“हेलो मैम! ऑर यू अपेक्षा मॉम???”
“एस! पायलट”
“अपेक्षा इस माई को-पायलट। शी इस वेरी नाइस एंड गुड पर्सन।”
“ओह! हाय! हाउ ऑर यू??”
“फ़ाइन। यू लुक लाइक अपेक्षा!”
“एस! बट शी लुक लाइक मी या मी लाइक अपेक्षा??”
कहने को तो अपेक्षा की माँ ने कह दिया कि- “अपेक्षा मेरी जैसी है या मैं( माँ) अपेक्षा जैसी??”
आज उसने अपनी माँ को एक सेलिब्रिटी जैसी फ़ीलिंग कराई। थैंक यू बेटी! आइ लव यू एंड प्राउड ऑफ़ यू।
पर माँ ही जानती है कि… उसकी बेटी के चेहरे की चमक के पीछे कितना दर्द छिपा है।
“आज चमक रही हूँ जो सूरज की तरह तो सब हैरान हैं क्यों?
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मेरी सफलता से सब इतना परेशान हैं क्यों?
हर रात टकराई हूँ मैं इक नई मुसीबत से
नई सुबह के लिए सबको दिखा हुनर मेरा
लेकिन …..
किसी ने न पूछा की ये जख्मों के निशान हैं क्यों?”
अपेक्षा की जॉब जब मुंबई में लगी तो पापा ही साथ आए थे उसके।एक हफ़्ते की छुट्टी लेकर अपने बैंक से। बैंक में रिज़िनल मैनेजर थे उसके पापा।छुट्टियाँ कम ही मिलती थी उन्हें। मुंबई में अपने एक दोस्त के घर रुक कर अपेक्षा को एक स्टुडियों अपार्टमेंट दिलाकर और ज़रूरत का सारा सामान दिला कर शिफ़्ट करा कर लौटे थे वापस घर।
अपेक्षा की माँ चाहती थी कि दिल्ली में जॉब करे , लेकिन अपेक्षा की जॉब मुंबई में लगी और यह उसकी” ड्रीम- जॉब “ थी। बचपन से वो “पायलट” बनना चाहती थी। अब उसका सपना साकार हुआ था।
बचपन से अपेक्षा , माँ की साड़ी और दुपट्टे से खेलती, कभी “मिस इंडिया” तो “कैबिन क्रू” तो कभी “ पायलट” बनती।
लेकिन कहते है ना कभी-कभी अपनी ही नज़र खुद को लग जाती है। अपेक्षा के साथ भी ऐसा ही हुआ।
अपेक्षा को मुंबई शिफ़्ट कराने के एक हफ़्ते बाद उसके पिता की एक “ कार ऐक्सिडेंट” में मृत्यु हो गई। उसका भरा-पूरा परिवार बिखर गया।
जब वो इलाहाबाद पहुँची तो उसकी माँ और भाई आई.सी.यू. में थे और उसके पापा की डेडबॉडी पोस्टमार्टम के लिए गई हुई थी। अपेक्षा एकदम शांत और स्थिर हो गई थी, एक भी आंसू नहीं गिर रहे थे इस वक्त। अपने परिवार में सबसे छोटी अपेक्षा!!!!आज बहुत बड़ी और ज़िम्मेदार बेटी बन गई थी।
बॉडी आ गई…..
बॉडी को जब सजा कर अंतिम दर्शन के लिए रखा गया तो अपेक्षा अपने पापा के निर्जीव शरीर को एक टक निहारते हुए मन ही मन बुदबुदाई-“ पापा ! आपने मेरे सपने साकार तो कर दिए पर……
मैं अभी इतनी बड़ी नहीं हो पाई हूँ पापा कि आपकी छोड़ी ज़िम्मेदारी निभा सकूँ……
लोग उसके साहस की प्रशंसा कर मनोबल बढ़ाते थे. लगता, मोबाइल से संपर्क बनाए रखते. आश्वासन भी देते कि पैसे की कमी हो तो बताना. कोई परेशानी हो तो कहना, हम आधी रात को भी तैयार हैं. उसे अपने रिश्तेदारों पर गर्व होता क्योंकि वे सब उसके दुख में साथ खड़े थे। लेकिन इस समय वह सिर्फ़ अपने पापा को एकटक निहार रही थी। जैसे पूछ रही हो कि….
