यादों का कारवां – शिव कुमारी शुक्ला  : Moral Stories in Hindi

घूम फिर कर  देखा जग सारा, अपना घर सबसे प्यारा सबसे न्यारा 

यह कहावत सौ प्रतिशत सही है कहीं भी रह आओ पर जो सकून, शांति और सन्तुष्टि अपने घर में मिलती है कहीं नहीं। चाहे फाइव स्टार होटल में रुक लो सारी 

सुविधाएं होने के बावजूद दो-तीन दिन में ही लगने लगता है कि अब अपने घर चलो।

 चाहे कहीं कोठी में ठहरो,कहीं फ्लैट में,

 कहीं छोटे घर में या झोंपडी में कहीं भी सन्तुष्टी नहीं मिलती। अपने घर जाकर ही ऐसा लगता है मानो कैद से निकल कर खुले में आगये। बड़ी ही सुखद अनुभूति होती है अपने घर में पहुँचकर। 

अपने घर में अपनी मर्जी के मालिक होते हैं। कभी काम करने की इच्छा नहीं है तो छोड दो यह सोचकर आज आराम कर लेते  हैं कल कर लेंगे कोई टेंशन नहीं कि हम बैठे हैं कोई और उस काम को कर रहा है। जो बनाना है बनाओ खाओ बच्चों की, पति की फरमाइशें स्वेच्छा से पूरी करो।किसी के साथ रहने पर यह आजादी कहाँ जो सबके लिये बना है वही खाओ।

यदि बच्चे न नुकुर करें तो उन्हे समझाओ  अच्छा घर चल कर तुम्हारी पसंद का बना दूंगी आज यही खालो। पति भी खाना देख कर नाक भों सिकोड रहे है उन्हें भी इशारे से खाने के लिए कहना। 

इससे कोई फर्क नहीं पडता कि घर बेटे का है या बेटी का। दोंनों ही जगह एक संकोच होता है मन में और सोच लेते हैं जो बनाओगे सब खा लेंगे। बेटी, बहू  मनुहार कर पूछती भी हैं कि आप लोग क्या खाओगे किन्तु मुँह से यही निकलता है कि सब खाते है कुछ भी बना लो।

 अपने घर में अपनी इच्छानुसार हम उसे सजाते ,संवारते है, अन्यत्र यह संभव नहीं कारण जिनका घर  है वे अपनी  इच्छानुसार यह  कार्य करेंगे और लाजिमी है कि वे दूसरे  का हस्तक्षेप सहन नहीं करेंगे।

अपने घर में हम बेताज बाद‌शाह होते हैं हर निर्णय अपनी इच्छानुसार लेने के लिए स्वतंत्र ।हमें किसी के बारे में सोचना नहीं पड़ता जबकि बेटी- बहू के घर में एक  तिनका भी इधर से उधर  रखने में  हम सौ बार सोचते हैं। 

बड़ा मुश्किल होता है जब बुर्जुगों को अपना घर छोड़ना पड़ता है। बर्षों की पड़ी आदतों को एक दम बदल पाना । बर्षों पुराने  पेड़ को अन्यत्र रोपित नहीं किया जा सकता ऐसे ही बड़े बूढ़े स्वास्थ्य, कमजोरी  सम्वन्धी समस्याओं के कारण अपना घर छोड बेटे-बेटी के साथ रहने जाते तो हैं किन्तु उनकी आजादी छिन जाती है।

वे सालों से पडी अपनी आदतों के अनुसार कोई भी कार्य करते है तो वह नये परिवार में गलत ही सावित होता है ऐसे में किसी के टोकने पर  मर्माहत  हो ग्लानि  से भर उठते हैं। दुःख तो उन्हें तब और अधिक होता है जब उन्हींके सिखाये बच्चे  वो ही  बातें उन्हें ऐसे समझाते हैं मानो  बूढ़े होने पर शायद बे मानसिक रूप से भी अक्षम हो गये।

माना कि दिमाग थोडा धीमा हो जाता है, कुछ बातों को समझने में थोडा समय लगने लगता है, कार्य करने की गति  धीमी हो जाती है। किन्तु जिन बातों के लिए जैसे पंखे ,एसी,लाइट बन्द करना नल की गति धीमी  रखना, गैस बन्द करना, धीमी करना जैसी बातों के लिए वे स्वयं दूसरों को टोकते थे ऐसी गल्तीयों के लिए उन्हें

