आज गौरवी के गाँव सहानपुर में बासंती हवाएँ बह रही थीं। हर तरफ चहल पहल नजर आ रही थी।आम के पेड़ों पर बौर आ चुके थे– उनकी महक सब जगह फैली हुई थी ।पूरे गाँव में एक खास तरह की चहक थी — जैसे कोई बड़ा उत्सव आने वाला हो। दरअसल,
यह उत्सव ही तो था — गाँव के सबसे प्रिय व्यक्ति– गिरधर की बेटी–गौरवी की शादी तय हुई थी जो पूरे गाँव की चहेती थी क्योंकि उसने अपने गाँव के विकास के लिए– अपनी बहनों की पढ़ाई को जारी रखने के लिए बहुत योगदान दिया था।
गौरवी बहुत सुंदर गौरवर्णा थी, पर उसकी ये सुंदरता सिर्फ उसके चेहरे की ही नहीं थी– उसका मन भी निष्कलुष और सुंदर विचारों वाला था। गौरवी पढ़ी-लिखी, समझदार और सहृदय थी। वह हर निर्बल की सहायता करने का प्रयास करती थी। उसने अपने गाँव की अशिक्षित लड़कियों को पढ़ाने का बीड़ा उठाया था। उसके पिताजी– गिरधर—
जो कि स्वयं भी गाँव के स्कूल में अध्यापक थे–हमेशा कहते, “गौरवी बिटिया—शादी तो एक दिन होनी ही है, पर पहले अपने आप को मजबूत बनाना ज़रूरी है– अपनी एक पहचान बनानी जरूरी है।” उसके पिताजी गौरवी को बताते ,” बिटिया– शादी एक सामाजिक अनुबंध ही नही अपितु दो व्यक्तियों के मध्य एक समझौता,समझदारी और सम्मान का नाम है– शादी में एक दूसरे के प्रति समर्पण होना चाहिये।”
गौरवी की शादी विजय से तय हुई थी, जो शहर में एक शिक्षक था और अपने माता-पिता की इकलौती संतान था। जब विजय पहली बार गौरवी से मिलने आया तो वह गौरवी की समझ और उसकी समाज सेवा की भावना से बहुत प्रभावित हुआ। उसने गौरवी से कहा, “मैं एक ऐसी जीवनसाथी चाहता हूँ जो मेरी बराबरी की हो — विचारों में, स्वप्नों में, और जिम्मेदारियों में—
वो ना केवल घर के काम तक ही सीमित रहे बल्कि समाज सेवा के काम में भी योगदान करे– स्वयं भी खुश रहे और मुझे भी खुश रहने के अवसर दे,मैं कहीं गलत हूँ तो मुझको रोके लेकिन अनावश्यक रोकटोक ना करे।”
विजय की बात सुनकर गौरवी धीरे से मुस्कुरा दी थी।गौरवी को पता था, यही सच्चा जीवनसाथी है जिसकी उसे तलाश थी।
गौरवी की शादी के दिन नजदीक आने लगे।उसकी
शादी की तैयारियाँ पूरे गाँव में जैसे त्योहार बन गईं। महिलाएँ मिलकर मेंहदी और हल्दी के पारंपरिक गीत गा रही थीं, बच्चे फूलों की सजावट में लगे थे, और हर कोई इस विवाह को ‘शुभ विवाह’ कहकर संबोधित कर रहा था क्योंकि ये समान विचारधारा वाले दो दिलों का मेल होने जारहा था– शुभ विवाह। गाँव के बुजुर्ग गौरवी और विजय को दिल खोलकर आशीर्वाद देरहे थे।
शादी का दिन भी आ गया।शादी के दिन गौरवी पीले बनारसी परिधान में सजी थी, माथे पर बिंदी, हाथों में हरी चूड़ियाँ, और आँखों में अपने भविष्य के सपनों की चमक।उसके हाथों की मेहंदी की लालिमा विजय के नाम से और भी गहरी होकर सुंदर लग रही थी। विजय ने जब गौरवी को देखा, तो नज़रें झुकाने की बजाय मुस्कुरा कर कहा, “आज तुम सच में मेरी कविता बन गई हो जिसमें हर शब्द तुम्हारे चेहरे की मुस्कान– तुम्हारी खुशी से– तुम्हारे विचारों से मेल खा रहा है।”
जयमाल का समय आया और संग सहेलियों के साथ चुहलबाजी के बीच जयमाला सम्पन्न होगई — दोनों के गले में जयमाला उनके रूप और मन को सुशोभित कर रही थी।और फिर फेरों का समय भी आगया।फेरे शुरू हुए। पंडित जी मंत्र पढ़ रहे थे और हर फेरे के साथ राधा और विजय एक-दूसरे से यह वचन ले रहे थे — कि वे बराबरी से चलेंगे, एक-दूसरे के सपनों का सम्मान करेंगे, और जीवन के हर रंग को– चाहे वह सुख का हो या दुख का– साथ मिलकर जिएँगे।
शादी के बाद विदाई का समय आया। गौरवी की माँ की आँखें नम थीं, पर उनमें संतोष भी था। उन्होंने गौरवी को गले लगाकर कहा, “तू अब सिर्फ मेरी बेटी नहीं रही, अब तू विजय की पत्नी है — उसके घर का मान सम्मान बनाये रखना अब तेरी जिम्मेदारी है बिटिया–तू अब एक नई कहानी की रचयिता है — उस कहानी की, जिसमें प्यार, सम्मान और साझेदारी है और उसका नाम है ‘शुभ विवाह’।”
विवाह सिर्फ रस्मों का नाम नहीं होता — वह एक वादा होता है, दो आत्माओं के बीच– दो शरीरों के मध्य कि जीवन की हर राह पर वे साथ चलेंगे, हाथ थामे, मुस्कुराते हुए– अपने दोनों के सपनों का मान रखेगें– एक की परेशानी दूसरे की भी होगी और निवारण का प्रयास करेंगें दोनों मिलकर।और वही विवाह होता है शुभ विवाह।।
लेखिका:
डॉ आभा माहेश्वरी अलीगढ