आज का दिन उनके परिवार के लिए बहुत ही खुशी का दिन है। प्रैस रिपोर्टर और टीवी चैनल वाले उनकी बेटी वर्षा को घेरे हुए हैं। वंदना जी दौड़ दौड़ कर सबकी आवभगत में लगी पड़ी हैं। उनकी बेटी को तैराकी के लिए अर्जुन पुरस्कार से नवाज़ा जा रहा है।
टीवी पर प्रसारित होने वाले फुटबॉल मैचों को बहुत चाव से देखती थीं। वो अक्सर बाऊजी की खुशामद करके कहती थीं,”बाऊजी, मुझे फुटबॉल के कोचिंग सेंटर में प्रवेश दिला दीजिए ना। मैं खूब मेहनत करके देश का नाम रोशन करना चाहती हूँ।”
वो तो उनको प्यार से बहला देते थे पर दादी बहुत हल्ला काटती थीं। उस समय उनके घर में दादी जी का एकछत्र साम्राज्य था। वो चिढ़ कर कहती थीं,”देख लल्ला, छोरी को ज्यादा सिर ना चढ़ा। वहाँ स्टेडियम में छोटे छोटे कपड़े पहन कर फुटबॉल नचाएगी। बाप रे, खुद ही फुटबॉल बन कर रह जाएगी।”
इसी तरह की बातें कह कह कर वो विरोध करती। और सच पूछा जाए ,तो बाऊजी और माँ भी दादी की ही विचारधारा के थे। उन्होनें अपने मन को दबाना सीख लिया था और मन में इस बात को स्वीकार कर लिया था …उनके जैसी परिस्थितियों वाली लड़की फुटबॉल का सपना देखने का दुस्साहस नहीं कर सकती है।
कालान्तर में सुदर्शन जी के साथ विवाहबंधन में बँध कर वो एक सुसंस्कृत परिवार की शोभा बन गई और उस गरिमा का उन्होंने पूरी तरह निर्वहन भी किया। बेटी वर्षा के जन्म के पश्चात वो एक गरिमामयी माँ भी बनी। बिटिया में भी उनकी तरह ही खेलकूद के प्रति रुझान के बीज अंकुरित होने लगे थे। वो स्वीमिंगपूल को देख कर ताली बजाने लगती थी और उसमें छलांग लगाने की कोशिश करती थी। उस दिन तो हद ही हो गई थी…
वो लोग क्लब के किसी कार्यक्रम में गए हुए थे। सब परस्पर गप्पें कर रहे थे तभी शोरगुल मचा था…शर्मा जी का दो वर्षीय बेटा आया की गलती से पूल में जा गिरा था पर उनकी लाडली वर्षा ने पूल में कूद कर उसे निकाल लिया था। चारों तरफ़ उसकी हिप हिप हुर्रे हो रही थी। शर्मा दम्पत्ति तो उसे ऐसे चिपकाए हुए थे कि क्या कहा जाए। बाद में उन्होने बिटिया से सारी पूछताछ कर डाली थी । उन्होनें पूछा था,”अरे बेटा, तुम अचानक पूल में कैसे कूद पड़ी? तुम्हें डर नहीं लगा?”
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वो खिलखिला पड़ी थी,”ओह नो मम्मा! मुझे तो इस तरह के स्विमिंग पूल अपनी ओर पुकारते नज़र आते हैं। इनको देख कर ही मुझे कुछ कुछ होने लगता है।”
वो गौर से अपनी लाडो को देखने लगी थीं और फिर अचानक पूछ बैठी थीं,”तुम स्विमिंग सीखोगी?”
वो खुशी से उछल ही पड़ी थी और उनके गले लग कर बोली ,”ओह मेरी प्यारी मम्मा, मैं स्विमिंग में नेशनल स्तर पर ऊँचाई पाना चाहती हूँ पर दादी और पप्पा जी मानेंगें?”