मम्मी और भाई को कैसे सम्भालूँगी पापा ??? शक्ति दीजिए पापा!!!
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अपने पापा का चेहरा देख उसे लगा कि उसके जैसे मुस्कुरा रहे और कह रहे कि-“ मैं कहीं नहीं गया, यही तुम्हारे और मम्मी, भैया के आस-पास ही तो हूँ!!!”
अफसोस! यह कि … क्रिया -कर्म के बाद पूरा ही परिदृश्य बदल गया. पहले तो लोगों ने यह जानने की कोशिश की कि वे क्याक्या छोड़ गए हैं। कितना कर्जा हैं, कुछ ने फुसफुसा कर चेताया कि संभलसंभल कर चलना. यह कांटों भरी डगर है. वह मौन सब की सुनती रहती।
जब जो होना है वो हो कर रहता है इसके लिए मानवता को छोड़ रिवाजों को पालना जरूरी नही है ….जरूरी है तो बस ये कि जो पीछे रह गया है उसे हौंसला दें और जीवन के प्रति चाह जगाएं।
अपने पापा के आंतिम-संस्कार के बाद, उसे अपने भाई और माँ को सम्भालना था क्योंकि उसकी मॉ तो ऐक्सिडेंट में सदमे में चली गई थी उसे तो पता ही नहीं था की अपेक्षा के पापा अब इस दुनिया में नहीं रहे।भाई को भी बहुत चोट लगी थी।उस हालत में भी उसने अपने पापा की चिता को आग दी और बाक़ी क्रिया-कर्म करे लेकिन माँ को बहुत समय लगा ठीक होने में और फिर उन्हें समझाने में।
अपेक्षा ने इलाहाबाद के घर का एक हिस्सा बंद कर बाक़ी किराए पर दे दिया और भाई हॉस्टल में शिफ़्ट हो गया।माँ को साथ लेकर मुंबई अपनी जॉब पर आ गई।
२१ साल की अपेक्षा अपने भाई और माँ को ऐसे सम्भाल रही थी जैसे कि वो ही माँ हो। भाई का मनोबल बढ़ाती माँ को धैर्य और सांत्वना देती कि “ मैं हूँ ना!”( Movie -Mai hun na) माँ हँसते-हँसते रोने लगती!!! छोटी बिटिया कैसे इतनी बड़ी और समझदार हो गई।
जैसे तैसे जीवन चल रहा था सबका। लेकिन जो एक कमी आई थी जीवन में उसकी कोई भरपाई नहीं थी। नौकरी और माँ को देखते-देखते कभी -कभी अपेक्षा अपना संतुलन खो बैठती और अकेले में रोने लगती।कुछ लोग उसकी कमजोरी के पलों का फ़ायदा भी उठाने का प्रयास करते लेकिन अपेक्षा बहुत मज़बूत और कठोरता से अपने आप को सम्भालती। ” पापा की डेथ की सैंमपैथी लेकर जॉब में टिकी है” लोगों के ऐसी बातें भी सुनती और हताश हो जाती। पर पापा के वो शब्द-” जीवन में हताश हो पर निराश और कायर मत बनना। यह जीवन एक कर्म-युद्ध है, लड़ कर बाहर है निकलना।” उसक़ा मनोबल बढ़ाते।
“जिन्दगी जीने के दो ही तरीके होते है – एक जो हो रहा है उसे होने दो…. बर्दाश्त करते जाओ या फिर जिम्मेदारी उठाओ उसे बदलने की।”
और फिर..
एक साल बाद भाई ग्रेजुएशन पूरा कर मुंबई अपेक्षा के साथ ही आ गया और मॉडलिंग और ऐक्टिंग सीखने लगा।
पापा की पेन्शन, अपेक्षा की सैलरी से खर्चा चल रहा था। एक-दो साल में भाई भी यहीं सेटल हो गया।
“ अरे माँ ! तुम कहाँ खो गयी???”
“ वो… पायलट??”
“ वो तो अपनी फ़्लाइट में गया।”
“ ओह! मैं भी ना बस…”
“ कोई बात नहीं माँ।राघव ( वो पायलट) आएगा किसी दिन तुमसे मिलने। अभी चलो! बोर्डिंग का टाइम हो गया है।”
संध्या सिन्हा