माँ रूपा को देख खुश हो गई। कुल्हे के आपरेशन के बाद वे कल ही घर आयी थीं।
रूपा चालीस किलोमीटर से रोज माँ से मिलने अस्पताल आती थी। वह उनकी जितनी कर सकती थी सेवा करती। कभी आटो से तो कभी बस से। उसके दो बच्चे थे। बड़ा बेटा पाँचवी में व छोटा बेटा दूसरी में पढ़ता था। दोनों बच्चे दादा-दादी के सानिध्य से व माँ के संस्कारों को आत्मसात कर बड़े हो रहे थे। रूपा के पति रमेश इकलौते पुत्र थे। सरकारी कार्यालय में काम करते थे। ससुर जी की एक एकड़ जमीन थी, अनाज-पानी ,सब्जी भाजी का खर्चा निकल जाता था। रूपा भी बहुत मेहनती थी। घर का पूरा काम स्वयं करती थी। सिलाई-बुनाई भी करके अपना हाथ खर्च निकाल लेती थी,और थोड़े बहुत पैसे बचा लेती थी।
रूपा की भाभी शोभा खाते-पीते घर की बेटी थी। उसे काम करना भाता नहीं था। मन की अच्छी थी। सास-ससुर का पूरा ध्यान रखती थी। उसके भी दो बच्चे छोटे-छोटे थे,बड़ा पाँच साल का व बेटी तीन साल की थी। दादा-दादी का मन उन में रमा रहता था।उनके वे खिलौने थे। बच्चे दिनभर दादा-दादी के आगे-पीछे खेलते रहते थे।
शोभा ननद रूपा को आया देख अनदेखा कर अपने कमरे में चली गई। रूपा माँ के पास बैठी रही। वह सेव फल लायी थी,काटकर माँ पिताजी को व बच्चों को खिलाया। वह घर जाने को उठी तो माँ बोली,”बेटा कुछ खा ले। चाय पीकर जाना। रूपा बोली,”जी माँ”।
ननद रूपा जाने से पहले भाभी के कमरे में जाने लगी। भाभी फोन पर किसी से बात कर रही थी। किसी से बोल रही थी, “अरे दीदी क्या बताऊंँ, जीजी रोज आ जाती हैं हाथ हिलाते, चाय नाश्ता किया और चलीं, अम्माजी को सम्हालते ही हैं, और इनकी भी आवभगत करो” ।
रूपा बात सुनकर ठिठक गयी। वह मन मसोस कर रह गई।
जो लिफाफा वह भाभी को देने वाली थी, चुपचाप माँ के तकिए के नीचे रख बिना कुछ कहे चली गयी।
अम्माजी आवाज लगा रही थी,”बेटा शोभा मुझे भूख लगी है कुछ खाने को दे दे”।
शोभा ने केला लाकर दे दिया। शोभा का पति दीपक पढ़ा लिखा था। अच्छी कंपनी में काम करता था। वह माँ की आफिस से आकर सेवा करता। उनके पैरों की मालिश करता। उन्हें पकड़ कर चलने में मदद करता। बातें करता। पिताजी भी बेटे की सेवा से प्रसन्न थे। माँ उसे हमेशा खूब आशीष देती रहती।
रात को भोजन के बाद जब शोभा सासू माँ को दवाई देने आयी, तो तकिये से नीचे झाँकता लिफाफा दिखा। तुरंत उठाया उसमें 500के नोट की गड्डी थी, और एक कागज दिखा जिसमें कुछ लिखा था। तुरंत पढ़ने लगी-
“भाभी,आप माँ की बहुत सेवा कर रहीं हैं। माँ भाग्यशाली हैं, जो आप-सी बहू मिली। मैं बेटी होकर भी सेवा नहीं कर पा रही हूँ, क्योंकि मेरी सासुमाँ को भी देखना होता है, उनको लकवे का दूसरा अटैक आने से वे लाचार हो गई हैं। मैं जब तक माँ से मिलने आती हूँ,रमेश जी उन्हें सम्हालते हैं । इतने दिन मैंने बताया नहीं सोचा,आप लोग परेशान होंगे। आप लोगों ने अस्पताल में बहुत पैसे खर्च किये, मेरे तरफ से भी कुछ पैसे मैं दे रही हूँ, मना नहीं करना। वे हम दोनों की माँ हैं। अब माँ घर आ गयी हैं, मैं रोज नहीं आ पाऊँगी, बच्चों की परीक्षा शुरु होने वाली है”।
शोभा की आँख में पानी आ गया।
तभी पिताजी कमरे में आये। बहू की आँख में आसूँ देख परेशान हो पूछने लगे “क्या हुआ बहू? “
“कुछ नहीं “कह के बहू ने चिट्ठी ससुर जी को थमा दी। पढ़ते-पढ़ते पिता जी की आँखों से गंगा जमुना बहने लगी।
रामाधार जी व उनकी पत्नी ने बड़ी मेहनत करके दोनों बच्चों का पालन-पोषण किया था।अच्छे संस्कार दिए। अपना पेट काटकर बेटे को अच्छी शिक्षा दिलवाई। रूपा बहुत होशियार थी, परन्तु ज्यादा नहीं पढ़ पायी क्योंकि, भाई की पढ़ाई का खर्चा अधिक था। पिताजी ने अपनी सामान्य स्थिति के कारण सामान्य परिवार में रूपा की कम उम्र में शादी कर दी थी।
रूपा ने कभी कोई शिकायत नहीं की। अपने परिवार से जो प्यार उसने पाया, उससे वह संतुष्ट थी। वह अपने ससुराल में खुश थी। अपने बच्चों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती रहती थी।
रूपा का पत्र पढ़कर रामाधार जी आत्मानुभूति से गर्वित हो गये थे। उन्हें आज अपनी परवरिश पर गर्व हो रहा था।
शोभा अपनी ननद का पत्र पढ़कर
उससे मिलने लालायित हो गई। उसने तुरंत रूपा को फोन लगाया।
रूपा की आवाज सुनते ही शोभा भरे गले से बोली,” दीदी आज आप बिना बोले चली गई। मुझे बहुत अफसोस है कि आप चाय पीकर भी नहीं गई”।
रूपा बोली,” भाभी मुझे जल्दी थी, बच्चों का स्कूल से आने का समय हो गया था,और अम्मा जी की दवाई का समय भी हो गया था।”
शोभा बोली,”आपका लिफाफा मिला दीदी।
आपकी सासुमाँ से मिलने हम कल आयेंगे?”
दूसरे दिन दीपक व शोभा रूपा के घर गये। उसने उनका खुशी-खुशी स्वागत किया। वह जानती थी, बात बढ़ाने से बढ़ती है। छोटी-छोटी बातों को तूल देने से रिश्ते बिगड़ जाते हैं।
रूपा ने भैया-भाभी से भोजन करने का आग्रह किया, परन्तु उन्होंने कहा बच्चों को छोड़ कर आये हैं, पिताजी परेशान हो रहे होंगे। वे दोनों चाय पीकर चले गये।
रात को रूपा जब भगवान को शयन कराने गई तो, देखा भगवान के पास उसका दिया लिफाफा रखा था। उसमें पत्र रखा था।
“दीदी आपका स्नेह ही अनमोल है। बुरा न मानें, बहन से लिया नहीं जाता,उनको दिया जाता है। अभी तो आपको भी अपनी सासूजी की दवाई के लिए पैसों की आवश्यकता है।”
प्रेषक –
सुनीता परसाई ‘चारु’
जबलपुर मप्र
स्वरचित, मौलिक , अप्रकाशित