ज़िंदगी का तराजू – शुभ्रा बैनर्जी  : Moral stories in hindi

मालती आज जैसे ही बाजार जाने के लिए निकलने लगी,सासू मां ने बताया इन्सुलिन ,प्रेशर की दवाई,ख़त्म हो गई है।और हां हाजमोला भी लेना है।सुबह अखबार पढ़ते समय बोलीं थीं”अब दूसरी आंख से भी बहुत कम दिखता है बहू।”

सड़क पर चलती हुई मालती सोचने लगी।परिवार की पूरी जिम्मेदारी उसके ऊपर डालकर क्यों चले गए पति?कमाई तो कम हो गई है,पर खर्च जस के तस ही हैं।क्या कम करें ।सब्जी मंडी पहुंचकर सब्जियां खरीदी,फिर‌ फल लेने फल‌वाले के पास गई।ऑटो‌ से मेडिकल स्टोर‌ जाकर मां की दवाई भी ले आई।चेहरा धूप और पसीने से लाल हुआ रखा था।सोफे पर निढाल‌ पसर गई मालती।सोचने‌ लगी,अभी‌ तो चार साल बचे थे, रिटायरमेंट के। बेटा-बेटी पढ़ ही‌ रहे थे।अब पेंशन‌ के कुछ पैसों के अलावा‌ और कमाई थी ही नहीं।किस की जरूरत कम समझे,किसकी‌ ज्यादा।

तभी सासू मां  चाय बनाकर लाईं”बहू पी लें चाय पहले।इतना चिंता मत कर ।सब ठीक हो जाएगा।”

“क्या ठीक‌ हो जाएगा,मां?कुछ भी ठीक नहीं‌ होगा।जब तक बेटे की नौकरी न लगे,चिंता नहीं जाएगी।ज़िंदगी इतना दुख क्यों देती है अचानक से।हम तैयार भी नहीं हो पाते,और एक दुख का झटका मिल जाता है।”सासू मां मालती का माथा सहलाते हुए बोलीं”बहू,ये जो ज़िंदगी है ना,अपने तराजू में सुख और दुख तौल कर देती है।ना सुख ज्यादा ,ना दुख कम।”मालती ने आंख बंद किए ही कहा”यही तो मैं कहती हूं मां,सुख कम होते जातें हैं,और दुख ज्यादा।

शाम को पड़ोस की एक भाभी अपना दुखड़ा सुनाने लगीं”देखो ना मालती,इतना कमाते हैं रवि,पर घर में एक पैसा भी नहीं लाते।उधारी कर कर के घर चलाती हूं।इस चक्कर‌में आए दिन क्लेष होतें रहें हैं घर में।सासू मां अलग परेशान रहती है।सोच रही हूं,कहीं और भेज दूं”उनके जाने के बाद सासू मां ने बहुत कीमती बात कही मालती से”देखो बहू,इस ज़िंदगी से कभी कोई खुश नहीं रहता।हर इंसान की बस शिकायतें हैं ज़िंदगी से।जो हमारे फायदे का है उसे सुख समझ लेतें हैं,और जो घाटे की चीज है,उसे दुख।

तुम सिर्फ अपनी पड़ोस वाली भाभी से तुलना करके देखो,किसके सुख ज्यादा,किसके दुख गणना करके देखो।”मां की बकर -बकर भी अच्छी नहीं लगी मालती को।किसी तरह खाना बनाकर मां को,बेटे को दिया।ख़ुद खाने का मन नहीं था।तभी एक बूढ़ी सब्जी वाली आई।उससे सब्जी नहीं खरीदी तो,वह दरवाजे‌से नहीं मिलेगी।कभी कोई पुरानी साड़ी भी दो तो उसकी कीमत का हज़ार गुना आशीष देकर जाती है।अब सब्जी वाली बातूनी ने शुरू कर दिया”दिल्ली ले ले रे ,घर का पालक, मिर्ची,टमाटर और मटर लाई हूं।

