयं अपनी छोटी बहु के हाथों की ”कठपुतली ”बनकर रह गयीं थीं।
इस कहानी में ,शकुंतला देवी को, मैं यह एहसास कराते दिखा सकती थी कि अब उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ किन्तु जो व्यवहार ,जो बुझे तीर जैसे शब्दों के जख़्म शकुंतला देवी ने देवयानी को दिए ,क्या ये क्षमा योग्य थे ?हमारे संस्कार गलती की क्षमा को ही कहते हैं किन्तु गया वक़्त क्या कभी लौटकर आ सकता है ?ये आप पर छोड़ती हूँ ,यदि शकुंतला देवी को अपनी गलती का एहसास होता है ,तो क्या देवयानी उन्हें माफ़ करेगी ?आप जबाब दीजिये !उसे क्या करना चाहिए ?
✍️लक्ष्मी त्यागी