सब्जी का भाव – हरी दत्त शर्मा : Moral Stories in Hindi

“पचास बार कहा है कि सब्जी खरीदना मेरे वश का नहीं है, न तो मुझे भाव ताव करना आता है और ना ही छाँट बीन करना “

मैं भिनभिनाया हुआ था, “खरीद भी लाऊं तो तुम हजार मीनमेख निकाल देती हो। कोई ठेल बाला आए तो उससे खरीद लेना या शाम को बाजार हो आना। “

    “ठीक है फिर आज डिनर में दाल मखनी और खीरे का रायता बना लूंगी, सब्जी नहीं। ” पत्नी ने अर्थ पूर्ण नज़र से मुझे देखा।

  ” हाँ, ये ठीक है ” मैं खुश हो गया। दाल मखनी मेरी फेवरिट है।

   “सुनो “

    “हूं”

    “पर दाल और मक्खन की टिक्की लानी पडेगी, दोनों खत्म हो गए हैं, लाकर देते जाना “

  ” ठीक है , अभी जाता हूँ, ” मैं जाने के लिए उठ कर खड़ा हुआ।

   ” सुनो, जब जा ही रहे हो तो एक एक किलो प्याज और टमाटर भी लेते आना, धनिया मिरच तो वो वैसे ही डाल देगा ” पत्नी हाथ में थैला पकड़ा कर मुस्कराते हुए बोली।

    मैं थैला लेकर पैदल ही चल पड़ा।

  “सुनो ” पीछे से आवाज आई।

   “अगर हरा काशीफल मिल जाए तो आधा किलो ले आना “

   काशीफल के नाम से मेरे सीने में आग सुलगने लगी। मुझे कतई पसंद नहीं है पर पत्नी और बच्चे बड़े चटखारे ले ले कर खाते हैं।

   “ठीक है ” न चाहते हुए भी मेरी हाँ निकल गई।

  अभी परचून बाले की दुकान पर पहुंचा ही था कि फोन कॉल आ गया।

   ” मैं कह रही थी कि दाल मत लाना, डिब्बे में तकरीबन आधा किलो दाल रखी मिल गई है, मक्खन की भी आधी से अधिक टिक्की पड़ी है तो…… “

    मैंने हाथ में पकड़े थैले की ओर देखा और फोन जेब में डाल कर सब्जी मंडी की ओर पलायन शुरू किया। मन में सोचता जा रहा था कि जब आया हूँ तो कोई अपनी पसंदीदा सब्जी भी ले लूंगा। कल फिर से आने का झंझट भी कट जाएगा। सब्जी बाले की दुकान पर पहुंचने से पहले ही फिर से फोन बज उठा।

  “सुनो, कोई और सब्जी मत लाना , क्या है कि हरी सब्जियां ताज़ा ही अच्छी लगती हैं, और वैसे भी आजकल  हरी सब्जी जल्दी ही ख़राब हो जाती हैं। ठीक है?, हाँ खीरा भी जरूर लेते आना, वाकी काशीफल मत भूलना, और टमाटर प्याज भी….. “

   ” ठीक है भाई, इतना भी भुलक्कड नहीं हूं।”

  काशीफल का नाम फिर से सुन कर मैं पकने लगा,           “अगर एक बार में ही सारी चीजें बता दिया करो तो बार बार फोन करने की ज़रुरत ही न पड़े।” मैने फोन काट दिया।

 आदेश…. हाँ, सही सुना, आदेश पालन किया और वो ही सब्जी खरीदी जो आदेशित थी।

  “ये लो, ” मैने थैला पकडाते हुए कहा, ” मेरा लंच तैयार है क्या? देर हो रही है। “

   लंच का टिफिन बाइक पर लटकाया और कंपनी की ओर निकल गया। मन में एक संतोषप्रद भाव था कि चलो ना चाहते हुए भी अगर सब्जी खरीदनी पड़ी तो क्या हुआ, रात को दाल मखनी तो खाने को मिलेगी।

  दोपहर के समय आज लंच भी पूरा नहीं किया आधे से अधिक हिस्सा अपने सहकर्मी गुप्ता को खिला दिया। यह सोच कर कि आज डिनर में ही दाल मखनी दबा कर खाई जाएगी। और ये गुप्ता मुफतखोर भी अकसर बोलता रहता है कि भाभी जी बहुत ही अच्छी सब्जी बना कर भेजती हैं।

