सुलोचना मां – गीतू महाजन’ : Moral Stories in Hindi

सुबह से ही व्यस्त सुलोचना जी सारे कामों की निगरानी अच्छे से कर रही थी।बार-बार घड़ी की और देखते उनकी नज़र मेहमानों की लिस्ट पर भी बहुत बार घूम चुकी थी।’कैसे होगा सब’ यही सोचकर उनके हाथ और तेज़ी से कम कर रहे थे।हालांकि..बच्चे कई बार फोन पर कह चुके थे कि उनकी सारी तैयारी हो चुकी है और उन्हें फिक्र करने की कोई ज़रूरत नहीं है पर सुलोचना जी की घबराहट और ज़ल्दबाज़ी देखकर उनके घर काम करने वाली राधा ताई भी मुस्कुरा रही थी। 

दरअसल…शाम को सुलोचना जी की रिटायरमेंट की पार्टी थी। लगभग 30 साल से अध्यापन का कार्य करती सुलोचना जी ने एक बहुत लंबा और कठिन वक्त गुज़ारा था।एक अध्यापिका से प्रधानाचार्य तक का सफर उनके लिए बहुत चुनौतियों भरा रहा और उन्होंने इस सफर के लिए जी तोड़ मेहनत भी की थी। 

पढ़ाई लिखाई में हमेशा अव्वल रहने वाली सुलोचना का जन्म एक मध्यम वर्गीय घर में हुआ था।दो बड़े भाइयों की लाड़ली सुलोचना अपनी काबिलियत और विनम्र व्यवहार की वजह से विद्यालय और परिचितों में प्रसिद्ध थी।पिता का व्यापार था और बड़े होकर दोनों भाई भी पिता के साथ ही हो लिए थे जिससे व्यापार बढ़ने के साथ-साथ उनकी माली हालत में भी बहुत सुधार हुआ था। 

ग्रेजुएट होते-होते घर वालों ने सुलोचना का रिश्ता पक्का कर दिया था।हालांकि..वह आगे और पढ़ना चाहती थी पर सब की ज़िद के आगे उसने अपनी स्वीकृति दे दी।रिश्ता शहर के नामी-गिरामी खानदान के छोटे पुत्र महेश का था। इसलिए घरवाले सुलोचना पर विवाह का दबाव बनाए हुए थे।

खैर, विवाह के बाद सब ठीक चल रहा था। सुलोचना के ससुराल में पति के अलावा सास- ससुर और जेठ-जेठानी थे जिनके दो छोटे बच्चे थे।महेश अपने पिता और बड़े भाई सुकेश के साथ व्यापार में हाथ बंटाता था।सुलोचना अपने छोटे से सुखी परिवार में खुश थी। समय का पहिया अपनी गति से चल रहा था।

इस कहानी को भी पढ़ें: 

“अगला जन्म किसने देखा?” – दीपा माथुर : Moral Stories in Hindi

सुलोचना की शादी को लगभग 2 साल होने वाले थे..वह घर की चहेती छोटी बहू बन गई थी और अब तो सभी उससे मां बनने की उम्मीद भी कर रहे थे।सास- ससुर उसे बेटी समान प्यार देते और जेठानी उसकी पक्की वाली सहेली बन चुकी थी पर..किस्मत को शायद कुछ और ही मंज़ूर था। एक दिन महेश के साथ दूसरे शहर से किसी फंक्शन से आते हुए कार एक्सीडेंट में वे दोनों बुरी तरह घायल हो गए थे।

 कुछ दिन अस्पताल में रहने के बाद घर आकर सुलोचना को घर वालों का व्यवहार बदला बदला सा लगा।अस्पताल में भी उसे कुछ ऐसा ही लगा था।महेश से बात करने पर वह उसे उसका वहम बताता पर..सुलोचना जानती थी कि बात तो कुछ और ही है।वह चाहती थी कि कोई उसे खुलकर बताए पर कोई नहीं बोलता।बस..सब उससे खिंचें रहते।उसे लगता है जैसे जेठानी कुछ कहना चाहती हो पर बोल ना पा रही हो।महेश के व्यवहार में भी अब बदलाव साफ महसूस होने लगा था।फिर एक दिन रास्ते में उसे उसकी फैमिली डॉक्टर मिली जिसने बातों बातों में उसे उसके एक्सीडेंट में उसकी मां बनने की क्षमता खत्म होने पर उसे सांत्वना दी थी।

 घर पहुंचते पहुंचते उसकी आंखों के आगे से सारी धुंध छंट चुकी थी..पर..सबसे पहले वह महेश से बात करना चाहती थी।उसकी आशा के विपरीत महेश ने उससे तलाक लेने की इच्छा ज़ाहिर कर दी। सुलोचना ने बिना कोई सवाल जवाब किए इसकी हामी भर दी। ससुराल वाले ऐसी सोच रखते होंगे

उसने कभी सोचा ना था।मायके वालों ने उसे महेश जैसे आदमी पर केस करने को कहा पर सुलोचना अपने फैसले पर अडिग रही।कुछ ही देर बाद दोनों पक्षों की सहमति से तलाक हो गया।दोनों भाई सुलोचना की ढाल बन गए और भाभियों ने पूरा स्नेह दिया।भाभी के पूछने पर कि उसने महेश से कोई सवाल क्यों नहीं किया सुलोचना बोली,” जो मेरे साथ स्नेह का बंधन तक ना रख सका वह आगे क्या निभाता”? 

