ये इश्क़ हाये! – नीलम सौरभ

एयरपोर्ट में फ्लाइट का इंतज़ार करते हुए थोड़ा बोर हो रहा हूँ मैं। साथ वाले सभी उन दो नन्हें खिलौनों से खेलते आपस में इतने मशगूल हैं, कि किसी का भी ध्यान मेरी तरफ नहीं है अब। चलिए, बोरियत दूर करने के लिए मैं चितरंजन आप सबको एक कहानी सुनाता हूँ।

ये कहानी तब शुरू हुई थी जब एक बेहद आकर्षक कद-काठी का पंजाबी मुंडा रोहनप्रीत और एक परम्परावादी मलयाली परिवार की लड़की शुभलक्ष्मी, कम्पनी गार्डन के बीच से गुजरने वाली सड़क पर अचानक टकरा गये थे। थोड़ी नोकझोंक के बाद दोनों को पता चला कि वे आजू-बाजू की कॉलोनियों में ही रहते हैं। अगली मुलाकात में इनका आपस में परिचय हो गया था जो कुछ महीने बाद दोस्ती में बदल गयी थी। फिर जब स्कूल के बाद शुभा ने रोहन के कॉलेज में एडमिशन लिया था जहाँ वह बीकॉम फाइनल ईयर में था, वहाँ ये विपरीत ध्रुवों जैसे इन प्राणियों के बीच की दोस्ती नौजवानी के खुमार वाले इश्क़ में बदल गयी। दोनों को एक-दूसरे की हर बात इतनी अच्छी लगने लगी कि वे दीन-दुनिया से बेगाने हो उठे। दूसरे दोस्त-यार, सखियाँ तो दूर की बात थी, दोनों को अपने परिवार के लोग भी अब अच्छे नहीं लगते थे।

शुभा के टिफिन का दक्षिण भारतीय खाना रोहन को बेहद पसन्द था, मिलते ही खाता ही चला जाता। वैसे ही शुभा को रोहनप्रीत द्वारा अपने स्पोर्ट बाइक पर घुमाने ले जाना, जी भर कर चाइनीज़ और इटैलियन डिश खिलाना बहुत भाता था। छोले-भटूरों की भी वह दीवानी हो चुकी थी। रोहन अक्सर ही महँगे गिफ्ट भी देता रहता, जिन्हें पाकर शुभा ख़ुद को संसार की सबसे अमीर लड़की समझती।

शुभलक्ष्मी भले ही पढ़ने में ज्यादा अच्छी नहीं थी, पर रोहन बहुत होनहार था, पहले हमेशा ‘टॉप थ्री’ में उसका नाम रहता था, लेकिन अब सबकुछ बदलने लगा था।

हमेशा सजी-सँवरी शुभा रोहन की आँखों में छायी रहती। क्या दिन, क्या रात। पढ़ने के लिए किताब खोलता तो हर पन्ने में वही दिखती। पढ़ाई चौपट हो चली थी। अब तो टॉप टेन में भी उसका नाम मुश्किल से रहता।

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एक बार रोहनप्रीत छुट्टी वाले दिन दोस्तों के इसरार पर अयप्पा मंदिर के पास वाले मेले में गया। वहीं अपने किसी पारिवारिक उत्सव में पारम्परिक परिधान और ढेरों सोने के गहनों से नख से शिख तक सजी हुई, सफेद व केसरिया फूलों के गजरे से सँवरी लम्बी चोटियाँ गूँथे शुभा उन्हें मिल गयी। किसी अप्सरा के रूप-सौंदर्य को मात दे रही थी आज तो वह। रोहन जहाँ अपनी पलकें झपकाना भूल गया था, वहीं उसके दोस्तों का हाल भी कुछ ऐसा ही था। उन्हें ऐसे घूरता पाकर अपने घर की बड़ी-बूढ़ियों से घिरी शुभा शरमा कर लाल-गुलाबी हो उठी थी। उसके इस गुलनारी रूप ने लड़कों के ऊपर जैसे बिजलियाँ ही गिरा दी थी। तभी किसी के मुँह से सुनाई पड़ा कि शुभा के घर के बड़े यहाँ ब्याह योग्य लड़के-लड़कियों के परिचय सम्मेलन में शुभा के लिए दूल्हा पसन्द करने आये हैं। सब कुछ जँच जाये तो रिश्ता आज ही तय हो सकता है। यह बात कानों में पड़ते ही रोहन के हाथों से तोते उड़ गये।

