गृहणी की भी उम्र बढ़ती है – लतिका पल्लवी

सुनाइ नहीं दे रहा है? कब से डोरबेल बज रहा है।कहाँ हो खोलना नहीं है?सुन रही हूँ।आ ही रही हूँ। मुकुंद जी की बात को सुनकर उनकी पत्नी कालिंदी जी नें जबाब देते हुए दरवाजा खोला। दरवाज़े पर पड़ोस के वर्मा जी खडे थे। उन्हें देखकर कालिंदी जी नें कहाँ आइये भाई साहब अंदर आइये. … Read more

अनजाना भय – विभा गुप्ता

          ‘ शांति पार्क ‘ की बेंच पर बैठे सुदर्शन जी अपने दो मित्र- श्रीकांत दुबे और जमनालाल से बातें करते हुए सुबह की धूप का आनंद ले रहें थे कि अचानक कलाई पर बँधी घड़ी पर उनकी नज़र पड़ी तो वो उठकर जाने लगे।      ” इतनी ज़ल्दी चल दिये..आज तो संडे है..क्या आज भी दफ़्तर..।” … Read more

दरवाजा ध्यान से बंद करना – श्वेता अग्रवाल

“मम्मा खजला(चावल के पापड़) दो ना।” अंशुल अपनी मम्मा रीमा से कह रहा था। “खजले नहीं है,अंशुल। खत्म हो गए हैं।” “मुझे नहीं पता। मुझे तो खजला खाना है। दादी ने इतने सारे खजले तो दिए थे।” अंशुल जिद करते हुए बोला। “हाँ,दिए तो थे पर दिन में तीन- तीन बार ब्रेकफास्ट, लंच, डिनर सब … Read more

रिटायरमेंट – प्रतिमा पाठक

रेलवे स्टेशन की पुरानी घड़ी ने जैसे ही शाम के पाँच बजाए, राघव बाबू की ड्यूटी खत्म हो गई। आज का दिन उनके जीवन का सबसे अलग दिन था, क्योंकि यह उनकी नौकरी का आख़िरी दिन था। चालीस वर्षों की अनवरत सेवा के बाद वे आज रिटायर हो रहे थे। स्टेशन मास्टर की वर्दी उतारते … Read more

रिटायर्मेंट कभी नही – रीतू गुप्ता

भरत जी आज बहुत खुश थे .. बेटे जय की नौकरी जो लग गई थी… लाखों का पैकेज था.. अपने दोस्तों को मिठाई खिला रहे थे…. दोस्त शाम- “भरत, अब तो बेटा कमाने वाला हो गया है .. आगे का क्या प्लान है। ”  भरत- “कुछ खास नहीं यार .. बस अब रिटायर्मेंट ले लूँगा… … Read more

कन्या-विदाई – विभा गुप्ता

महाअष्टमी के दिन कन्या-पूजन की खरीदारी के लिये रश्मि मार्केट के लिए निकली तो उसे याद आया कि  कंजिकाओं को विदाई में क्या उपहार दे, इसके बारे में तो तो सोचा ही नहीं।फिर उसे याद आया कि उसकी सहेली नीतू भी कंजिकाओं को बुला रही है, उसका घर रास्ते में ही तो है, उसी से … Read more

भय की लक्ष्मण रेखा – बीना शुक्ला अवस्थी

******************** स्वस्तिका ने तीब्र प्रसव वेदना के बाद आज ऑखें खोली तो उसके वक्ष पर हल्का सा भार था और दो नन्हें नन्हें होंठ उसके वक्ष में कुछ ढूंढ रहे थे। उसके ऑखें खोलते ही नर्स और वंशज के साथ डॉक्टर की ऑखें भी खुशी से चमकने लगीं – ” हमें विश्वास था मिस्टर वंशज … Read more

ज़हर बुझे – रवीन्द्र कांत त्यागी

नहीं, ये कहानी नहीं है. कहानी तो बिलकुल नहीं है. साहित्य वाहित्य का भी इस से कुछ लेना देना नहीं. इंसान के भीतर, जन्म से लेकर उम्र भर तक जो ग्रंथियां बनती बिगड़ती रहती हैं, जिनमे से कई अनसुलझी गुंन्थियाँ बन जाती हैं और उन पर जीवन भर एक बड़ा वाला अलीगढ़ का ताला पड़ा … Read more

अपने अपने पैमाने – रवीन्द्र कान्त त्यागी

बात कुछ बारह या तेरह वर्ष पुरानी है। मेरे एक रिश्तेदार ने अपनी मेधावी बेटी का रिश्ता दिल्ली में रहने वाले एक अच्छी जॉब और सम्पन्न घराने के लड़के से तय किया था। लड़का और लड़की दोनों एक दूसरे के बिलकुल अनुकूल थे और परिवार के लोग भी इस रिश्ते से बहुत खुश दिखाई दे … Read more

कर्मों का फल तो इसी धरती पर मिलता है – मंजू ओमर 

शकुन्तला जी अपने कमरे में बैठीं बैठी आंसू बहा रही थी । अपने कर्मों पर ,जो कुछ उन्होंने अपने परिवार के साथ और खास तौर से अपने पति श्रीनिवास के साथ किया था उसकी गणना कर रही थी।आज खुद जिस स्थिति में है उसका हिसाब किताब लगा रही थी। जिसकी जिम्मेदार वो खुद थी कोई … Read more

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