सुलोचना ने उसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा।अपनी पढ़ाई पूरी की और साथ ही ट्यूशन कर अपना खर्च पूरा करने की भी कोशिश की। हालांकि..उसके घर वाले इसके सख्त खिलाफ थे पर वह आत्मनिर्भर रहना चाहती थी।मायके वालों द्वारा दूसरी शादी की बात को उसने जड़ से नकार दिया था।

अब वह सारा ध्यान अपनी पढ़ाई पर देना चाहती थी और पढ़ाई पूरी होने पर उसकी काबिलियत की वजह से उसे कॉलेज में अध्यापिका की नौकरी मिल गई।अब वो मायके से अलग घर में रहने लगी थी क्योंकि भाइयों की गृहस्थी में वह अपनी तरफ से कोई कोई परेशानी नहीं चाहती थी।हालांकि..वह जानती थी कि उसके इस फैसले से उसके भाई उससे खफा थे पर वह जानती थी कि उसके भाई उसे कितना प्यार भी करते थे।

 समय के साथ-साथ माता-पिता का साथ भी छुट गया था पर सुलोचना का सफ़र जारी था।अपने अध्यापन के साथ-साथ वह लिखने भी लगी थी।उसकी रचनाओं में जीवन की सच्चाई को ऐसे परोसा जाता कि पाठकों को लगता की रचना उनके जीवन का ही चलचित्र हो जैसे।शायद..कहीं ना कहीं अपनी रचनाओं में वह अपने मन के अंदर की दबी हुई पीड़ा को व्यक्त कर देती थी।धीरे-धीरे लेखिका के रूप में भी वह विख्यात हो गई थी।एक ही शहर में रहते हुए महेश तक भी इसकी प्रसिद्धि पहुंचने में देर नहीं लगी थी पर वह खुद तो महेश को एक कड़वा अतीत मानकर भूल चुकी थी।

इस कहानी को भी पढ़ें: 

कल की परछाई – आरती झा : Moral Story In Hindi

 सुलोचना का सफर यहीं नहीं रुका..उसने कई सारे विद्यार्थियों को मुफ्त पढ़ाया..कई विद्यार्थियों की वह फीस जमा करवा देती थी।कई गरीब लड़कियों की उसने शादी करवाई थी।कॉलेज के बाद उसे दम मारने की भी फुर्सत नहीं होती।उसके विद्यार्थी उसे ‘सुलोचना मां’ कह कर बुलाते थे।उसके घर हमेशा विद्यार्थियों का जमघट लगा रहता। परीक्षा के दिनों में रात-रात भर जागकर वह उनकी तैयारी करवाती। 

आज उसी की मेहनत से उससे पढ़े कई बच्चे ऊंचे पदों पर आसीन थे।शाम की रिटायरमेंट की पार्टी का सारा इंतज़ाम भी बच्चों द्वारा ही किया गया था।कॉलेज के सभी अध्यापक और स्टाफ के साथ-साथ शहर के अन्य लोगों को भी बुलाया गया था।सुलोचना बच्चों का प्यार और उनकी तैयारी देखकर अपने आंसू बहने से रोक ना सकी।तभी पीछे से किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा…बड़े भैया थे..अपनी बहन का इतना आदर और सम्मान देखकर उनकी आंखें भी नम थी।अपने चारों तरफ नज़र दौड़ाते सुलोचना सोच रही थी कि क्यों सिर्फ जन्म देने वाली औरत को ही मां समझा जाता है..क्या जन्म देने से ही मन और बच्चे का बंधन बनता है? 

सुलोचना अपने इन्हीं विचारों में गुम थी कि तभी माइक पर किसी बच्चे ने उन्हें पुकारा ,”सुलोचना मां” और वह भैया के साथ अपने स्नेह के बंधन में बंधे बच्चों के बीच चली गई।उसे लगा कि यह स्नेह का बंधन दुनिया के किसी भी बंधन से मज़बूत है।तालियों की गड़गड़ाहट हुई और वह स्टेज की तरफ बढ़ गई।

#स्वरचित 

#अप्रकाशित 

गीतू महाजन, 

नई दिल्ली।

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!