नई नवेली रीना अपने कमरे में बैठी आँसू बहा रही थी,सोच रही थी “न जाने पापा को इस गांव के लड़के में क्या दिखा, जो मेरी शादी यहाँ कर दी, बिना सोचे -समझें…।”
तभी रेडियो में “कोई मैके को कर दे सन्देश पिया का घर प्यारा लगे…”गाना आने लगा,
विजय किसी काम से कमरे में आये तो रीना को रोते देख बोले,”क्या यार, रेडियो पर तो गाना आ रहा “पिया का घर प्यारा लगे “पर तुम्हे अभी तक पिया का घर प्यारा नहीं लग रहा, कोई कष्ट है तो बताओ…, किसी ने कुछ कहा क्या…, मैंने तुम्हे बताया था, अम्मा थोड़ा तेज मिजाज की हैं पर मन की बहुत अच्छी हैं, उनकी बात दिल पर मत लेना..”।
सहमते हुये रीना ने अपने आँसू पोंछ लिया…, माँ की हिदायत याद आ गई, पति से कभी उनके नाते -रिश्तों की बुराई मत करना..।
रीना को आँसू पोंछते देख, विजय शरारत से हँस कर बोले “क्यों मुझे देख कर अब पिया का घर प्यारा लग रहा है..”।
पति की प्यार भरी छेड़खानी से रीना शरमा गई… अभी विवाह के एक महीना भी नहीं हुआ था , यूँ तो विजय उसका पूरा ध्यान रखता था, पर शहर से गांव में आई रीना, गांव के रीति -रिवाज़ के संग ताल -मेल नहीं बैठा पा रही थी।
सासू माँ को नई बहू से ढेरों अरमान, पर बहू तो अनाड़ी थी, फिर क्या सासू माँ अपने पद का पूरा उपयोग कर रही थीं, अतः रीना को हर दिन परीक्षा से गुजरना पड़ता…।हाँ रात में पति का प्यार उसके दिल के घावों पर मरहम लगा देता..।
कल सुबह ही सासू माँ पड़ोस से आई रिश्तेदार को कह रही थीं,”बहू को कुछ काम नहीं आता, उसकी माँ ने कुछ सिखाया नहीं, क्या शहर में लोग अपनी लड़कियों को कुछ सिखाते नहीं…”
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वो रिश्तेदार महिला सासू माँ को बोली “और लाओ शहर की लड़की… हम तो आपसे पहले ही कहे थे, ये शहरी लड़कियाँ काम -धंधा नहीं कर पायेंगी, नखरे अलग दिखाएंगी…”।
सुन कर रीना को बहुत बुरा लगा, रो कर रह गई पर कुछ बोली नहीं, ।
कुछ दिन और बीते, मायके से पिता और भाई रीना को विदा कराने के लिये आ गये…, पिता और भाई को देख रीना फूले न समा रही थी, इस चक्कर में विजय के मलिन चेहरे पर उसकी निगाहें नहीं पड़ी…। रीना जब कमरे में अपना सामान पैक करने आई,तब विजय ने उसका हाथ पकड़ लिया।
“मायके में मेरी याद नहीं आयेगी तुम्हे…”
“क्यों आयेगी, मैं अपने घर जा रही हूँ, जब मन करें आप मिलने आ जाना… मैं तो कॉलेज में अपनी सभी सहेलियों से मिलने का कब से इंतजार कर रही थी,..”कम उम्र रीना, अपनी सहेलियों, कॉलेज और मायके वालों से मिलने की खुशी में मग्न थी..।
“ठीक है तुम वहाँ खुश रहो, मैं भी तुमसे मिलने नहीं आऊंगा “थोड़े आक्रोश से विजय ने कहा।
“मैं कौन सा आपके बिना दुखी होंगी.. सोच रीना ने विजय के कथन को भाव न दिया।
मायके पहुँच दो -तीन दिन तो मस्ती में गुजरे फिर पुरानी दिनचर्या चालू हो गई… पर ये क्या, रीना को कहीं कोई कमी लगने लगी, कभी बिना कारण मन उदास हो जाता था। माँ ने ससुराल के बारे में पूछा तो रीना ने कहा,”आप तो कहती थी वहाँ सासू माँ दूसरी माँ है, पर वो तो सिर्फ मुझे ही डांटती रहती है, विभा (ननद ) को किसी गलती पर नहीं डांटती, अगर वो रिश्ते में भेद -भाव करेंगी तो मै कैसे वहाँ रह पाऊँगी…”
उस समय रजनी जी चुप रह गई, पर मौके की तलाश में थी, रजनी एक सुलझी हुई महिला थी, बेटी ससुराल में सामंजस्य बैठा ले, इसकी पूरी कोशिश कर रही थी…।