वहाँ से लौटते समय ही दोस्तों के सामने रोहन ने ऐलान कर दिया कि इससे पहले उसका का कहीं और लग्न हो, वह उससे कुड़माई करके उसे हमेशा के लिए अपनी बना लेगा।

इधर संयुक्त परिवार की लाड़ली शुभा के ऊपर भी हैंडसम रोहनप्रीत का जादू कुछ ऐसा छा चुका था, उसे भी अपने समाज वाले तो क्या, अपने घर के पुरुष भी अब जरा नहीं भाते थे। ये क्या बात हुई, सारे दिन घर पर मुंडू यानी लुंगी पहने जोकरों की तरह घूमते रहते हैं, चाहे अप्पा हों, काका हों या सारे अन्ना यानी बड़े भाई लोग।

कहते हैं न कि इश्क़ और मुश्क छुपाये नहीं छुपते। इनकी भी इश्क़िया लुकाछुपी ज़ल्दी ही दोनों के यार-दोस्तों से होते हुए रिश्तेदारों तक, फिर दोनों के घरवालों तक पहुँच गयी।

गुस्से में भर कर शुभा के लम्बे-तगड़े भाइयों ने एक दिन रोहनप्रीत को घेर कर ख़ूब धमकाया-चमकाया। दो-चार हाथ भी जमाये।___ “हमारी बहन से दूर रहना, वरना…!”

रोहन के घरवालों को भी जब मामले का ज्ञान हुआ, आँखें क्रोध से लाल हो गयीं, भुजाएँ फड़क उठीं। हमारे गोरे-चिट्टे मुंडे(लड़के) से दक्षिण-भारतीयों की कुड़ी(लड़की) का क्या लेना-देना…हमारे उत्तर भारतीय परिवार से काले लोगों का कैसा रिश्ता?




बस फिर क्या था, दोनों के मिलने पर बंदिशें लग गयीं। वे अब एक-दूसरे को देखने को भी तरसने लगे। शुभा के लिए जोरशोर से लायक वर ढूँढ़ा जाने लगा। इस लड़की के पर कतरने बहुत जरूरी हैं। रोहनप्रीत के भी शाही जेबखर्च से लेकर कार, बाइक आदि पर रोक लग गयी। ले अब उड़ कर दिखा!

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मगर इन सबका उल्टा असर हुआ। इस रोकटोक से  प्रेमी-दिलों में बग़ावत जाग उठी। अब तो घरवालों के साथ दुनिया को भी दिखा कर रहेंगे कि सच्चा प्यार कभी झुकता नहीं।

फाइनल परीक्षाओं से ठीक पहले जब प्रैक्टिकल परीक्षाएँ चल रही थीं, दोनों प्रेम के पंछी एक दिन मौका पाते ही सबकी आँखों में धूल झोंक कर एक-दूसरे का हाथ थाम घर से फुर्र हो गये।

दोनों ने भागने से पहले दोस्तों की मदद से आर्यसमाज मन्दिर में शादी कर ली थी, चूँकि शुभा उन्नीस की और रोहन इक्कीस का हो चुका था।

