वह काफी दिनों से पेट -दर्द से परेशान थी । कुछ भी खाने पर पेट भारी हो जाता, जी मिचलाने लगता,हर समय पेट में जलन होने लगती थी । जब तकलीफ सहन से बाहर हो गई थी तो के पास जाना पड़ा । डॉक्टर साहब ने पथरी का संदेह व्यक्त किया और कुछ परीक्षण करवाने के लिए लिखने लगे ।
तभी उसकी बहू ने डाक्टर की बात काटते हुए तुरंत कहा ” डाक्टर साहब ,इनके यह सब परीक्षण कई बार हो चुके हैं । आप तो बस कुछ दवाइयां लिख दें , जिससे इन की संतुष्टि हो सके ।”बहू ने संतुष्टि शब्द पर जोर दिया । डॉक्टर साहब ने एक गहरी नज़र से बहू को देखा और चुपचाप दवाइयां लिख दी।
‘ संतुष्टि ‘ शब्द उसे अंदर तक कचोट गया । वह अपने आप को बहुत ही असहाय महसूस कर रही थी और मन ही मन सोच रही थी कि मेरी बीमारी शायद इन लोगों की नजर में एक बहाना है । पर कहते हैं न कि” जिस तन लागे , सो तन जाने ” अक्सर कहने वाला बड़े ही सहज भाव से कुछ भी कहकर भूल जाता है, परन्तु सुनने वाले के मन में यह सब तीर की तरह चुभते रहते हैं ।
वह अतीत में पहुंच गई । वर्षों पूर्व उसके बेटे के कान में दर्द था । वहां डाक्टर के पास एक महिला कान दिखाने के लिए आई हुई थी । डॉक्टर साहब ने उसे टैक्नीशियन के पास श्रवण शक्ति टेस्ट करवाने के लिए भेज दिया ।उस महिला के साथ आई दूसरी स्त्री टैक्नीशियन से अनुरोध कर रही थी आप मेरी सास से कान की मशीन लगवाने के लिए मत बोलना । इन्हें कुछ नहीं हुआ है सिर्फ एज फैक्टर है ।उसके ज़हन में वह घटना चित्रवत् घूम गई ।
इसी प्रकार पड़ोस में एक सज्जन बीमार थे । वह लोग कुशल क्षेम जानने के लिए उनके घर पहुंचे । जैसे ही वह लोग उनके कमरे में प्रवेश करने लगे ,उनका बेटा तुरंत बोला “अंकल जी, अब इस कमरे में सोनू पढ़ता है ।उनका कमरा पिछवाड़े में है ।”
सारा घर पार करने के बाद वह उनके कमरे तक पहुंचे । वह मन ही मन सोच रही थी ‘ भला हो टैक्नोलॉजी का ।रात -बरात जरूरत पड़ने पर यह लोग फ़ोन तो कर सकते हैं ।’ पड़ोसी सज्जन उन्हें देखकर खिल गए । हाल -चाल पूछने पर बोले – ,”बाकी सब तो ठीक है, पर कमजोरी बहुत है ।”
इतना सुनना ही था कि उनका बेटा तपाक् से बोल उठा ,”कमजोरी तो अंकल होगी ही , पहले दिन में दो बार बार दूध लेते थे । खाने के अलावा सेब, संतरा, केला , पपीता सब लेते थे, पर अब इतना ले नहीं पाते हैं ।”कह कर खाने का सारा चिट्ठा खोलकर रख दिया ।
इधर वह सोच रही थी कि बच्चे कितना भी “खाने -पीने” वाले हों , मां-बाप कभी उसकी चर्चा दूसरों से नहीं करते, वरन्” हमारा बच्चा तो कुछ खाता ही नहीं ” कह कर उसकी खुराक पर पर्दा ही डालते हैं ।इधर ‘ये ‘बच्चे – – – –
जीवन की सांध्य वेला में जब माता पिता को इनके सर्वाधिक संरक्षण की आवश्यकता होती है ,यह बच्चे अपने ही घर -परिवार , जीवन में मस्त रहते हैं ।कई बार तो एक ही छत के नीचे रहते हुए भी एक दूसरे के दुख दर्द से अनभिज्ञ रहते हैं या यूं कहें कि एक दूसरे को अनदेखा कर , अनजान बन जाते हैं ।
इस लिए शारीरिक अक्षमता के चलते आर्थिक रूप से सक्षम होने पर भी कुछ बुजुर्गों को छोटी छोटी बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित रह कर जीवन यापन करना पड़ता है । कई साधन सम्पन्न बुजुर्गों को भी छोटी छोटी जरूरतों के लिए भी तरसते देखा गया है । यह हमारे विकसित समाज का आईना है ।
और अंत में ‘ये’ कुछ ऐसी यादें हैं ,जब भी स्मृति पटल पर आती हैं ,मन में एक हूक सी उठती है और मस्तिष्क कुछ सोचने को बाध्य हो जाता है कि यह हमारे समाज की कैसी तस्वीर है ?
#ढलती सांझ
बिमला महाजन