” बहू..एक गिलास पानी तो दे देना…प्यास से मेरा गला सूख रहा है और हिचकी भी…।” जमुना जी ने अपनी बहू अनिता से कहा तो वो विफ़र पड़ी,” बस..हो गई आपकी नौटंकी शुरु.. मेरी सहेलियाँ आईं नहीं कि आप…।अब मैं अपनी सहेलियों को अटेंड करुँ या आपके नखरे उठाऊँ..।” अनिता ने गुस्से- से पानी का गिलास उनकी मेज़ पर पटका और ड्राॅइंग रूम में चली।
जमुना जी के पति एक कस्बे में अध्यापक थें।बेटी नीलू और बेटे प्रकाश के साथ वो बहुत खुश थीं।उन्होंने नीलू की पढ़ाई कस्बे के स्कूल से ही पूरी करवाकर उसका ब्याह कर दिया।प्रकाश बारहवीं पास करके दिल्ली चला गया।बड़े शहर में वह सपने भी बड़े देखने लगा।काॅलेज़ की पढ़ाई के साथ-साथ वो अपने भावी योजनाओं को मूर्त रूप देने का प्रयास भी कर रहा था।
ग्रेजुएशन कंप्लीट करके प्रकाश ने दो साल एक फ़ैक्ट्री में काम किया…।वहाँ से अनुभव लेकर उसने स्वयं का व्यवसाय शुरु किया।शुरुआत में उसे काफ़ी दिक्कतें आईं..कई बार वह हताश भी हुआ लेकिन फिर एक बार जब उसे मुनाफ़ा होने लगा तो उसने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा।उसने बंगला-गाड़ी भी ले लिया था।कुछ समय पश्चात उसने अपने मित्र की बहन अनिता से विवाह कर लिया और दो बेटों का पिता भी बन गया।
इसी बीच वह अपने माता-पिता से मिलने भी जाता था।अनिता भी जाती थी लेकिन बच्चों के स्वास्थ्य का बहाना करके वह शीघ्र लौट आती थी।
पति के रिटायर होने के बाद जमुना जी भी पति संग अपने पोतों से मिलने आ जातीं थीं और बेटे की तरक्की देखकर उसे ढ़ेर सारा आशीर्वाद देतीं और वापस अपने घर आ जातीं थीं।
कुछ वर्षों बाद उनके पति अस्वस्थ रहने लगे।चलना-फिरना बंद हो गया…उनके पति के सारे काम बिस्तर पर ही होने लगे तब उन्होंने प्रकाश को बुलवा लिया।
” अपनी माँ का ख्याल रखना..।” इतना ही कहकर जमुना जी के पति ने हमेशा के लिये अपनी आँखें बंद कर ली थी।पति का साथ छूट जाये तो एक औरत भरे घर में भी अकेली हो जाती है।जमुना जी तो पहले से ही अकेली थी..अब तो खाली बिस्तर पर पति को ही याद करके रोना उनकी नियति बन गई थी।प्रकाश आता लेकिन बार-बार आना उसके लिये संभव नहीं था।इसलिये उसने जमुना जी को साथ चलने को कहा।पहले तो वो तैयार नहीं हुईं लेकिन फिर नीलू ने उन्हें समझाया कि वहाँ सबके बीच रहेंगी तो आपका मन लगा रहेगा और मैं भी आपकी तरफ़ से निश्चिंत रहूँगी।
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जमुना जी का आना अनिता को अच्छा नहीं लगा।कुछ दिनों के बाद ही वो उन्हें अपनी बातों से उन्हें ‘बोझ’ होने का अहसास दिलाने लगी।कभी खाना तो कभी दवाई को लेकर उनपर व्यंग-बाण चलाना उसकी आदत बन चुकी थी।अपने बेटे अंशु-मनु को भी उनके पास जाने नहीं देती थी।बेचारी जमुना जी अपना मन मसोसकर रह जातीं थीं।
प्रकाश ने अनिता को कई बार समझाया कि माँ को इस उम्र में मानसिक कष्ट देना ठीक नहीं है।उसकी सहेलियों ने भी कहा कि अनिता…कर्मों का फल सभी को इसी जीवन में भुगतना पड़ता है।ये जीवन का सच है।अपनी सास के अच्छा व्यवहार करोगी तभी तो वो तुम्हें आशीर्वाद देंगी…तुम्हारा बुढ़ापा भी सुख-चैन से बीतेगा।परन्तु वो उन सबकी बातों को एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देती थी।जमुना जी भी नहीं चाहती थीं कि उनकी वजह से बेटे-बहू में क्लेश हो, इसलिए अपना काम वो स्वयं कर लेतीं थीं।आज उनके गठिया का दर्द बढ़ गया था, इसीलियें पानी के लिये बहू को बोली तो वो भड़क गई थी।फिर भी जमुना जी ने अपनी बहू को सुखी रहने का आशीर्वाद ही दिया।
दिन बीतने लगे।लंबे समय तक बीमार रहने के कारण एक दिन जमुना जी स्वर्ग-सिधार गईं।अनिता ने चैन की साँस ली।उसके दोनों बेटे अब सयाने हो गये थें।अंशु अब अपने पिता के व्यवसाय को संभालने लगा था।मनु एमबीए करने मुंबई चला गया।
अनिता ने अपने जैसे एक सम्पन्न घराने की लड़की मेघना के साथ अंशु का विवाह कर दिया।अब हर किटी-पार्टी में वो अपनी बहू को ले जाती और उसकी प्रशंसा के पुल बाँधती।कुछ समय बाद मनु डिग्री लेकर आ गया और पिता से बोला,” पापा..आपने बहुत काम कर लिया..अब मैं आ गया हूँ तो आप घर पर आराम कीजिये और हमें गाइड कीजिए।” प्रकाश ने उसकी बात मान ली।कुछ समय पश्चात मनु की पसंद की हुई लड़की आशी के साथ उसका भी विवाह हो गया।