जिम्मेदार ठहरा कर उन्हें समझाना उन्हें अन्दर तक तोड़ कर रख  देता है। वे ऐसा महसूस करते हैं जैसे  कहीं कैद में आ गये।अपनी स्वतंत्रता का छीनना उन्हें आहत करता  है ।ऐसे में तीव्रता से उन्हें

अपना घर याद आता है, वो समय याद आता है कि  जीवन के कितने सुनहरे दिन थे जब हमआजादी से रहते थे।

उम्र के साथ भूलने की  आदत हो  जाती है जैसे मालती जी बता रहीं थी  कि वे काम करते करते चश्मा कहीं भी रख देती है। धुले कपडे तह कर अन्य कपडों के साथ पलंग पर छोड़ देती हैं ।उनके पति दवाई खाकर रैपर वहीं फर्श पर डाल देते हैं या पेपर पढ़कर चश्मा वहीं पेपर के साथ रख कर भूल जाते हैं ।

ये सब बातें उनके बेटे बहू को नागवार लगती है। अक्सर टोक देते हैं माम्मीजी  आप अपने कपडे कमरे में ले जाया करो। या पापा जी को बोलो वे अपनी दवाई कमरे में ही खाया करें और रैपर डस्टबिन में  डालें।  आप दोंनों चश्मा अपने कमरे में ही रखा  करें बाद में ढूंढना   पडता है। इस तरह कितना ही 

बड़ा घर हो उनकी जिन्दगी  एक कमरे में ही सिमट कर रह जाती है। ऐसे में  न तो बच्चे गलत हैं न माता-पिता। कारण बच्चे अपने हिसाव से घर की  व्यवस्था चाहते हैं और माता-पिता, बार-बार कमरे में जाकर हर चीज रखने में अपने को असमर्थ पाते है सोचते हैं जब उठेगें एक बार में ले जायेंगे। माता-पिता सोचते है

कैसे जब ये बच्चे उनके घर आते थे तो इनके बच्चे पूरा घर सिर पर उठा लेते थे तब वे उन्हें नहीं रोकते थे कई बार तोडफोड भी कर देते तो भी यही सोचते थे कि कहीं इसके चोट तो नहीं लगी। प्यार से सोचते थे सामान का क्या है फिर जमा लेंगे बच्चों को खेलने दो। पर आज उन्हीं बच्चों के घर  में जरा सी भूल होने पर उन्हें  टोका जाता है।

समय  का फेर है आज वे असमर्थ है ऐसे में भला किसे न अपना घर, अपने जीवन के वे सुन्हरे दिन याद आयेगें । रामायण में  दोहा है  पराधीन  सपनेहूं  सुख  नाहीं।

वैसे सब उनका खाने-पीने का ध्यान रखा जाता है, डाक्टर को दिखाना ,दावाई, सब, समय पर चैक अप करवाना । किन्तु छोटी छोटी सी बातें जो बोली जाती हैं वे उन्हे उस परिबार से  अलग -थलग  कर देतीं हैं। जुडाव संभव नहीं हो पाता पर क्या करें नियति यही है ।उम्र के एक पड़ाव पर अपनी जड़ों से दूर होना ही पडता है

किन्तु वह कितना कष्टकारी होता है उनकी आत्मा ही जानती है। तिनके -तिनके जोडी  पचास बर्षों की गृहस्थी पल भर में उजड जाती है।जिस  घर के कोने-कोने में 

अपने जीवन के सुनहरे दिन, बच्चों की किलकारियाँ, उनके तोतले बोल, पति से नोंक-झोंक, गम्भीर समस्या आने पर पति से विचार विमर्श  ,बच्चों के शादी ब्याह के ऐसे हजारों लम्हे समाये  हों उन्हें छोड़ना 

आसान होता है क्या।याद आते ही 

बरबस आँखे भींग  जाती हैं। घर का मन्दिर, रसोई  गृहणी अपने हिसाब से एक-एक चीज लाकर सजाती है वह सब आँखों में समाया रहता है पर एक समय ऐसा आता है जब सब कुछ छोड़ नये घोंसले में जाकर अपने को  समाहित करना होता है। यादों के सहारे अपने जीवन को सवांरना पड़ता है।

फिर भी कुछ भी कहो अपना घर अपना ही होता है उनकी बराबरी कहीं नहीं हो सकती‌।

शिव कुमारी शुक्ला

31-7-24

स्व रचित मौलिक एवं अप्रकाशित

#अपन घर अपना ही होता है****

प्रतियोगिता

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