बिस्तर पर लेटी राधा छत पर घूमते पंखे की घूमती पंखुड़ियों को ध्यान से देख रही थी जिनके घूमने के साथ साथ जैसे वक्त का पहिया कई साल पीछे चला गया हो।
सोचते सोचते यादों की किताब के पन्ने जैसे एक-एककर खुलने लगे। वक्त की स्याही धुंधली जरूर पड़ गई थी पर शब्दों के निशान बाकी थे।
उसे याद आया अपना ब्याह सोलहवां साल पूरा भी नहीं हुआ था कि उसकी विदाई हो गई। दो साल बड़े मनोज भी थे अल्हड़, मस्त बेफिक्र। कोई नौकरी तो थी नहीं कि घर से बाहर जाते घर का पुश्तैनी बिज़नेस पिता रमन जी संभाल ही रहे थे। सो मनोज बाबू दिन भर अपनी नई नवेली दुल्हन के इर्द-गिर्द चक्कर काटा करते। और अम्मा वो तो अपने बेटे बहू की लाख बलैयां लेती नहीं थकतीं। रोज अपनी लाडली बहू की नज़र उतारा करतीं।
राधा भी अम्मा के साथ बैठीं अमिया छीलती या चावल बीनती घूंघट की ओट से कनखियों से तिरछी नज़रों के शरारती बाण चलातीं जो मनोज के दिल के आर-पार हो जाते। अम्मा दोनों की प्रेम लीला को देखकर भी अनदेखा कर देतीं।
ब्याह से पहले मनोज बहुत महंगी फटफटिया (मोटरसाइकिल) लाया। रमन जी ने कहा भी कि कार ही ले लो, बहू आएगी तो आराम रहेगा। पर वो क्या जाने उनके लाडले का सपना तो था उनकी बहुरिया उसकी कमर को पकड़कर अपने गाल उसकी गर्दन से सटाकर बाइक पर उसके पीछे बैठे और वह फुल स्पीड पर चलाकर लांग ड्राइव पर ले जाए।
यूँ ही प्रेम सागर में डूबते उतराते कब एक साल बीत गया और राधा चांद से बेटे सोनू की मां बन गई। पूरे नौ महीने रमन जी उनकी पत्नी और मनोज ने राधा को पैर ज़मीन पर नहीं रखने दिया।
अम्मा ने अपना नौलखा हार पोता होने की खुशी में राधा को दे दिया। राधा को मनोज का प्यार और सास-ससुर का दुलार देखकर डर लगता कहीं किसी की नजर ना लग जाए। बेटा होने पर कमजोर होने की वजह से अक्सर बीमार रहती। बेटे की छठी पर मनोज ने कहा कि वह नौलखा हार पहन ले। पर राधा तबियत ठीक न होने पर पहन नहीं पाई।
बेटे के पहले जन्मदिन को खूब धूमधाम से मनाने की सोची। सारे रिश्तेदार और मेहमानों से घर भर गया था। अम्मा और मनोज के कहने पर राधा खूब अच्छी तरह तैयार हुई। लाल बनारसी साड़ी में एकदम स्वर्ग की अप्सरा लग रही थी। मनोज ने देखा तो देखता रह गया उसने कहा “अब मैं सब्र और नहीं कर पाऊंगा बस मैं तुमको अम्मा का नौलखा पहने देखना चाहता हूं” और एक मिनट में आया कहकर बाइक उठाकर बाहर निकल गया।
उधर राधा जैसे ही नौलखा गले में डालने ही वाली थी कि बाहर शोर मचा गली के नुक्कड़ पर तेज रफ्तार से आती कार ने मनोज को टक्कर मार दी और मनोज को कुचल कर वह भाग गया। मनोज के हाथ में राधा का मनपसंद सफेद मोगरा के फूलों का गजरा दबा था जिसे लेने वो जल्दी से निकल कर गया था।
हस्पताल ले जाते जाते मनोज राधा और मां-बाप को बिलखता छोड़कर दूसरी दुनिया में जा चुका था। नन्हा सोनू तो अपने में मस्त था वह कुछ समझ ही नहीं पा रहा था कि उसके सर से पिता का साया उठ गया। राधा की तो जैसे दुनिया ही उजड़ गई। मनोज के बिना जीना तो उसे आता ही नहीं था, उसकी दुनिया तो मनोज से शुरू होकर उसपर ही खत्म होती थी। जो मनोज उससे एक मिनट को भी अलग नहीं होना चाहता था वो कैसे उसे बिना कुछ कहे, बिना बताए अकेला छोड़कर चला गया।
राधा गुमसुम सी हो गई उसे ना अपना ख्याल था ना दुधमुंहे सोनू का ना ही उन बूढ़े बेबस सास-ससुर का जिनके बुढ़ापे की लाठी, उनका बेटा उनसे दूर चला गया कभी वापस ना आने के लिए। फिर धीरे धीरे राधा ने उन तीनों के लिए अपने आप को संभाला जो मनोज के चले जाने के बाद उसकी जिम्मेदारी थे।
मनोज के जाने के दुख से उबर रमन जी और उनकी पत्नी ने राधा को दोबारा घर बसाने को कहा। पर राधा ने मनोज के अलावा किसी को अपनाने से साफ मना कर दिया।
उसने रमन जी के साथ बिज़नेस संभालना शुरू किया। तीनों का एकमात्र ध्येय सोनू को पढ़ा लिखाकर बड़ा करना था। वक्त बीता सोनू इंजीनियर बन गया। रमन जी ने सारा बिजनेस राधा और सोनू के नाम कर रिटायर्मेंट ले लिया। सोनू का ब्याह शीना से हो गया। रमन जी और उनकी पत्नि भी चल बसे।
राधा के पास सबकुछ था पर मन का सुकून नहीं था। मनोज के बाद उसकी जिंदगी के सारे रंग फीके पड़ गए थे। मनोज के बिना उसे ज़िंदगी बेमानी लगती।
फिर एक दिन राधा ने शीना को सोनू से कहते सुना “मम्मी के पास जो नौलखा हार है क्या वो बुढ़ापे में पहनेंगी? मुझे जो जेवर उन्होंने चढ़ाए उनमें से एक भी उसकी टक्कर का नहीं है। मैं तो उनसे वह नौलखा लेकर रहूंगी” कहकर वह राधा के पास पहुँच गई और नौलखा मांग लिया।
राधा– वह मनहूस नौलखा मैं कभी तुम्हारे गले में नहीं पहनाऊंगी। मनोज उसे देखने की ललक में चले गए अब सोनू? नहीं कभी नहीं। इसे बेच देंगे और पैसे किसी गरीब लड़की के ब्याह में दान कर देंगे। कहते हुए राधा के आंसुओं का बरसों रूका सैलाब उमड़ पड़ा। सोनू और शीना का सर दुख और शर्म से झुक गया।
दोस्तों
आदमी सोचता कुछ है होता कुछ है।किसी के चले जाने से जिंदगी रूकती नहीं वक्त का पहिया अपनी रफ्तार से चलता रहता है।जीना पड़ता है दूसरों के लिए बिना किसी मंज़िल के।राधा भी मनोज के साथ मर तो न सकी पर अपने कर्त्तव्यों के पालन के लिए उसे जीना था जो काम मनोज अधूरे छोड़कर गया था उन्हे पूरा करने के लिए। पर ऐसी अधूरी ज़िंदगी ज़िंदगी नही रहती ।
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आपकी सखी
कुमुद मोहन