सुमिता ! कभी तो सोच समझ कर काम किया करो। तुम्हें मालूम भी है क्या हुआ रजनी को ?
क्या हुआ छोटी भाभी को ? सुमिता ने बड़ी भाभी के कड़े शब्दों को सुन कर सहमते हुए पूछा।
तुम्हारी वजह से उसका ब्लड प्रेशर एकदम नीचे गिर गया है।अभी हॉस्पिटल गई है भैया जी के साथ।
“पर मैंने तो कुछ नहीं कहा उनसे “,सुमिता ने फिर कहा।
“अब ज्यादा बनो मत !क्या जरूरत थी हमारे मामलों के बीच बोलने की?याद रखो ,ये घर मेरा है।तुम यहाँ पर केवल रह सकती हो ।ज्यादा दखलंदाजी मत किया करो।”बड़ी भाभी ने अपने शाश्वत अधिकारों का प्रयोग करते हुए कहा।
“ओह !क्या यह वही घर है जहाँ मैंने अपने रुपये पैसे ,तबियत ,वास्तव में किसी भी तकलीफ की परवाह न करते हुए हमेशा इन सबकी मदद की।”
आँसू आ गये सुमिता की आँखों में सोचते हुए।
हम खामोश तब होते हैं जब दिलोदिमाग में बहुत शोर होता है ।
हाँ ,खामोश हो गई सुमिता भी लेकिन दिलोदिमाग में बहुत अधिक शोर हो रहा था।
बन्द कर लिया कमरे में अपने आप को सुमिता ने।
एक प्रसिद्ध लेखक की पँक्तियाँ याद आ गईं।
“सूर्यास्त होने तक मत रुको।चीज़ें तुम्हें त्यागें उससे पहले तुम उन्हें त्याग दो”
और जब सुबह हुई ,कमरा खाली था।सुमिता जा चुकी थी।
बड़ी भाभी के कानों में उनकी ही आवाजें गूँज रहीं थीं उस खाली कमरे में “यह घर मेरा है ,तुम यहाँ …..”
समाप्त
==================
स्वास्थ्य रिश्तों का
*
ऑनलाइन क्लास चल रही थी तभी मोबाइल पर घण्टी बजने लगी।जयश्री ने फ़ोन काट दिया और फिर से क्लास लेने में व्यस्त हो गई।
तभी उसी नंबर से फिर फोन आया।मजबूरन फ़ोन उठाना पड़ा।उधर से आवाज़ आई ,मौसी जतिन बोल रहा हूँ।हम लोग इधर से गुजर रहे थे तो सोचा आपसे मिल लूँ।
जयश्री ने कहा ,अरे वाह !आ जाओ।साथ ही स्कूल का पता दे दिया।
पाँच मिनट में जतिन और उसकी पत्नी दोनों स्कूल में पहुंच गए।तब तक इंटरवल हो चुका था।
घर पास में ही था।जयश्री ने घर चलने की पेशकश की।जतिन बोला ,अरे नहीं मौसी !आपसे मिलना था ,हो गया।
जयश्री ने उसे अधिकार पूर्वक डाँटते हुए घर चलने को कहा और दोनों चुपचाप घर चल पड़े।
रास्ते में जयश्री सोच रही थी,घर तो बुला लिया ,अब इस वक्त क्या बनाऊँगी ?गृह सहायिका भी जा चुकी थी।
घर पर बेटा बाहर जाने की तैयारी में था।
जयश्री ने खाने के लिए कहा तो बोले हम तो अपना खाना टिफिन में ले कर आए हैं क्योंकि हमें अगले गांव भी जाना है।
जयश्री ने कहा ,चलो मिल कर खाते हैं।दीदी के हाथ का खाना और मेरे मिक्स्ड वेज परांठे !मज़ा आ जाएगा।
बहू ने सभी की थाली परोसी जब तक जयश्री ने गरम गरम हलवा तैयार कर लिया।जतिन को तो हलवा खा कर मज़ा आ गया।बोला ,मौसी बिल्कुल माँ वाला स्वाद है।खाने के बाद जब वे जाने लगे जयश्री ने बहू को एक प्यारी सी साड़ी उपहार में दी।
शाम होते न होते दीदी का फोन आ गया ,जयश्री ,
अगले रविवार हम तुमसे मिलने आ रहे हैं।
अरे वाह ! लेकिन आपने फोन कॉल ,व्हाट्सएप से निकल कर मिलने का प्लान बना कैसे लिया?जयश्री ने कहा।
अरे!जतिन और बहू जबसे आए हैं तुम्हारी तारीफ़ करते नहीं थक रहे।अब मैं और तुम्हारे जीजाजी अपने आप को रोक नहीं पा रहे।
जयश्री खुश हो गई।बोली वादा पक्का है न !