घरवालों ने उनके गायब होने के दूसरे ही दिन उनके दोस्तों को तलब कर उनका पता लगा लिया था पर जब तक वे मिले, दोनों की कानूनी तौर पर शादी हो चुकी थी। दोनों पक्षों ने अपने-अपने बच्चों को समझाने की लाख कोशिशें की, रोकर-धोकर, डरा-धमकाकर देखा, मिन्नतें कर कर देखीं मगर उन दोनों के कानों पर जूँ न रेंगी। दोनों के सिर पर इश्क़ का भूत पूरे चरम पर था, दोनों जान देने को तैयार थे लेकिन अलग होने को नहीं।

रोहनप्रीत के परिवार के ट्रांसपोर्ट वाले पुश्तैनी काम में कई ट्रक ड्राइवर थे, जिनमें से एक पढ़े-लिखे हमउम्र युवक चित्तरंजन उर्फ़ चित्तू से रोहन की एक जैसी रुचियों के कारण आपस में ख़ूब जमने लगी थी उन दिनों। उसी की सलाह पर दोनों ने मुंबई महानगर का रुख किया।

चित्तू के एक रिश्तेदार की गारण्टी पर दोनों को सिर छुपाने के लिए किसी चॉल में खोली मिल गयी। दोनों ने पुरानी जिंदगी भुला कर वहीं अपनी नयी गृहस्थी शुरू कर ली। आजकल सारा जहान स्वर्ग से सुन्दर, जन्नत से प्यारा लगता था उन्हें। जीवन सुहाना सपना सा लग रहा था। सबको भूल कर दोनों एक-दूसरे में खो गये।

मगर सपना कितना भी सुहावना हो, टूटता जरूर है। इनके साथ भी यही हुआ।




धीरे-धीरे दोनों को एक दूसरे की कमियाँ नज़र आने लगीं। इश्क़ का रंग फीका पड़ने लगा। दोनों एक-दूसरे पर नकली मुखौटा पहन कर धोखा करने का आरोप लगाने लगे।

शुभा ने अपनी माँ-चाची, दीदियों-भाभियों के बनाए सारे व्यंजन जो रोहन को खिलाये थे, जिन पर वह फ़िदा हो गया था, बेचारी को पता ही नहीं था कि कैसे बनाये जाते हैं, क्या-क्या, किस अनुपात में डाला जाता है। बनाने की कोशिश करती तो सिरे से सब गड़बड़ हो जाता।

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रोहन भी जिस ख़ानदानी रईसी के ठाठ के कारण शुभा को आकर्षित करने में सफल हुआ था, उससे दूर होते ही शुभा की छोटी सी माँग भी उसे भारी पड़ने लगी थी।

उनके बीच झगड़ा होना अब रोज की बात हो गयी थी। दोनों एक दूसरे को अपनी ज़िन्दगी ख़राब करने का तोहमत लगाते। जिस रूप-सौंदर्य और शरीर-सौष्ठव ने दोनों को एक-दूसरे का दीवाना बनाया था, रोज़मर्रा की ज़रूरतों के आगे अब उन्हें दिखाई तक नहीं देता था।

फिर चित्तू के रिश्तेदार की सहायता से किसी तरह रोहन को किराये का ऑटोरिक्शा चलाने का काम मिल गया और शुभा को बाजू वाली खोली में रहने वाली माही की मदद से ब्यूटीपार्लर का काम सीखने का मौक़ा। माही जिस ब्यूटीपार्लर में काम करती थी, वहाँ एक असिस्टेंट की जरूरत थी, उसने शुभा को वहाँ लगा दिया। शुरू-शुरू में भरे-पूरे, सम्पन्न घर में जन्मी, पली-बढ़ी शुभा को यह काम बहुत बुरा लगता था पर कोई और चारा न देख कर मन मार कर लगी रही। धीरे-धीरे सब सीख गयी। थ्रेडिंग, फेशियल, मसाज, मैनीक्योर, पेडीक्योर, वैक्सिंग, हेयरस्टाइल से लेकर दुल्हन को तैयार करना, सबकुछ।

