कैद से मुक्त – डा.मधु आंधीवाल

इस  कोरोना काल ने सारा जग जीवन ही अस्त व्यस्त कर

दिया । रुचिका आज अपने को बिलकुल अकेला और असहाय महसूस कर रही थी । जब सब सयुंक्त परिवार था अपने लिये सोचने की फुर्सत ही नहीं मिली । सास  का अनुशासन  और भरा पूरा परिवार । कालिज के समय के सारे शौक पता ना कौनसी दाल और मसाले के साथ कुट गये और पिस गये । गृहस्थ जीवन एक कठोर तपस्या है फिर अपने बच्चे बड़े होने लगे जिम्मेदारी और बढ़ गयी । अब सब अपनी अपनी गृहस्थी में मस्त ।

       सब कुछ अच्छा चल रहा था पर कोरोना ने रुचिका के अन्दर के दहशत पैदा कर दी थी । रुचिका धीरे धीरे अवसाद में घिरती जा रही थी । बस सारे दिन अकेले कमरे में जरा सी आहट से भी डर जाती । पति रवि उसकी मनोदशा समझ नहीं पा रहे थे । बच्चे वीडियो काल करते तो बहुत कम बात करती । सब कुछ थम गया था । रवि उसकी अलमारी में कुछ ढूढ़ रहे थे अचानक उसकी डायरी मिली और उसमें उसके हाथ की लिखी कुछ कविता कुछ कहानियाँ । जब पूरी अलमारी का जायजा लिया तब देखा पूरी अलमारी उपन्यास और अच्छे लेखकों की किताबों से भरी हुई थी पर पता नहीं कबसे उन्हें छुआ भी नहीं गया था । रवि ने सोचा शायद ये किताबे रुचिका को अवसाद से बाहर ला सकें । रवि ने कहा रुचिका तुमको याद है गोदान शरत चन्द्र का लिखा हुआ है रुचिका ने कुछ सोचा और बोली आपको कुछ भी पता नहीं प्रेमचन्द का लिखा है अरे आप क्या जानो कभी आपको शौक ही नहीं था और वह तुरन्त उठी और अपनी भूली बिसरी अलमारी को खोल कर किताबो को दोबारा सजाने लगी रवि को लगा अब शायद पुरानी वाली रुचिका दोबारा जन्म लेलेगी । शादी के बाद वह कहती थी सुनो रवि पूरा समय सबके लिये है पर दोपहर के दो घन्टे मेरे हैं जहाँ केवल मैं ,मेरी किताब ,मेरा पलंग और मेरा तकिया होता है उस सपनों की दुनिया में मै किसी का हस्तक्षेप पसंद नहीं करती। दूसरे दिन  रवि को रुचिका अपने सपनों की दुनिया में पलंग पर अपनी किताबों के साथ जो बर्षों बाद अलमारी की कैद से मुक्त हुई थी मुस्कराती दिखी ।

स्व रचित

डा.मधु आंधीवाल

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