यह कैसा न्याय  – डॉ उर्मिला शर्मा

फुलवा आंगन में घूंघट काढ़े लाल गोटेदार साड़ी पहने और उसपर लाल सितारों जड़ी चुनरी ओढे पीढ़ा पर सकुचाई सी पर बैठी थी। गेहुएं रंग की तीखे नैन- नक्श, बड़ी-बड़ी आंखे  और लंबे बालों की चोटी नागिन सी धरती छू रही थी। माथे पर बड़ी सी गोल लाल बिंदी और आंखों में मोटे काजल उसकी खूबसूरती में चार चांद लगा रहे थे। दुबली- पतली कमनीय काया वाली गुलाबो छुई- मुई बनी बैठी थी। दसवीं तक पढ़ी- लिखी थी वह। सिलाई- कढ़ाई तो वह जानती ही थी, साथ ही साथ घर के कामकाज में भी निपुण थी क्योंकि सौतेली माँ के साहचर्य में पलने के कारण उसे यह सब तो आना ही था। ‘मुंह दिखाई’ की रस्म के लिए गांव की औरतें इकट्ठी हो गयी थीं। एक- एक कर उसका घूंघट उठाकर वो उसका मुखड़ा देखती और हाथ मे सगुन के कुछ रुपये रख आशीष देते हुए उसकी सुंदरता की बड़ाई करती हुई रामेसर की किस्मत को दाद देतीं। “ई बुढापे में रामेसर का तो भागे खुल गया। कितना सुंदर और कमसिन बहुरिया पा गया है।” – किसनी चाची की आवाज़ सुनाई पड़ी।

धीरे- धीरे औरतों की भीड़ छटने लगी और जब आंगन खाली हो गया तो किसानी चाची ने फुलवा से कहा -” सुनो बहुरिया! अब ई घर को सुरग बनाने का जिम्मा तुमरे ऊपर है। बिन घरनी का ई घर, घर कहां था। बचपने में रामेसर के माई गुजर गई। बाप ने पोसकर बड़ा किया। उ भी दस बरीस पहिले चल बसा। अब तुम इस घर को अउर रामेसर को सम्भालो।”फुलवा ने आँचर धर चाची के पांव छुए। चाची आशीष देते हुए निकल गईं। जाते समय बाहर पीपल के चबूतरे पर साथियों से घिरे रामेसर को भीतर जाने को कहना न भूलीं।
रामेसर अंदर जाकर आंगन का दरवाजा उढका दिया। फुलवा के पास जाकर उसका हाथ पकड़कर खाट पर बिठाया और उसके बगल में बैठ उसे घर- परिवार, रिश्ते- नाते के विषय बताया। चूल्हा- चौका दिखाया। चालीस साल के रामेसर के आगे पीछे कोई न था। अकेला मानुष होने के कारण अब तक शादी- विवाह के लिए कोई पहल करने वाला न था जिससे शादी न हो पाई थी। खाने पीने की कमी न थी। थोड़े जमीन के अलावा वह ईंट भट्ठा में भी काम करता था। फुलवा के आने से उसकी जिंदगी सँवर गयी थी।




घर मे जैसे रौनक सी आ गयी थी। फुलवा जैसी सुघड़ व चतुर पत्नी पाकर वह निहाल हुआ जा रहा था। मज़े में जिंदगी कटने लगी। रामेसर का एक साथी था किसना वह कभी- कभी उसके घर आता- जाता था। गांव के लफंगे लड़कों में वह गिना जाता था। वह अच्छे खाते- पीते घर का था। पर किसी काम- धाम में उसका मन न लगता था। एकलौता लड़का था अपने घर का। घरवाले भी उससे परेशान रहते थे लोगो की उससे सम्बन्धी शिकायतों को लेकर। एक रोज जब किसनी चाची फुलवा के घर घुस रही थी तो उसने रामेसर के साथ महेसा को घर से निकलते देखी। तभी उसने फुलवा को चेता दिया था कि वह रामेसर को उसे घर लाने से मना कर दे। पहले की बात और थी।

अब यह घर औरत वाला हो गया है। साथ ही चाची ने फुलवा को ताकीद भी कर दी थी कि वह महेसा के सामने ज्यादा न आये। फुलवा को भी उसकी हरकतें अच्छी न लगती थी किन्तु लिहाज में वह कुछ न कह पाती थी। रामेसर इतना सीधा था कि उसे यह सब समझ ही न आता। आता तो भौजी- भौजी कह बार- बार बुलाता रहता। बिना बात का बात करता। उसकी एक सौतेली विधवा बहन थी जिससे फुलवा की दोस्ती हो गयी थी। चम्पा नाम था उसका। घरवाले का उसके साथ अच्छा व्यवहार नहीं था। फुलवा से अपने दिल की बातें कर उसका मन हल्का हो जाता था। उसे ज्यादा कहीं बाहर आने जाने की इजाजत न थी परंतु महेसा केवल फुलवा के घर जाने से न रोकता था।





