कुंती रात के अंधेरे में चुपचाप बैठी थी। आज उसकी बहु ने साफ़ कह दिया था,
“मैं एक पैसा नहीं दूँगी! जबरदस्ती की तो देख लेना, मैं दहेज का छूटा केस कर दूँगी!”
कुंती को कुछ जवाब नहीं सूझा। बस आँखें नम हो गईं। दिल से एक आवाज़ निकली —
“बहु, ये मत भूलो — भगवान सब देखता है…”
वक़्त ने जैसे पुराने ज़ख्मों को फिर से कुरेद दिया था।
तीस साल पहले की बात है। कुंती उस वक़्त खुद एक नई बहु थी — अमीर, घमंडी और अधिकार जताने वाली। घर में हर कोई उसकी बात मानता था। उसकी सास एक सीधी-सादी, सहनशील महिला थीं। घर में उसकी ननद मीना थी, जो मध्यमवर्गीय परिवार में ब्याही गई थी।
एक दिन मीना के पति की नौकरी चली गई। घर की हालत बिगड़ने लगी। कुंती की सास चाहती थीं कि बेटी-दामाद को थोड़ा आर्थिक सहारा दें। उन्होंने घरवालों से कहा कि सभी मिलकर कुछ पैसे दें।
लेकिन कुंती भड़क गई।
“हमारे पैसों से किसी को क्यों मदद करें? मैं एक पैसा नहीं दूँगी! जबरदस्ती की तो मैं दहेज का झूठा केस कर दूंगी!”
डर के मारे सास कुछ नहीं कर पाईं। मीना ने किसी तरह जीवन को संभाला। बाद में उसके पति को फिर नौकरी मिल गई।
कुंती को लगा, उसने जीत हासिल की। लेकिन आज वक़्त ने उसे घुमा कर वहीं खड़ा कर दिया था।
अब उसकी अपनी बेटी उसी मोड़ पर थी। दामाद की नौकरी जा चुकी थी। कुंती और उसके पति ने सोचा कि बेटी-दामाद को थोड़ा सहारा दें — जैसे कभी उसकी सास ने सोचा था।
पर इस बार दीवार उसकी बहु बनी।
वही ताने, वही धमकी — जो कभी कुंती ने दिए थे, आज वही शब्द उसे मिले।
उस रात कुंती की नींद नहीं आई। उसे अपनी सास का वो दुखी चेहरा याद आया। वो बोली —
“माँ जी, आपने ठीक कहा था… जब तक अपने ऊपर नहीं गुजरती, किसी का दर्द समझ नहीं आता।” यह मत भूलो कि भगवान सब देखता है
सुबह उसने एक निर्णय लिया।
उसने अपनी बेटी को एक लिफाफा भेजा — उसमें कुछ पैसे थे, कुछ आंसू और बहुत सारी माफ़ी।
लेखिका: रेणु अग्रवाल