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इस बार अच्छी फसल हुई है।ले सस्ते में ले ले दिद्दी।”मालती ने बहुत दिनों के बाद उसे खुश देखा था,पूछ बैठी”दीदी,अब तुम्हारी बेटी कैसी है?उसे दिल की बीमारी थी ना”उसने सपाट स्वर में कहा”दिद्दी,कुछ ना पूछो, मुक्ति पा गई तकलीफ़ से।मौत से बद्तर थी उसकी हालत,ना चल फिर सकती थी,ना अपने आप कोई काम भी कर सकती थी।ईश्वर ने मेरी बिनती मान ली दीदी।उनके घर देर है,अंधेर नहीं।हमें दुख दिया तो,पर सुख भी भरकर दिया है।इस साल फसल बहुत हुई है।वो चाहे तो बहुत मुनाफा कमा सकेंगे हम ।”

अब मालती ने उससे पूछा”तुझे नहीं लगता, ज़िंदगी में सुख कम और दुख ज्यादा ।फिर भी तुम लोग बहाना ढूंढ़ ही लेते हो ना खुश रहने का।”,

“का करें दिद्दा,ये जो खुश रहने का बहाना ढूंढ़ लेतें हैं ना हम,यही तो ब्याज है दुख के।”

मालती कुछ समझी नहीं।तब उसने फिर समझाया देख ले अपनी बाईं को।इस उमर में बर्तन भाड़ा करती है,ये क्या सुख है,नहीं रे दिद्दी ये दुख है।पर यही काम करके यह अपना परिवार तो चला पा रही है,वो भी किसी के सामने बिना हांथ जोड़े।ये सुख हुआ ना जो दुख के बदले मिला।”मालती ने कहा उससे”तू ना जाकर नेता बन जा।अच्छा भाषण देती है।”, वह हंसते हुए दो मूठा धनिया अलग से देकर गई।

उसकी दी हुई मटर की फलियों को साफ करते हुए देखा कि फलियां तो इतनी सारी पर मटर कम।भाजी दिखती तो ज्यादा,पर धुलकर बनकर कम।जो दिखता ज्यादा है ,क्या वह दुख है,या जो कम है वह सुख है।मालती सड़क पर जाते हुए अपने साइकिल में जनरल स्टोर का सामान बेचती काकी से मिली।बिंदी के लिए पूछा तो एक सुंदर सी लड़की बिंदी निकालकर दी। काकी ने बताया कि यही पिंकी है,जिसे मालती दस रुपए अलग से देती थी टॉफी के लिए।मालती उसे ऊपर से नीचे घूरते हुए पूछी”पढ़ाई छोड़ दी ना तूने”?उसने शरमाते हुए कहा “नहीं आंटी भी एस सी फाइनल हो गया है।अब एम एस सी करूंगी।दूसरे शहर में जा रहीं हूं पढ़ने।”मालती ने फिर पूछा”और उसके बाद?”उसने तपाक से कहा नेट निकालूंगी, प्रोफेसर बनूंगीं।”

मालती के सुख और दुख के हिसाब ही गड़बड़ाने लगे।मां ने ठीक ही कहा था”सुख के दाम होते हैं दुख।जितने ज्यादा सुख,उसके ऐवज में उतने दुख भरने पड़ते हैं ज़िंदगी के पास।उन्हीं‌ दुगनी चौगुनी दुखों को कम सुखों के अनुपात में बांटता है बिचारा।कितना मुश्किल काम है यह।हम सिर्फ अपने सुख और दुख की सोचें हैं,पर यहां तो ज़िंदगी को सभी इंसानों के सुख-दुख का समीकरण सम करना पड़ता है।

अब समझ गई थी मालती,ज़िंदगी में सुख कम और दुख ज्यादा क्यों होतें हैं।कम सुख जीवन को निरंतरता देते हैं,और ज्यादा दुख परिश्रम करने के लिए प्रोत्साहित करते रहतें हैं।

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इस समीकरण में साम्य बनना मतलब ज़िंदगी का प्रवाह रुक जाना है।अब मालती कभी सुख-दुख का रोना नहीं रोएगी।जो मिला वो भी ज़िंदगी का था,जो नहीं मिला वो भी ज़िंदगी के पास ही तो जमा है।

सब्जी वाली की बेटी की मौत दुख नहीं कष्ट से मुक्ति का सुख है।उसका दुख इन लोगों के दुख से बड़ा तो नहीं।

शुभ्रा बैनर्जी

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