  रात में खाने की टेबल पर –

  ” वाउ मम्मा,… काशीफल की सब्जी… लव यू मम्मा। “

  ” मम्मा!  आप तो हमारे मन को भी पढ लेते हो। आपको कैसे पता चला कि हम इसी सब्जी की फरमाइस करने बाले हैं? “

   ये मेरे बेटी बेटे थे जो सब्जी देख कर चहक रहे थे। मैं कुढ रहा था। कहाँ दाल मखनी का प्रलोभन और फिर कहाँ  वही मुंह में जबरन ठूंसी जाने बाली काशीफल की सब्जी।  मैं समझ गया, ‘होइयहि वही, जो राम रचि राखा’ दालमखनी एक छलावा मात्र था, जुमला था। बनना तो काशीफल ही था और खाना भी वही था।

 सो, सब्जी खरीदने जाना भी पड़ा और खाना भी।

  मैंने  पूछा भी, ”  क्यों भाई, तुम तो दालमखनी बनाने बाली थी, फिर ये क्यों? “

   ” अरे वो हुआ ये कि जब मैं दाल साफ करने बैठी तो पता चला कि उसमें कीडे लग चुके हैं ” वो हंसते हंसते बता रही थी और मैं मन ही मन कुढ रहा था। “कोई बात नहीं, अगली बार आपकी ही पसंदीदा चीज बनेगी .”

 ” अगली बार कब? और फिर कल क्यों नहीं? “

 ” कल तो बच्चे स्कूल की ओर से पिकनिक पर जा रहे हैं, सो सैंडविच और ब्रेडरोल तो घर से ले जाएंगे और शाम को सभी किसी रेसटोरेंट में डिनर करेंगे,… तो  अब बच्चों के पीछे क्या अच्छा बनाऊं, तुमही बताओ ,अच्छा लगता है? “

  मन मसोस लिया और काशीफल की प्लेट अपनी ओर खींच लेने में ही बुद्धिमानी समझी ।

  दो दिन बाद –

  ” सुनो “

  “बोलो “

   ” आज फिर से कोई हरी सब्जी नहीं है, और फिर छोटी ननद भी तो आ रही हैं ननदोई जी के साथ। कैसे चलेगा बिना सब्जी के?  अभी आधे घंटे पहले ही फोन आया था। ग्यारह बजे तक वो लोग आ जाएंगे । काम बहुत है नहीं तो मैं खुद ही ले आती। क्या करूं? “

 मरता क्या न करता, फिर थैला लेकर सब्जी मंडी जाना पडा। मेरी इस परेशानी में मेरा कोई भागीदार नहीं था। मन कर रहा था कि हरामखोर गुप्ता को फोन करके कहूं कि सब्जी खरीद कर देजा , साला फोकट की खाने को तारीफ करता रहता है।

   उसी दिन शाम को –

  “सुनो”

 ये सुनकर मैं सशंकित हो उठा। आज फिर कुछ एसा है जो मेरे मनमुताविक नहीं है।

  “बोलो ” मैं जानना चाहता था।

  ” दोपहर में जीजू ने कुछ खाया ही नहीं था, पेट में कब्ज की शिकायत बता रहे थे “

   “तो फिर ” मैने जिज्ञासा प्रकट की।

   ” फिर क्या,  उनने कह कर लौकी की पतली सब्जी बनबाई थी पर……. “

     ” पर क्या? “

   ”  लौकी तो अच्छी बनी थी, उनने खाई भी बहुत थी, पर फिर भी थोड़ी सी बच पड़ी है ।”पत्नी बड़ी मासूमियत से बोली ” मेरा भी आज ब्रत है वरना मैं तुम्हें ना कहती। “

   ये लौकी,तोरई, कद्दू टिंडा मेरे जीवन में किसी सजा से कम नहीं हैं। ” तो बच्चों को खिलाओ, उनकी तो पसंदीदा  सब्जी है “

    ” वो अपनी बुआ के साथ ही पेट भर कर खा चुके हैं, अब नहीं खाएंगे ” वह सिर झुका कर बोलती रही, “अब फेंक तो सकती नहीं, इतना सारा घी जो डाला है। “