जेठ की दुपहरिया थी। रामेसर सुबह में ही रोटी, तरकारी और प्याज लेकर ईंट भट्ठे पर निकल गया था। देर शाम तक लौटता। आज सुबह कुएँ पर पानी भरने के समय उसने चम्पा को दोपहर में अपने घर बुलाया था। उसे मेहंदी लगानी थी और चम्पा मेहंदी पर बड़ा खूब डिज़ाइन काढ़ती थी। फुलवा घर का सारा काम निपटाकर मेहंदी पीस कर कटोरा में रख ली थी। गेंहूं पिसवाना था सो उसने धोकर आंगन में खाट पर सूखने के लिए चादर डाल फैला रखी थी। गर्ममी के मारे  फुलवा का मुंह  सुख रहा था। एक लोटा पानी पी फुलवा ने  कंठ तर किया। और  कोठरी के भीतर लेटकर एक मोड़कर आंख पर रखे दूसरे हाथ से पंख झलने लगी। गर्मी चरम पर थी। मानो शरीर की सारी शक्ति निचुड़ गयी हो। लू भरी हवा सांय- सांय चल रही थी। कपड़ा जो उसने नहा-धोकर पसारे थे उनसे तेज हवा के कारण फट-फटाक की आ रही थी।

तभी लगा आंगन की किवाड़ की कुंडी किसी ने खटखटायी। उसने जाकर देखा तो दरवाजे पर कोई नहीं था। हवा के कारण खड़खड़ा उठी थी। वापस आकर फिर लेट गई। मन ही मन चम्पा के आने का बाट जोह रही थी। लगभग आधे घण्टे बाद फिर कुंडी खड़की। इस बार तो चम्पा ही होगी, यह सोचकर हुलसित मन से किवाड़ खोलने गयी। मुस्कुराते हुए दरवाज़ा खोली तो चौक गयी। दरवाजे पर महेसा खड़ा था। उसकी भौहे तन गयीं और लगभग दरवाजा बंद करने को होते हुए उसने कहा -” आपके भैया नहीं है। शाम को आइयेगा।”
महेसा दांत निपोरते हुए कहा -“अभी चल जात हैं भौजी, तनिक कुदाल दे दो। जरूरी है।”
“यहीं रुको लाके देते हैं।” कहकर फुलवा जल्दी  से अंदर आयी यह सोचते हुए की जल्दी से इस बला को कुदाल देकर हटाये। घर के पिछवाड़े से कुदाल लेकर जैसे ही मुड़ी देखा महेसा अजीब नजरों से देखता हुआ खड़ा था। उसकी निगाहों में एक अजीब शैतानियत भरी थी। फुलवा उसकी नीयत भांप भयभीत हो उठी किन्तु ऊपर से दृढ़तापूर्वक पूर्वक उसे बाहर निकलने बोली तभी उसके हाथ से कुदाल लेकर उसने फेंक दिया और उसकी कलाई पकड़ ली।




बोला -“भौजी जबसे तुमको देखें हैं दिन- रात तुमरा ही सपना देखते हैं। कछु नाहीं होगा, किसी को कुछ नहीं पता लगेगा। उ अधेड़ महेसर में का रखा है।”
फुलवा अपना हाथ छुड़ाते हुए बोली -“हाथ छोड़ो मेरा और भाग जाओ नहीं तो चिल्लाकर सबको बुलाऊंगी।”
इस बात पर महेसा झट अपना एक हाथ से फुलवा का मुंह दबा दिया और उसे खिंचते हुए कोठरी में ले जाने लगा। पूरे ताकत से फुलवा अपने को छुड़ाने की कोशिश कर रही थी। वह उसे लगातार खिंचते हुए अंदर ले जाने का प्रयत्न कर रहा था।  रोकने की कोशिश में उसने आंगन में पड़ा खाट पकड़ लिया। महेसा ने और झटके से उसे खींचा। फुलवा की पकड़ ढीली हो गयी , दुबारा पकड़ने की कोशिश में खाट की चादर उसके पकड़ में आई और खिंच गयी। पूरा गेहूं आंगन में बिखर गया। फुलवा मन ही देवी- देवता को गुहरा रही थी कि वो इस समय चम्पा को भेज दे ताकि उसकी अस्मत बच जाए। 

