जिम्मेदारियों ने छीन लिया बचपन – अमिता गुप्ता “नव्या”

छोटू…ओ छोटू…

कहां मर गया?

बातें ही करता रहेगा, कुछ काम धाम भी है तेरे पास, देख जल्दी-जल्दी काम निपटा नहीं तो आज की तनख्वाह से आधे पैसे काट लूंगा, दुकान मालिक झल्लाते हुए बोला।

नहीं, नहीं… ऐसा मत करना साब।

 मैं सारा काम निपटा दूंगा, अगर आपने पैसे काट लिए तो फिर मां का इलाज कैसे कराऊंगा और अभी छुटकी का स्कूल में दाखिला भी कराना है वह सब कैसे होगा, हाथ जोड़ते हुए छोटू दुकान मालिक से बोला।

जब देखो तब कोई ना कोई बहाना, सारी दुनिया की समस्याएं इन नौकरों के पास ही होती हैं, दुकान मालिक लगातार छोटू को अपशब्द बोले जा रहा था।

छोटू ने जल्दी-जल्दी काम निपटाया, और सोचने लगा जैसे ही यहां से छूटूंगा, पहले मां के लिए दवा लेने जाऊंगा, फिर कुछ खाने के लिए भी खरीदना है।

आज तुमने देर से काम निपटाया इसलिए तुम्हारी तनख्वाह से कुछ पैसे काट रहा हूं… दुकान मालिक ने कहा।

साब ऐसा मत करो, कल मुझसे और ज्यादा काम करवा लेना, लेकिन आज की पूरी तनख्वाह दे दो।

काफी कहने सुनने के बाद दुकान मालिक ने छोटू को दो सौ रूपए दिहाड़ी के तौर पर दिए, साथ साथ यह भी कह दिया आज तो दे रहा हूं रोज ऐसे नहीं चलेगा।

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छोटू को घर पहुंचने की बहुत जल्दी थी जल्दी से चिकित्सालय से दवा ली कुछ राशन पानी लेकर घर की ओर चल दिया।

जैसे ही घर पहुंचा मां को बहुत तेजी से ज्वर हो रहा था, छोटू ने तुरंत एक गिलास पानी लेकर मां को दवा खिलाई।

छोटू के नन्हें कोमल हाथों को देखते हुए, उसकी मां की आंखें छलछला आयी, वह बार-बार हाथों को अपने मस्तक पर लगाकर, उन्हें चूमे जा रही थी।




मां तुम रो रही हो… क्यों रो रही हो? 

क्या मैं घर की जिम्मेदारियां सही से नहीं उठा पा रहा हूं? छोटू ने मां से पूछा…

नहीं नहीं बेटा ऐसा सपने में भी मत सोचना, मैं तो अपनी किस्मत पर रो रही हूं।

भगवान भी मुझे कैसे दिन दिखा रहा है, जिन नन्हे हाथों में कलम होनी चाहिए, वही घर की परिस्थिति संभालने के लिए मेहनत मजदूरी कर रहे हैं।

 कैसी मां हूं मैं कि मैं अपने बच्चों के लिए कुछ नहीं कर पा रही, विधाता और कितनी परीक्षा लोगे छोटू की मां रीना फफक पड़ी।

और सच ही तो कह रही थी रीना, पति के गुजर जाने के बाद सारी जिम्मेदारियां उसके फूल से बच्चे छोटू के ऊपर आ पड़ी, स्वास्थ्य खराब होने के कारण, दमा रोगी होने के कारण डॉक्टर ने भी रीना को काम करने से मना कर दिया था, छोटू महज चौदह साल का, और बेटी सोनी अभी छ: साल की ही थी, छोटू को अपने तीनों की जिम्मेदारियों का निर्वहन करना था।

मां मेरी दुनिया तुमसे और छुटकी से है, अगर जीवन में तुम नहीं तो कुछ भी नहीं, और मैं कितना अभागा बेटा कहलाऊंगा,अगर तुम्हारे लिए कुछ न कर सकूंगा।

अच्छा यह सब छोड़ो मां, देखो मैं रसोई का सामान ले आया, खाना बनाओगी ना, कई दिन हो गए तुम्हारे हाथ का खाना नहीं खाया‌।

बिल्कुल बेटा जरूर बनाऊंगी, अब रीना का ज्वर भी कुछ कम हो रहा था, घर के तीनों सदस्य खाना खाकर सोने चले गए।

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मां और छुटकी की किसी भी तरह की जरूरत को पूरा करना ,और छुटकी की पढ़ाई लिखाई में कोई बाधा न आए… छोटू बस यही सोचता रहता,और ज्यादा मेहनत करता।




अपने बलबूते पर उसने घर को तो सम्भाल लिया, लेकिन जिम्मेदारियों के बोझ ने उसे समय से पहले ही बड़ा कर दिया।

एक बालमन के सारे स्वप्नो का अंत जिम्मेदारियों तले हो गया।

स्वरचित मौलिक

अमिता गुप्ता “नव्या”

कानपुर, उत्तर प्रदेश

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