    “ठीक है भाई, खानी तो पडेगी ही। “

  मुझे ही सरंडर करना था, सो कर दिया।

छुट्टी बाला एक दिन, करीबन दस -साढे दस बजे –

   “सुनो “

 जाना पहचाना तीर कानों में इस पार से उस पार हो गया।

   “कहो “

   “कभी अपने आप भी सोच लिया करो कि घर में किसी चीज की जरूरत तो नहीं “

  ” क्या लाना है? बताओ, शाम को ले आऊंगा “

   “शाम को क्या फायदा, दोपहर के लिए कोई सब्जी नहीं है “

    ” देखो, कंपनी की ओर से मुझे एक ही वीक आॅफ मिलता है, कम से कम आधा दिन तो मुझे मेरे तरीके से रहने दिया करो। वैसे भी रात को नींद नहीं आई, थकान महसूस हो रही है। तुम कोई भी दाल बगैरह बनालो “

   “ठीक है फिर जो बने, वो खा लेना “वह अंदर चली गई।

 ‘जो बने वो खा लेना?…? क्या…… मतलब क्या हो सकता है इस बात का ‘ मेरे मुंह का स्वाद लौकी तौरई की सब्जी के स्वाद जैसा हो गया। मैं भी अपने कमरे में जाकर लेट गया।

    अभी बमुश्किल दस मिनट ही बीते होंगे, कमरे में पत्नी का पदार्पण एक शरारतपूर्ण मुशकराहट के साथ हुआ।

   ” ज्यादा थके हो? सिर या पैर दबा दूं ? “

मैं भौंचक्का सा होकर देखने लगा। समझते देर नहीं लगी कि इस दयाभाव के पीछे कोई तो साजिश है। कुछ भी हो,  आज सब्जी लेने तो जाउंगा ही नहीं। अपने सारे दिमागी हथियार तैयार किए और हर आपात स्थिति से निपटने के लिए तैयार हो गया।

   ” डिंपी की मम्मी कह रही थी कि……….. “

     ‘डिंपी की मम्मी…… यानी पडोस के तीसरे घर में रहने बाली क्षमा… क्षमा वालिया ‘ नाम सुनते ही दिमाग में सनसनी फैल गई। लौकी -तोर ई  वाला स्वाद मुंह से गायब हो गया। कभी आमने सामने आ  जाने पर उसका मुशकरा कर हाय हेलो करना और हाथ की दो उंगलियों से चेहरे पर लटकते बालों को पीछे हटाना मेरे लिए जानलेवा हमला होता था। मैं भी हाय हेलो से आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं कर पाया। उसका नाम भर मुझे आकर्षण में बांधे रखने के लिए काफी था। मैं खयालों में गोते लगाने लगा। तभी मेरी तंद्रा को चुनौती देती आवाज सुनाई दी। 

    ” कहाँ खो गए? ” पत्नी ने मुझे हिलाते हुए पूछा।

  मुझे लगा कि मेरी चोरी पकडी गई है।

   ” अरे कुछ नहीं, आफ़िस के काम के बारे में सोच रहा था।  ….हाँ,  तुम… तुम कुछ कह रही थी? ” मन के भाव चेहरे पर न चढ़ने पाएं, इसकी मैने भरपूर कोशिश की।

    ” डिंपी की मम्मी का फोन आया था, वो अपनी सहेली की बीमार सास को देखने उसके घर विमल नगर गई है। बापस आने के लिए कोई आटो रिकसा नहीं मिल रहा। तो…. तो…. रहने दो, मैं कोई बहाना बनाकर मना कर देती हूँ, तुम भी थके हुए लग रहे हो। बरना तुम ही ले आते, आखिर पडोसी ही पडोसी के काम आता है। पर चलो, आप आराम कर लो, मैं मना कर देती हूँ। ” पत्नी उठ खड़ी हुई।

    अपने आकर्षण के केंद्र विंदु का सानिधय पाने का सुअवसर कौन मूर्ख छोडता है। मै भी नहीं छोडना चाहता था। ” सुनो, एक कप अच्छी सी चाय पिलादो, फिर सोचता हूं कि क्या करना चाहिए। ” मैं भी उठ खडा हुआ।

पत्नी ने मेरे चेहरे को गौर से देखा जैसे मेरा दिमाग पढ रही हो, और बिना कुछ कहे चाय बनाने चली गई।