बिल्कुल पक्का भाई।
जयश्री फ़ोन रख कर सोच रही थी ,भूख रिश्तों को भी लगती है ,छप्पन भोग नहीं प्यार परोसिए।
बेहतर स्वास्थ्य होगा रिश्तों का !
समाप्त
=====================
दीवाली की साड़ी
अश्लेषा की शादी के बाद पहली दीवाली थी। मन उमंग से भरा हुआ था । कुछ अलग श्रृंगार ,नई साड़ी ,जेवर …. बहुत कुछ कल्पना कर रही थी।
दरअसल उसके पीहर में दिवाली पर सभी सदस्य नए कपड़े पहन कर ही लक्ष्मी पूजन करते हैं। उसकी भाभी की शादी के शादी की पहली दीवाली पर विशेष तौर से नई साड़ी और जेवर खरीदे गए थे ।
दीवाली के चार दिन पहले जेठानीजी अपने परिवार सहित आ गई और आते ही अपने बेटे को इंटरनेशनल क्रिकेट मैच दिखाने के बहाने घर से निकल गई।अश्लेषा ने ऑफिस से आकर देखा पुताई वाला अपना काम करके जा चुका था और
बूढ़े ससुरजी घर को दुरुस्त करने में लगे हुए थे ।
शाम को भोजन के समय जेठानीजी लौट आई और खाना खा के आराम करने लगी।
यहाँ अश्लेषा ने जैसा सोचा वैसा बिल्कुल नही हो रहा था ।आज पहली बार उसे अपनी दिवंगत सासु माँ की याद आई ।शायद वो होती तो !!!
अगले दिन जब सब दीवाली की खरीदारी करने गए ,अश्लेषा ने एक साड़ी की ओर इशारा करते हुए कहा ,” देखो दीदी ,वो साड़ी कितनी सुंदर
है ” बात को नज़रअंदाज़ करके वो आगे बढ़ गई । घर आकर पतिदेव से बोली ,उसको काम नहीं करना है ,उसके मन में तो बस साड़ी बसी हुई है ।पतिदेव सब कुछ जानते हुए भी इस मामले में चुप्पी साधे हुए थे ।
अगले दिन सुबह घर से लगी हुई गैलरी में पड़ोसन आई और जान बूझकर नए कपड़ों का जिक्र निकाल कर बोली अरे ! हम तो दीवाली पर कभी नए कपड़े नही खरीदते ,बहुत महंगे दामों में बिकते हैं ।अश्लेषा समझ गई ओह ! आग यहाँ तक फैल चुकी है ।उसने सोचा ,सूत न कपास जुलाहे में लठा – लठी ।
खेर ! दीवाली आई और किचन में बीत गई ।जैसा अश्लेषा ने सोचा वैसा कुछ भी नही हुआ।जेठानीजी भी दीवाली की मौज मस्ती करके पकवान के मज़े ले कर अपने शहर चली गईं
अश्लेषा मन ही मन दुःखी थी लेकिन उसे लम्बे समय तक दुख को पालने की आदत नही थी।
वह इक्कीसवीं सदी की पढ़ी लिखी ,कामकाजी लड़की थी और प्रॉब्लम सॉल्विंग स्किल्स अच्छी तरह सीखी हुई थी ।उसने मन ही मन कुछ ठान लिया ।
अगले वर्ष दीवाली आने से एक सप्ताह पहले उसने अपने पसंदीदा कपड़े और जेवर खरीद कर अपनी तरह से दीवाली मनाई और जेठानीजी देखती रहीं।
अब दीवाली ही नही ,अश्लेषा राखी ,दशहरा होली ,नवरात्रि सभी त्योहारों पर और महत्वपूर्ण अवसरों पर अपने घर परिवार ही नही अपने कार्यस्थल पर भी अलग ही छटा बिखेरती है।
सच है, ” कुछ गलत हो तो टूटना नहीं ,रेकॉर्ड तोड़ना है ।”
ज्योति अप्रतिम