2-3 साल बीत गये। महानगर में किसी तरह उनकी छोटी सी गृहस्थी घिसट-घिसट कर चल रही थी तभी उनके जीवन में नये मेहमान के आने की आहट सुनाई दी। शुरुआती गर्भावस्था में ही शुभा की हालत इतनी ख़राब रहने लगी कि उसे सम्भालने में रोहन का पूरा दिन निकल जाता, वह काम पर नहीं जा पाता था। ऊपर से डॉक्टर, चेकअप और दवाइयों का खर्च। गाड़ी जो धीरे-धीरे पटरी पर आ रही थी, पूरी तरह से पटरी से उतर गयी। कुछ माह बाद सोनोग्राफी से पता चला, गर्भ में जुड़वाँ बच्चे हैं जो होने वाली माँ को खून की कमी की वजह से बहुत कमज़ोर हैं। जन्म के समय या पहले ही कुछ भी हो सकता है। माँ-बाप बनने चले बेचारे अनाड़ियों पर जैसे बिजली गिर पड़ी थी। 




और थोड़े समय बाद जब सारी जमापूँजी से लेकर दोस्तों, पहचान वालों से कर्ज़ लिये हुए रुपये खत्म चले, हद से ज्यादा मजबूरी में आखिरकार दोनों ने अपने घरवालों के आगे हथियार डाल देने का निश्चय कर लिया।

उनकी खबर लेकर जब चित्तू दोनों के घरवालों के पास पहुँचा, दोनों ही घरों में गुस्से की लहर दौड़ गयी। अच्छा! अब आया है ऊँट पहाड़ के नीचे। कभी जब दोनों के घरवाले इन्हीं दिनों का हवाला दे रहे थे, तब सिर पर चढ़े इश्क़ के भूत के कारण दोनों को यह सब काल्पनिक और झूठा लग रहा था। उन्हें अलग करने की घरवालों की साज़िश लग रही थी। घर से भागकर जात-बिरादरी, समाज में नाक कटाने से अपमानित परिवार ने ख़बरी चित्तू को भी जम कर सुनाया, जी-भर कर कोसा। उन्हें दोनों के घर से उड़ने के बाद मालूम हो गया था कि किस-किस ने प्रेम के पंछियों को उड़ने में सहायता की है।

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“अब उन दोनों से हमारा कोई लेना-देना नहीं है, हमारे और भी बच्चे हैं, उनके करतूतों की सज़ा इन्हें मिलेगी, अगर उनसे फिर से रिश्ता जोड़ा तो!”____दोनों ही पक्षों ने लगभग एक जैसा फैसला सुनाया।

मायूस चित्तू सर झुकाये बैठा रहा कुछ देर, फिर निराशा के साथ उठते हुए बोला___

“ठीक है, वे दोनों गलत हैं, उन लोगों ने भारी ग़लती की है…उनकी मदद करके मैंने भी बड़ा ज़ुर्म किया है लेकिन कोई समझे, न समझे…मैंने केवल दोस्ती का फर्ज़ निभाया था तब…और अभी भी निभाने की सोच कर ही यहाँ आया था। मत अपनाइए आप लोग उन दोनों को…छोड़ दीजिए उन्हें उनके हाल पर मरने के लिए, मगर मैं उनका हाथ अभी भी नहीं छोड़ूँगा, जितना मुझसे बन पड़ेगा, मैं करूँगा। मेरे आई-बाबा ने सिखाया है मुझे, रिश्ता चाहे खून का हो या फिर दोस्ती का, सच्चा और निःस्वार्थ होना चाहिए। आप लोगों का अपने बच्चों से रिश्ता खून का जरूर है लेकिन निःस्वार्थ नहीं है। आप लोगों का झूठा अहम और झूठी शान अपने बच्चों से ज्यादा प्यारा है आप लोगों को यह मैं जान गया हूँ।…बस जाते-जाते आप लोगों से यह जानना चाहता हूँ कि जो कुछ भी हुआ, उसमें उन नये मेहमानों की क्या गलती है, जो रोहन और शुभा की ज़िन्दगी में आने वाले हैं, जो आपका अपना अंश हैं, अपना खून?”