    मेरा दिल उछल पडना चाहता था कि आज पहली बार उससे अकेले मिलना होगा। रास्ते भर कुछ मीठी मीठी बातें होंगी। बाइक पर बैठ कर कंधे पर हाथ रखने का अनुभव कितना सुखद अहसास होगा।

    मैं अभी खयाली पुलाव पका ही रहा था कि चाय आ गई। अब चाय पीना समय बरबाद करना लग रहा था। जल्द से जल्द मन अपने सपनों के प्रियतम के समीप पहुंचना चाहता था।

   अपने सबसे अच्छे और मंहगे कपड़े पहने और बाइक निकाली। पत्नी बड़े गौर से देख रही थी। पर मैने सब नजर अंदाज कर दिया।

 “सुनो, ” थैला पकडाते हुए वो बोली, ” जब जा ही रहे हो तो सब्जी भी लेते  ही आना “

  आज मुझे न थैला बुरा लग रहा था और ना ही सब्जी खरीदना। मैं निकल पडा अपने एकतरफा इश्क़ की काल्पनिक सुखद अनुभूति पाने के रास्ते पर।

    अभी पांच मिनट ही हुए कि फोन बज उठा। जैसी आशंका थी, फोन पर पत्नी ही थी। “हाँ,  बोलो ” मैने फोन उठा कर पूछा।

   ”  सुनो कहाँ पर हो? “

    “अरे अभी तो मंडी से थोड़ा सा आगे ही निकला हूं, थोड़ी सी देर ही विमल नगर पहुँच जाउंगा। तुम बताओ, फोन क्यों किया? “

  ” अरे मैं कह रही थी कि अब विमल नगर जाने की जरूरत नहीं है। वालिया को आॅटो मिल गया था, वो घर आ गई है। तुम बापस आ जाओ। और हाँ, सब्जी मंडी होते हुए आना ” 

     मेरे खयालों के सारे महल एक ही क्षण में धरासाई हो गए। जिंदगी में पहली बार ही तो मौका मिला था अकेले बतियाने का, कुछ रोमांच हासिल करने का, सब छितर वितर हो गया। बाइक पर लटका थैला अब मुंह चिडाने लगा। कंधे पर रखने बाले हाथ का  मखमली एहसास फुर्र हो गया और दिमाग़ में कांटों की तरह चुभने लगा।

 पर ….

   पर क्या, मन मसोस कर सब्जी के साथ घर लौटा।

 गेट पर मिसिज वालिया और मेरी पत्नी हँस हँस कर बतियाती हुई मिली, ” गाँव से हूँ और कम पढी लिखी हूँ तो क्या हुआ, बैल की नाक में रस्सी डालना तो लड़कपन में ही सीख लिया था ” पत्नी की बात सुनता हुआ मैं सीधे अंदर चला गया। उन दोनों की  खिलखिलाहट मुझे अंदर तक सुनाई दे रही थी।

   मैं इतना खिसियाहट में था कि अगर बिल्ला होता तो खंबे ढूँढ ढूँढ कर नोंचता।

  उसी रात डिनर के समय –

    “क्या बनाया है? “

    ” तौर ई”.

    नाम सुनकर ही स्वाद कसैला हो गया पर फिर तुरंत ही सब सहज सा हो गया। शायद नियति स्वीकार कर चुकी थी कि घर में यही सब्जियां बनती हैं और सब को

खानी पड़ती हैं।

   सब्जी न लाने के लिए जो दिमागी हथियार तराश किए थे, सब धरे के धरे रह गए। बैल की नाक मैं रस्सी डालने का अर्थ समझ में आ गया।

   ” आखिर तुम जीत ही गई ,” तोरई की सब्जी के साथ निवाला मुंह में रखते हुए मैने पूछा, ” वालिया को लाने का तो केवल वहाना था। असल में तो सब्जी मंडी ही भेजना था “

    वह खिलखिला कर हँस पड़ी, ” आप भी तो जीत गए। “

     “कैसे? ” मैने अचरज भरी नजर से देखा।

      “अरे भाई सब्जी खरीदना भी सीख गए और खाना भी। ” वह ठहाका मार कर हँस पड़ी और मैं उसके शरारती चेहरे को घूरता रह गया।

 व्यंग रचना (मौलिक) –

              हरी दत्त शर्मा (फिरोजाबाद).

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