और वो बहुत उदास हो गई थी।उन्होनें आगे बढ़ कर उसका माथा चूम लिया था और मन ही मन तय कर लिया ‘मेरी बेटी मेरा इतिहास नहीं दोहराएगी। वो राष्ट्रीय लेवल की तैराक बनेगी। मैं उसके सपने सच करूँगी’
बस उसी दिन से शुरू हो गया… वर्षा की तैराकी की कोचिंग का सिलसिला और साथ में घरवालों के घोर विरोध का ना खत्म होने वाला दौर। वो बेटी के सामने मजबूत चट्टान बन कर खड़ी रही। कड़ी धूप में स्वीमिंगपूल में अभ्यास के कारण उसका रंग भी थोड़ा दबने लगा था और वो थोड़ी साँवली भी लगने लगी थी। एक दिन दादीजी उन पर बरस ही पड़ी थीं,”बहू! अब तुम हद कर रही हो। लड़की तो बौराई हुई है ही पर तुम पर ये क्या पागलपन सवार है।”
वो सहम गई थीं पर फिर निडर होकर बोली,”क्या हुआ मम्मी जी?”
वो बेतरह.चिढ़ गई थीं। कमर पर हाथ रख कर चिल्लाईं,” अरे क्या नहीं हुआ? लड़की वहाँ कैसे छोटे छोटे कपड़े पहन कर ट्रेनिंग ले रही है। सारे समाज में थूथू हो रही है।”
वो सिर उठा कर बोली,”मम्मी जी, तैराकी बहुत बड़ी चीज़ है। उसमें आपकी पोती नाम कमा रही है और फिर तैरते समय साड़ी या सूट तो नहीं पहन सकती है।”
दादी जी का गुस्सा सातवें आसमान पर था,”और तो और, ये सुदर्शन की बुद्धि भी फिर गई है। अच्छे परिवार में छोरी का ब्याह भी ना हो पाएगा। ऐसे ही कोई गोरी नहीं थी…रही सही कसर इस मरी तैराकी के शौक ने पूरी कर दी।”
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उनसे जब सहन नहीं हुआ तो वो भी किंचित रोष से बोल पड़ी थीं,”आखिर आप कहना क्या चाहती हैं?”
वो भी उसी तरह गरज कर बोली,”तुम माँ बेटी तो कुछ समझने को तैयार ही नहीं हो तो खुल कर कहे देती हूँ। दिनरात धूप में तप कर काली कोयला होती जा रही है। कौन ब्याह करेगा। सबको गोरीचिट्टी छमकछल्लो पसंद आती है।”
अंदर बैठी वर्षा सब सुन रही थी। रोती हुई बाहर आई,”हाँ मैं काली थी और काली ही रहूँगी। मुझे नहीं करनी शादीवादी। स्विमिंग मेरा पैशन है और मैं इसमें नाम कमा कर रहूँगी।”
इसी तरह दिनरात की कलह के बीच वो आगे बढ़ती गई और अब आज ये शुभदिन आ ही गया है। अचानक वो अपने में मगन भाग ही रही थीं …अचानक ठोकर लगी और गिरते गिरते बचीं। सुदर्शन जी हँसे थे,”अरे गिर कर हाथ पैर तोड़ लोगी। माथा तो पहले ही बहुत ही फोड़ चुकी हो।”
वो एक झटके से अतीत से वर्तमान में आ गई थीं। सुदर्शन जी सबको तैयार होने के लिए कह रहे थे।
“भई, देरी मत करो। हमलोगों को समय पर राष्ट्रपतिभवन पहुँच जाना है। ये पल हमारे लिए कितना गौरवमय है।”
तभी वर्षा सुंदर साड़ी और गजरे से लैस होकर निकली और सामने बैठी दादी जी के सामने झुक गई। आज उन्होनें गदगद होकर उसकी ढेरों बलैया ले डाली और एक तरफ़ नजर का काला टीका लगा दिया। आज उसका साँवला रंग भी दपदप चमक रहा था।
नीरजा कृष्णा
पटना