अबतक महेसा फुलवा को कमरे के दरवाजे तक खींच लाया और एक झटके से उसे बिस्तर पर धकेल दिया। फुलवा उठकर भागना चाही तभी महेसा ने उसको फिर धकेलना चाहा तो फुलवा के हाथ से लगकर बिस्तर के पास की खिड़की पर रखी मेहंदी उसके ऊपर आ गिरी।  फुलवा छूटने की कोशिश करती रही। लेकिन वह इसमे सफल न रही। महेसा शैतान की तरह उसपर हावी रहा और अपना मंसूबा पूरी करने में कामयाब रहा। फिर वह भाग खड़ा हुआ।
लूटी- पिटी और बिखरी हुई फुलवा पीड़ा और अपमान से कांप रही थी। शरीर बेतरह कांप रहा था। रो-रोकर उसके आंसू भी सुख चले थे। शरीर और आत्मा से घायल फुलवा अपने को सहेजने और समेटने की कोशिश करती रही। तीन घण्टे बीत गए। शाम होने को आई। रामेसर जैसे ही आंगन में घुसा, देखा गेंहु बिखरा पड़ा है। इस समय तो फुलवा बरामदे में चूल्हे के पास दिखती है। वह भी न दिखी। आशंकाग्रस्त होकर फुलवा को आवाज देते हुए कोठरी में गया। फुलवा की हालत  देख उसे काठ मार गया। उसे देखते ही फुलवा उसे पकड़ जार- जार रोने लगी। रामेसर पूछता रहा लेकिन उसकी रुलाई रुकने का नाम ही न ले रहा था कि वो उसे बताये की उसके साथ क्या हुआ। कुछ देर के बाद उसने सारी घटना रामेसर को बता डाली। सुनकर क्रोध से उसकी नशें तन गयी। दुख से चेहरा मलिन हो गया। फुलवा ने कहा- ” हमको न्याय चाहिये।”
“तुम जैसे कहोगी वैसा करेंगे। कल ही पंचायत में इस बात को कहेंगे।” रामेसर ने फुलवा के सिर को अपने कंधे से लगते हुए कहा।




दो दिन दिन पंचायत में फुलवा से घटना के बारे  में पूछा गया। उसने ज्यो का त्यों घटना को दुहरा दिया। पंच और गांव के पुरुष बैठे थें। महिलाएं कुछ दूर पर खड़ी थी। फुलवा ने हाथ जोड़कर पंचों से न्याय की गुहार लगाई। आपस मे सलाह- मशविरा कर पंचो ने यह फैसला सुनाया -” महेसा को पचास हजार के जुर्माने की रकम रामेसर को अदा करे।”
तब इसपर महेसा गिड़गिड़ाने लगा कि पचास हजार की रकम तो वह किसी भी प्रकार चुकाने में असमर्थ है। कोई और सजा दें। तब पंचों ने उसे पांच साल तक गांव छोड़कर जाने का आदेश दिया। महेसा फिर भी खड़ा रहा। इस बात पर अपनी सहमति नहीं दी। पंचों के पूछने पर उसने कहा कि वह पंचो को कुछ कहना चाहता है। वह सरपंच के पास जाकर बोला -” रामेसर चाहे तो वही सब मेरी बहन के साथ कर सकता है जो उसकी जोरू के साथ हमने किया। हिसाब बराबर हो जाएगा।”
पंचों ने ये बात जब पंचायत में कही तो  फुलवा फुफकार उठी। क्रोध से उसका बदन कांपने लगा। दूर खड़ी महिलाओं ने भी सुना तो उन्हें जैसे सांप सूंघ गया। उनमें महेसा की बहन चम्पा भी खड़ी थी। रामेसर कुछ कहता उससे पहले फुलवा बोल उठी -” वाह रे इंसाफ ! एक औरत की इज्जत लूटने का इंसाफ देने के लिए फिर एक औरत की इज्जत लूटेगी। मतलब न्याय के बहाने फिर एक पुरुष को औरत से मनमानी करने की सजा। हद है इन आदमियों का एकतरफा न्याय। कैसे- कैसे खेल रचाये जाते हैं मान- प्रतिष्ठा, रीति- रिवाज और न्याय के नाम पर। हमको अब नहीं रहा विश्वास इस पंचायत पर। अब तो हम कानून के सहारे अपने न्याय की लड़ाई लड़ेंगे।” फुलवा रामेसर का हाथ पकड़ पंचायत से निकल आयी।
—डॉ उर्मिला शर्मा

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!