चित्तू से सब कुछ सुनने के बाद दोनों पक्षों में थोड़ी देर के लिए सन्नाटा सा छा गया। दोनों की माँओं के मन में भावनाओं का ज्वार उमड़ने लगा। वे अपने घरवालों को मनाने लगीं फिर दोनों ने ऐलान कर दिया कि कोई उनके पास जाये न जाये, हम अपने बच्चों को यूँ असहाय मरने के लिए नहीं छोड़ेंगी।

फिर तो जब रोहनप्रीत के घरवालों ने मुंबई जाने के लिए अपनी बीएमडब्ल्यू निकाली, शुभलक्ष्मी के भाइयों ने उन्हें दिमाग़ का इस्तेमाल करने को कहते हुए सबके लिए फ्लाइट की टिकट बुक हो चुकने की सूचना दी।

सभी जब उनके पास पहुँचे, बदहवास रोहन शुभा को अस्पताल ले जाने की तैयारी कर रहा था, क्योंकि पिछली रात से उसकी हालत बहुत ख़राब थी। ऐसा लग रहा था, समय से पहले प्रसव हो जाएगा। माँ और बच्चों के प्राण संकट में दिख रहे थे।

घरवालों को देखते ही रोहन उनके पास पहुँच दहाड़ें मार कर रो पड़ा। पिता और बड़े भाइयों से लिपट कर माफ कर देने की गुज़ारिश करने लगा। अपने बच्चों की हालत देख कर दोनों के घरवाले भी भावुकता में रोने लगे। शुभा जो लगभग बेहोश थी, अचानक उसकी कराहटें सुन सब उसकी ओर दौड़े तब तक चित्तू एम्बुलेंस बुला चुका था।

तत्काल ही शुभा को पास के सुपरस्पेशलिटी हॉस्पिटल ले जाया गया जहाँ उसकी अति गम्भीर स्थिति देख डॉक्टरों ने उसे तुरन्त आईसीयू में भर्ती कर लिया।

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हफ्ते भर शुभा और अजन्मे शिशु जिंदगी-मौत के बीच झूलते रहे और दोनों के परिजन अपने आराध्यों से उनके लिए दुआएँ माँगते रहे। संकट की इस घड़ी में दोनों परिवार आपस में एकदम से घुलमिल कर एक हो गये थे।

अंततः डॉक्टरों की मेहनत, सही इलाज और अपनों की दुआएँ रंग ले आयीं। शुभा की स्थिति नियंत्रण में आते ही बच्चों की डिलीवरी करवाई गयी। शुभा जैसे रंगरूप वाला बेटा और रोहन जैसे रंगरूप वाली बेटी के रोने की आवाज़ें घरवालों के कानों में अमृतरस घोल रही थीं। उनके मासूम मुखड़ों को देखते ही सबके दिलों से रहे-सहे शिकवे भी जाते रहे। उन्हें गोद में लेने को सबके बीच एक होड़ सी मच गयी थी।

और एक हफ्ता बीत चुका है। इसी बीच माँ और बच्चों की अस्पताल से छुट्टी से लेकर रोहनप्रीत के सपरिवार अपने मध्यप्रदेश लौटने की सारी कवायदें हो चुकी हैं। अभी दोनों के परिवारों के साथ मैं भी उन्हें उनके घर तक पहुँचाने चल रहा हूँ। रोहन और शुभा अब हमेशा अपने अपनों के बीच रहेंगे, दोबारा मुम्बई नहीं लौटेंगे। हाँ मैं आता रहूँगा। …और मैं कौन? अरे बताया तो था…चित्तू यानी चितरंजन।

नीलम सौरभ 

 

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