संयम – कंचन श्रीवास्तव आरज़ू

आधी रात बीत चुकि है और पूनम अधमरी सी बिस्तर पर पड़ी है।पड़ी भी क्यों न रहे उसे नींद जो नहीं आ रही , दर्द है आत्मा में मन में और शरीर में , पर वो बांटे किससे बगल में पड़ा वो पुरुष जो गहरी नींद सो रहा है।

नहीं नहीं वो भला क्यों बांटेगा उसे तो भनक तक नही उसके दर्द की । अजीब है स्त्री की कराह कि खुद के सिवा कोई सुन नहीं सकता।

अरे!

उसे अच्छे से याद है, माघ की वो  ठिठुरन भरी रात ठंड में ब्याह कर आई थी तो आते ही लोगों ने तारीफों के पुल बांध दिए थे। जिसे सुन ये गदगद हो गई थी।

कि अरे वाह क्या हम इतने सुंदर हैं हमने तो कभी सोचा भी नहीं,सोचती भी कैसे दो जोड़ी कपड़ों में तो इसने बी.ए किया।

वही धो धोकर पहनती,  पर ,साफ सुथरा कपड़ा पहनती मजाल है , कि उसके कपड़े की क्रीच खराब हो जाए। फिर एम . ए प्रथम वर्ष में ही , बहुत पैसे वाले तो नही, पर हां यहां से  बेहतर। माना पति की कमाई कम थी पर घर दुआर खाना कपड़े की कोई टेंशन नहीं थी। ईश्वर की दया से अचक पचक भरा था। तो शादी तय हो गई।

ना पसंदगी का तो कोई सवाल ही नहीं उठता।तीखे नयन नक्श और मधुर वाणी ने सास का दिल जीत लिया। फिर क्या ब्याह पक्का हो गया। अब जब पक्का हो गया तो भला देर किस बात की चट मंगनी पट ब्याह हो गया।

अब सुंदर तो थी ही।और सुहाग ने उसकी सुंदरता में चार चांद लगा दिया, पीला सिंदूर, पीली पीयरी, बाह भर चूड़ी,और पायजेब पहनकर एक लाल बिंदी लगाकर कमरे से बाहर निकलती तो घर वाले देखते रह जाते।

ऐसे में भला खुद को रमेश ही काबू में कैसे रखता,जब भी मौका पाता उसके साथ सट लेता।

शुरू शुरू में तो उसे कुछ अजीब सा लगता पर धीरे धीरे उसे समझ में आने लगा कि वास्तव में इसके लिए स्त्री सिर्फ भोग्या है उसकी भावनाओं से इसको कोई मतलब नहीं है । जिसे स्त्री होने के नाते  भीतर ही दबा ले गई कहती भी तो किससे शर्म भी तो कोई चीज है ,फिर धीरे धीरे उसकी आदत बन गई।



पर कहते हैं ना कि आदत हो गई पर कुंठा का जन्म तो हो ही गया था जो धीरे धीरे पनपने लगा , पनपता भी क्यों ना ढलते यौवन के साथ पति का रुझान जो खत्म हो गया फिर उसने महसूस किया कि अब वो उसके लिए बोझ है क्योंकि उसके सुख दुख से उसको कोई मतलब न रहता।पर वो जाती कहां ,मायके में कोई रहा ही नहीं और होता भी तो सबकी अपनी अपनी गृहस्थी होती है ,ऐसे में कोई किसी को अपने घर रखना नहीं चाहता।दो चार दिन की बात अलग है , इसलिए वो मन मार कर रही पर चुप नहीं बैठी पढ़ी लिखी थी इसलिए उसने बाहर निकलने की सोची।और जब बाहर निकली तो चार पैसे आने लगे।जो की गृहस्थी में काम आए। शुरु शुरु में तो नहीं पर धीरे धीरे पूरी गृहस्थी इसी पर निर्भर हो गई।

उसका पैसा सिर्फ उसी की दवाई दर्मल भर का जो होके रह गया ‌।

ऐसे में इसने देखा कि उसका झुकाव फिर इसकी तरफ होने लगा।

ऐसे में ये सोचने पर मजबूर है कि ये वही है  इनका प्यार कभी मेरे मदमाते  यौवन ने  चरम पर चढा दिया था और जैसे ही जवानी ढलने लगी उकताने लघा , हर वक्त लड़ाई झगड़ा मनमुटाव रहने लगा।

होना भी लाजिमी था , यौवन के साथ साथ नौकरी जो बीच बीच में धोखा देने लगी।ऐसे में , इसने निकल कर कुछ करने की सोची।

सोचती भी न तो क्या करती।आखिर बच्चों की परवरिश का  सवाल है , वो भी बड़े हो चले । खर्च कैसे चलता। खुद की आय तो अपनी दवा भर का ही होता ,समय के साथ साथ चार बीमारियों ने भी जो घेर लिया ।

ऐसे में जब गृहस्थी इसी पर निर्भर हो गई,तो उसका व्यवहार फिर बदलने लगा।

वो तो बदलना ही था उसी के पैसे से घर जो चलता।

पर कहीं न कहीं इसका इस तरह बदलना शूल की तरह चुभता। कुंठा ने अवसाद का रूप ले लिया ,तभी तो रात की पिछली पहर पति के साथ बिताने के बाद आज वो सिर्फ आत्मा और मन ही नहीं बल्कि शरीर के दर्द से भी झट पटाती हुई  करवट बदल रही है  और उम्र के तीसरे पड़ाव में ये सोचने पर  मजबूर हैं कि जब तक सुन्दर काया रही उसको चाहा।और जब उम्र ढलने लगी तो पैसे को चाहा । वरना उसे कभी उसकी परवाह नहीं रही।

चाहे उसके भावनाएं हो या शरीर ।

यकीनन उसकी जरूरतों ने जोड़ रखा था, उससे

वरना पुरुष कहां इतना संयमी होता है कि गृहस्थी अकेले चला सके।

स्वरचित

कंचन श्रीवास्तव आरज़ू

 

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!