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ये उस समय की कहानी है जब मोबाइल का जिंदगी में प्रदुर्भाव नहीं हुआ था, चिट्ठी का जमाना था…।
रीना न जाने क्यों पोस्टमैन का इंतजार करने लगी… हफ्ता भर बीत गया.. विजय का कोई पत्र नहीं आया…।रीना थोड़ी उदास रहने लगी, किसी काम में उसका दिल न लगता.., रजनी जी बेटी के मनोवृतियों को समझ रही थी,
एक दिन रीना के सामने रजनी जी ने अपनी बहू को, उसकी किसी गलती पर डांट लगाई…, रीना को अच्छा नहीं लगा, बाद में अपनी भाभी से पूछा “माँ आपको डांट लगाती है तो बुरा लगता होगा आपको “
भाभी हँस कर बोली “अरे माँ की डांट का क्या…. अपना समझ कर ही तो डांटती है, फिर इस घर के रीति -रिवाज़ आगे ले जाने की जिम्मेदारी भी तो मेरी है, इसलिये माँ प्यार और अनुशासन दोनों से साध रही है…”
रीना के मन की एक गिरह खुल गई, सासू माँ डांटती थी तो ख्याल भी रखती थी…, भाभी की बात ने उसके सोचने की दिशा बदल गई ..।
एक दिन बेटी को उदास देख रजनी ने उदासी का कारण पूछा तो रीना फफक पड़ी “मुझे आये पंद्रह दिन हो गये, विजय का कोई पत्र नहीं आया, ऐसा क्यों होता माँ, मुझे क्यों उनकी याद आ रही, उनको तो कोई परवाह नहीं मेरी…., ये कैसा गठबंधन है हमारा..”।
“ये गठबंधन ऐसा ही होता है, दो अनजान लोग इस गठबंधन में बंध कब एक दूसरे के दिल में बस जाते पता नहीं चलता…,एक दूसरे की इच्छा और रिश्तों का सम्मान भी इस गठबंधन की पहली शर्त होती है…,समय के साथ ये गठबंधन और मजबूत हो जाता है…, एक बात याद रखों रीना सिर्फ लेना नहीं बल्कि देना भी सीखो….,अगर विजय का पत्र नहीं आया तो तुम ही आगे बढ़ कर लिख दो…,तुम्हारी एक पहल तुम्हारे लिये खुशियों का द्वार खोल देगी..”।
माँ की बातें सुन रीना का दिल हल्का हो गया.., रात खाना खा कर, पत्र लिखने बैठी थी, पेन मुँह में दबाये गहन सोच में डूबी, क्या सम्बोधन दूँ ..,
बाहर घंटी बजी, कुछ आवाजें आईं, पर रीना तो पत्र लिखने की कोशिश में सब अनसुना कर दी, सामने अचानक विजय का चेहरा आ गया.. रीना को लगा सपना देख रही, मुस्कुरा दी, “कैसी हो मैडम .. पिया का घर वीरान करके….”
“आप…. आप कब आये “रीना हैरानी से बोली..।
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“जब तुम मुँह में पेन दबाये, गहन सोच में डूबी थी “विजय के कहते ही, रीना उसकी खुली बांहों में समा गई … शायद गठबंधन का रूप यही होता, जो अनजान दिलो को आपस में बांध देता…।
“आपने मुझे इतने दिनों तक याद क्यों नहीं किया “रूठें स्वर में रीना बोली।
“माँ की तबियत खराब हो गई थी, बस अस्पताल और घर के चक्कर में समय नहीं मिला, वैसे भी मैं अपने कमरे में सोता नहीं था, वहाँ रची -बसी तुम्हारी खुशबू मुझे बेचैन कर देती थी, पर एक बात है तुम्हारे चले आने के बाद मैं ही नहीं तुम्हे डांटने वाली तुम्हारी सासू माँ भी तुम्हे बहुत याद करती हैं, उन्होंने ही भेजा है, बहू का हाल -चाल ले आ ..”।
“विजय जी, मैं अब समझ गई, माँ की डांट में भी उनका प्यार और परवाह छुपी होती है, रिश्तों की गरिमा इस गठबंधन ने समझा दिया,…”।
एक खूबसूरत गठबंधन का आगाज़ हो गया जहाँ प्यार से रिश्तों की नींव पड़ी….।
—संगीता त्रिपाठी
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