वो सुनसान रात – आरती झा”आद्या”

आरुषि और वैभव की नई नई शादी हुई थी। एक दूसरे के माता पिता की पसंद थे दोनों। शादी से पहले एक-दूसरे को ना ही तो दोनों ने देखा था और ना ही बात की थी कभी। बहुत धूमधाम से शादी की रस्में सम्पन्न हुई और गठजोड़ के साथ ही दोनों जन्म जन्मांतर के साथी हो गए। जहाँ आरुषि हँसमुख बिंदास स्वभाव की थी, वही वैभव चुपचाप अकेले रहने वाला अक्खड़ स्वभाव का मालिक था। वैभव बिजली विभाग में शहर में क्लर्क के पद पर पदस्थापित था। शादी के बाद कुछ दिन ससुराल में बिताने के बाद आरुषि आँखों में चमकीले सपने लिए पति के साथ गृहस्थी बसाने शहर आ गई। कम बोलने वाले पति के साथ बकबक करने वाली आरुषि सामंजस्य बिठाने की हर सम्भव कोशिश कर रही थी। कभी लगता सफल हो रही है और कभी किसी छोटी बात पर ही सब कुछ बिखरता सा लगता। किससे कहे और क्या कहे.. आरुषि समझ नहीं पाती थी। अक्सर वैभव रात्रि भोजन के बाद सैर के लिए जाता था। दिनभर घर में पड़ी पड़ी आरुषि ऊब जाती थी तो उसने भी वैभव के साथ सैर पर जाना शुरू कर दिया। चुपचाप जाना और चुपचाप आ जाना.. नित्य का यही नियम था। वैभव को जाने कौन सी बात बुरी लग जाए.. ये सोचकर आरुषि भी अपनी तरफ से बातें करने की बहुत कम कोशिश करती थी।

    एक रात अमावस्या की काली रात थी और सड़क सुनसान.. आरुषि वैभव के साथ सैर के लिए अन्य दिनों की भाँति ही निकली थी। स्ट्रीट लाइट और आती जाती गाड़ियों के प्रकाश का उजाला उन्हें चलने में सहायता कर रहा था। अचानक आरुषि को क्या सूझी कि उसने वैभव के स्वभाव पर मज़ाक मज़ाक में ही कुछ कह दिया और अक्खड़ स्वभाव का वैभव यह बर्दाश्त ना कर सका और उसका अहम् आरुषि के मज़ाक से आहत हो उठा। वो बिना कुछ बोले और सोचे लम्बे लम्बे डग बढ़ाता हुआ आरुषि से काफी आगे निकल गया। आरुषि कुंठित हो वही अवाक सी खड़ी रह गई। फिर वो भी वैभव तक पहुँचने के लिए बड़े बड़े डग उठाने लगी लेकिन वैभव बहुत तेजी से चला जा रहा था। तभी तीन चार लड़के बाइक से हूटिंग करते आरुषि के बगल से गुजरे और उसे अकेली देख बाइक रोक कर घुमाने लगे। आरुषि जो कि वैभव के इस गैर जिम्मेदाराना हरकत से क्षुब्ध हो उठी.. दौड़ कर हाँफती हुई वैभव तक पहुँची। वैभव हाँफती आरुषि को देख मुस्कुराया जिसमें कटाक्ष और आत्मसम्मान पर चोट स्पष्ट दिखा आरुषि को। आरुषि ने तभी मन ही मन प्रण ले लिया कि वो अब अपनी सुरक्षा के लिए किसी पर निर्भर नहीं रहेगी चाहे वो उसका पति ही क्यूँ ना हो। सूरज की पहली किरण के साथ ही आरुषि ने आगे पढ़ने और आत्मरक्षा की सारी विधाओं को सीखने का अपना दृढ़ निर्णय वैभव को बता आत्मसम्मान की सीढ़ी पर पहला कदम बढ़ा दिया।वो सुनसान रात आरुषि के लिए आत्मनिर्भरता की परिभाषा को भाषित कर आत्मसम्मान की मुस्कान दे गया।

   #आत्मसम्मान 

आरती झा”आद्या”

दिल्ली

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