प्रकाश घर पर रहने लगे थे..चाहते थे कि अनिता भी उनके साथ बैठे..बातें करे मगर अनिता तो अपनी बहुओं के साथ पार्टी और मार्केटिंग में व्यस्त रहती।दोनों बहुओं के एक- एक संतान थी जो आया की गोद में पल रहे थे।
एक दिन अनिता ने गहरे हरे रंग की साड़ी पहनी थी,हाथ में मैंचिंग की चूड़ियाँ पहनी थी, गले में मोतियों की बड़ी-सी माला और ओठों पर गहरे रंग की लिपिस्टिक लगा रखी थी।मेघना ने देखा तो टोक दिया,” मम्मी…अब आप साठ के पार हो गईं हैं..इतना बनाव-श्रृंगार करना आपको शोभा नहीं देता।हमारे साथ चलना है तो अपनी उम्र के अनुसार कपड़े पहनिये वरना… ।” उस दिन अनिता को बुरा तो लगा लेकिन फिर उसने अपनी गरदन झटक दी।लेकिन कहते हैं कि इंसान की ज़बान एक बार खुल जाये तो फिर वो अपनी हदें भूल जाता है।
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मेघना और आशी भी अब वक्त-बेवक्त अपनी सास को रोकने-टोकने लगीं थीं।उनका मन होता तो सास को अपने साथ ले जाती नहीं तो कह देती,” मम्मी..पापाजी की तबीयत ठीक नहीं रहती है..आप घर पर ही रहकर उनको कंपनी दीजिये।” सुनकर अनिता खून के घूँट पीकर रह जाती।
एक दिन प्रकाश को बहुत तेज़ बुखार था।अंशु ने डाॅक्टर को काॅल किया..डाॅक्टर उनका चेकअप करके बोले,” दवा लिख देता हूँ..समय पर देते रहियेगा और खाने में पतली खिचड़ी ही दीजियेगा।” अनिता ने मेघना से खिचड़ी बनाने के लिये कहा तो वो थोड़ी चिढ़कर बोली,” क्या मम्मी…इतना छोटा-सा तो काम है..आप खुद बना लीजिये…मेरी सहेलियाँ ड्राइंग रूम में बैठीं हैं.. अभी मुझे उनको अटेंड करना है।” अनिता को अपना अतीत याद आ गया और उसकी आँखों-से आँसू निकल पड़े।रसोई में जाकर उसने खिचड़ी बनाई और प्रकाश को खिलाया।
जिस घर की कभी अनिता मालकिन थी, उस घर पर दोनों बहुओं का राज हो गया था।उन्हें अपने पति के साथ एक कमरे में कैद हो जाना पड़ा।प्रकाश की सेहत दिनोंदिन बिगड़ती जा रही थी..।इलाज के लिये कभी वो अंशु को कहती तो कभी मनु को…।इसी कहने-सुनने में एक दिन बिना कुछ कहे..रात में सोये-सोये ही प्रकाश के प्राण-पखेरु उड़ गये।अनिता अकेली रह गईं।
बेटे कभी कभार हाल-समाचार पूछने आ जाते थे।तब वो कुछ कहतीं तो अंशु तपाक-से कहता,” इसमें नया क्या है मम्मी..हर बहू तो अपनी सास के साथ ऐसा ही करती है।” बेटे का इशारा वो समझ गई थी।
समय बीतता गया।एक दिन आशी ने घर पर किटी रखी थी।उसने अपनी सास को सख्त हिदायत दे दी कि अपने कमरे से बाहर मत निकलियेगा।अनिता ने भी हाँ कर दी थी लेकिन कुछ देर बाद अचानक उनके पेट में मरोड़ होने लगा।उन्होंने आशी-आशी पुकारा..बच्चों के नाम भी लिये लेकिन घर में पार्टी के शोर में किसी को सुनाई नहीं दिया।तब मजबूरन वो स्वयं उठी..रसोई में गई..गिलास में पानी डालने लगी तो कंपकंपाहट के कारण गिलास हाथ से छूट गया।उसी वक्त आशी किसी काम से अंदर आई थी..अनिता को रसोई में देखा..फिर फ़र्श पर पानी गिरा देखकर तो वो फट पड़ी,” उम्र हो गई लेकिन जीभ का चटोरापन नहीं गया..।”
” वो मैं पुदीन हरा…।” कहते-कहते उनका गला भर आया।कमरे में आकर पति की तस्वीर के आगे फूट-फूटकर रोने लगी।आज उन्हें अपनी सहेलियों की और पति की कही बात याद आने लगी…अच्छे काम का परिणाम अच्छा होता है और बुरे का…।सच ही तो है..उन्होंने जैसा व्यवहार अपनी सास के किया था, वैसा ही उनकी बहू उनके साथ कर रही है।अपने कर्मों का फल तो उन्हें भुगतना ही पड़ेगा।ये जीवन का सच है…इसे कोई नकार नहीं सकता।काश! वो पहले ही इस तथ्य को समझ गई होतीं..पहले ही..।
विभा गुप्ता
# ये जीवन का सच है स्वरचित, बैंगलुरु
हम सभी को अपने कर्मों का लेखा-जोखा इसी जनम में करना पड़ता है।हम जैसा व्यवहार अपने बड़ों के साथ करेंगे, भविष्य में हमारे बच्चे भी वही हमारे साथ करेंगे।ये जीवन का सच है।इसे जितनी जल्दी स्वीकार कर ले, उतना ही अच्छा है।