स्वसंवाद….!! – विनोद सिन्हा “सुदामा”

घर से निकलते ही….!!

“घर से निकलते ही कुछ दूर चलते ही….!! “

आज भी जब मैं ये गाना सुनता हूँ या कहीं से इसके स्वर मेरे कानों में पड़ते हैं तो बरबस मुझे वो तुम्हारा पुराना घर याद आ जाता है जो ठीक मेरे घर के सामने था ,जिसके टैरिश पर तुम रोज खड़ी हो कर अपने गीले बालों को सुखाया करती थी और मैं तुम्हें छुपकर अपने कमरे की खिड़की से देखा करता था.!

कैसे मैं अपने घर के बालकनी में खड़ा हो अक्सर तुम्हारे घर की ओर घंटो घंटो ताका करता था कि कब तुम दिख जाओ,कब मुझे तुम्हारी एक झलक मिल जाए..!

तुमने भी मानो मेरी इस आदत को भांप लिया था शायद..

ठीक उसी समय तुम भी अपने छत पर आकर अपने  गीले बालों को सुखाने लगती थी,शायद इस बात का तुम्हें भली भाँति एहसास चला था कि मैं तुम्हें देख रहा हूँ फिर भी तुम मुझे देखकर भी अंजान बन जाती थी,तुम्हारी चोरी पकड़ी न जाए या मैं तुम्हारे रूख़सार की सरगोशियाँ समझ न लूँ तुम तुरंत अपनी लंबी काली घनेरी जुल्फ़ों से अपना चेहरा ढक लेती थी और तेजी से खुले बालों को अपनी हरे दुपट्टे से सटा कंघी से झटकने लगती थी,तुम्हारे ऐसा करने से तुम्हारे छत की मुंडेर से लगे गमले के सब फूल खिल खिला उठतें,मानो तुम्हारे गेसुओं से छटकती पानी की बूंदो ने नया जीवन दे दिया हो उन्हें,तृप्ति मिल जाती थी उन्हें,जैसे मैं तृप्त हो जाता था तुम्हें देख लेने भर से.!!


धीरे धीरे तुम्हें देखना मेरी आदत बनती गयी और तुम्हें पाना मेरा जुनून.!! इस हद तक कि मुझे मेरे वक्त का भी होश नहीं रहता,मेरे हाथ में पकड़ा गर्म कॉफी का मग कब ठंडा हो जाता पता ही नहीं चलता,फिर एक दिन वो वक्त भी आया जब इस तरह छुपा छुपी का खेल खेलते-खेलते हम एक दूसरे की जरूरत बन गयें और जरूरत से साथी ,साथी से जीवन साथी.!!

कल तक जो मेरा घर मुझे सिर्फ ईंट पत्थरों से सजा मकान लगता था तुम्हारे कदम रखते ही प्यार का मंदिर लगने लगा,हर तरफ हर कोने में बस प्यार और सिर्फ प्यार के मधुर संगीत गुंजने लगें.! तुम्हारी पायलों की छन छन,तुम्हारे कंगन की खनक,तुम्हारे झुमके की झुन झुन,रस घोलते रहते थे हरदम मेरे घर में,लेकिन किस्मत को शायद मेरी ये खुशियाँ या यूँ कहो मेरा तुम्हारा साथ रास न आया,आज घर तो है पर “मेरा घर” नहीं,सब रिश्ते हैं पास मेरे पर तुम नहीं,छीन लिया था वक्त ने तुम्हें मुझसे वक्त से पहले और मैं तन्हा आज भी अपने इस रोते घर में,रोता घर इसलिए क्योंकि इसका कोना कोना रोता है

तुम्हारी वियोग में,तड़पते रहते हैं सिसकियाँ लेते रहते हैं घर के दरो दीवार सब,ईंट ईंट पत्थर पत्थर तुम्हारी छुअन को महसूस कर के,और क्यूँ न तड़पे भला,क्यूँ मायूस न हो यें तुम्हें सोचकर आखिर इन्होंने भी तो महसूस किया था तुम्हें और गवाह थे मेरे तुम्हारे बीच के अनगिनत एहसासों के.,मेरी कलाईयों पर, मेरी उँगलियों में तुम्हारे हाथों के सब निशान के,मेरे होठों पे तुम्हारे होठों से लिखी इबारत के,मेरे कानो पे तुम्हारे दातों द्वारा दिए सब मीठे जख्मों के,सब कुछ तो पता था इन्हें-वो सिरहन तुम्हारी रेंगती उंगलियों की,वो मुलायम तपिश तुम्हारी  बहकती साँसों की,वो गुंजन तुम्हारी खनखती हँसी की,जिस्म का कोना कोना सिहर उठता है सोच कर.!


मगर आज बस तुम्हारी एक तस्वीर और तुम्हारी वो सब यादें अपने साथ लिए मर कर जी रहा हूँ,सच कहूँ तो मैं मर तो उसी दिन गया था जब तुम छोड़ गयी थी मुझे सदा सदा के लिए.! ये तो तुम्हारी बची सांसें हैं मुझमें,जो जिंदा रखे हुए है मुझे.!

मैं आज भी हरदम बालकनी से बाहर झाँकता रहता हूँ और खोजता हूँ वही तुम्हारा पुराना घर,महसूस करना चाहता हूँ मैं फिर वही पल और तुम्हें हर उस पल में,तुम नज़र भी आती हो लेकिन तभी ढंक देता है एक प्रकाश पुंज अपनी मरणशील दीप्ति से तुम्हें,और मेरे चारो ओर अनमने मन से ही सही अनगिनत दर्द खड़े हो जाते हैं आ कर, और वह सामने वाला टूटा फूटा घर जो आज खंडहर हो चुका है बिल्कुल मेरी तरह जर्ज़र सांझ की झिलमिल में एक टीस दे जाता है मुझे और ऐहसास करा जाता है तुम्हारे न होने का मगर आज भी मैं जब कभी “घर से निकलते ही”…गाना सुनता हूँ तो याद आता है मुझे तुम्हारा वो पुराना घर और याद आती हो तुम और तुम्हारा वो छत पर खड़े हो कर अपने गीले बालों का सुखाना..!

हाँ,आज भी जब घर से निकलते ही…!!

विनोद सिन्हा “सुदामा”

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